Friday, July 1, 2011

आँसू तथा ये क्या कहते हैं?

स्वप्ना दत्ता बच्चों के लिए तीन दशकों से भी अधिक समय से लिख रही हैं और 40 से भी अधिक पुस्तकों के सृजन का श्रेय इन्हें प्राप्त है। इनकी कहानियाँ सभी प्रमुख दैनिक पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं जिनमें चन्दामामा भी शामिल है। भारत की एनिड ब्लाइटन के रूप में प्रख्यात श्रीमती दत्ता की पुस्तकें चिल्ड्रेन्स बुक ट्रस्ट तथा अन्य के द्वारा प्रकाशित की गई हैं। ये टारगेट की सम्पादकीय सहायक, लिम्का बुक ऑफ रिकाडर्‌स की सहायक सम्पादिका तथा 1987 से 2002 तक इन्साइक्लोपिडिया ब्रिटैनिका की उप सम्पादिका रह चुकी हैं। इन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है जिनमें शामिल हैं राष्ट्रीय फेलोशिप, एक राष्ट्रीय पुरस्कार, म्यूनिक तथा वियेना इण्टरनेशनल यूथ लाइब्रेरी के लिए छात्रवृति। वह बंगलोर में रहती हैं।
क्या आँसू हमेशा शोक के संकेत होते हैं? तो क्या आँसू बहाना बन्द करके कोई सुखी रह सकता है? आँसू के महत्व और तात्पर्य के विषय में मेरी दादी ने यह कहानी मुझे तब सुनाई थी जब मैं बच्ची थी। इस सरल कहानी को अपने पाठकों के साथ बाँटना चाहूँगी, क्योंकि वे निश्चय ही इसे पसन्द करेंगे।
वसन्त ऋतु की प्रातः वेला थी। चारों ओर रंग-बिरंगे फूल खिल रहे थे। पक्षी गा रहे थे। झरने भी गुनगुना रहे थे। हरेक व्यक्ति खुश था। हरेक के होठों पर मुस्कान थी।
एक ऐसी प्रातः वेला में रानी मधुरिमा अपने भव्य राजमहल में सोकर उठी। उसने गवाक्ष से बाहर झाँका। उद्यान में रंगों की मानो प्रज्वलित भूलभुलैया हो। कोयल और अन्य पक्षी मधुर तान में गा रहे थे। उसक हृदय उल्लास से भर गया।
‘‘वसन्तोत्सव का आनन्द लेने के लिए क्या हम जंगलों में चल सकते हैं, मेरे स्वामी?'' उसने राजा से कहा। उसने मुस्कुरा कर सिर हिलाया। और काम खत्म हो जाने पर सम्मिलित होने का वचन दिया।
रानी अपनी सहेलियों के साथ जंगल में गई। उन सब ने सरोवर के स्वच्छ जल में स्नान किया। फूलों को चुनकर मालाएँ बनाईं। ताजे फलों का स्वाद लिया। वे तितलियों के पीछे भागे। चिड़ियों के साथ गुनगुनाये-गाये। सब उल्लास में डूबे थे। सबके लिए यह सबसे आनन्ददायक दिन था।

क्रमशः दिन ढलने लगा। पक्षी अपने घोंसलों में लौटने लगे। कमल दलों ने अपने पट बन्द कर लिये। कुमुदनी तन्द्रा में डूब गई। तारों ने अपने नयन खोले और टिमटिमाने लगे। पर राजा के आगमन का कोई संकेत नहीं था। क्या वे अपना वादा भूल गये। पर अब वन की सुन्दरता अन्धकार में खो गई थी। रानी मधुरिमा अपनी सहेलियों के साथ धीरे-धीरे भारी कदमों के साथ महल में लौट गई।
वह महल पहुँचकर जंगल में बीते हर्षोल्लासपूर्ण दिन के बारे में राजा को बताने के लिए उत्सुकता के साथ उनकी प्रतीक्षा करती रही। पर राजा नहीं आये। पल पल करके पहर बन गये। आसमान में चाँद चमकने लगा। महल के चतुर्दिक वीथियाँ निस्तब्ध हो गईं। पर राजा अभी तक दरबार से नहीं लौटे। रानी की बेसब्री रोष में बदल गई। आखिर जब राजा का पदचाप सुनाई पड़ा तब लगभग अर्धनिशा हो गई थी।
‘‘इतने विलम्ब का कारण स्वामी?'' रानी ने खिन्न स्वर में पूछा।
‘‘प्रजा का दुख दर्द।'' राजा ने कहा।
‘‘दुख दर्द !''
‘‘हाँ, उनकी समस्याएँ, उनकी कठिनाइयाँ! मुझे ये सब सुलझानी थीं। और कौन उनकी मदद करेगा? उनका राजा ही तो करेगा।''
मधुरिमा ने अपना सिर झटकते हुए कहा, ‘‘ऐसे खूबसूरत दिन को शिकायतें सुनने में बर्बाद करना कितनी शर्म की बात है!''
राजा मुस्कुराकर रह गया, कुछ बोला नहीं। दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। तीसरे दिन भी। रानी यद्यपि वन के मनोरम वातावरण में अपना समय बीताती रही, पर राजा उसकी खुशी में सम्मिलित नहीं हो सका।
अन्ततोगत्वा रानी निराश और दुखी होकर बोली, ‘‘आपका राज्य जंगल से भिन्न क्यों है? यहाँ महल में आहें और आँसुओं के सिवा मुझे कुछ और दिखाई नहीं देता। दुख,दर्द-शोक और समस्याएँ ! मैं इन सब से तंग आ चुकी हूँ! मैं प्रसन्न रहना चाहती हूँ।''

‘‘किन्तु यह सम्भव नहीं, मधुरिमा'', राजा ने स्नेह से कहा, ‘‘जीवन प्रकाश-अन्धकार, सुख-दुख और हँसने-रोने का ताना-बाना है। हमें दोनों का सामना करना है। किसी एक को बाहर कर देना बिलकुल सम्भव नहीं है।''
रानी मधुरिमा ने हठपूर्वक सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘प्रयास करने पर हर चीज सम्भव है, स्वामी। आखिर आप यहाँ के राजा हैं। आप को घोषणा कर देनी चाहिये कि जो भी, एक बून्द भी आँसू बहायेगा, वह हमेशा के लिए राज्य से निष्कासित कर दिया जायेगा।''
राजा ने चकित और आहत होकर रानी पर नजर डाली। ‘‘तुम रानी और प्रजा की माता हो। तुम किसी के लिए इतनी निर्दय और अनुचित कामना कैसे कर सकते हो?''
‘‘मैं अवश्य ऐसी कामना करूँगी और आप वही करेंगे जो मैं कहती हूँ।'' रानी ने कहा।
‘‘ऐसा ही होगा'', राजा बोला, ‘‘किन्तु, तुम शीघ्र ही अपने इस निर्णय के लिए पछताओगी। तुम केवल आँसुओं को बन्द करके सुखी नहीं रह सकती।''
रानी मधुरिमा हँसती हुई दर्पण की ओर मुड़ी।
राज्य भर में घोषणा कर दी गई। लोगों ने इसे मूक विस्मय के साथ सुना। कौन पाषाण- हृदय नीच गरीबों के आँसू लूट रहा है, जो उनका एक मात्र सान्त्वनादाता है? वे विषाद, क्षति, दुख-दर्द के सामने कैसे मुस्कुरा और हँस सकते हैं? क्या खुशी थोपी जा सकती है? राज्य से निष्कासित लोगों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी।
मौसम, एक के बाद एक, बदलते गये। वर्ष-चक्र पूरा घूम गया। एक बार वन में पुनः वसन्त की बहार आ गई। जंगल फूलों के रंग से दमक उठा और उनकी खुशबू हवा में तैरने लगी। पक्षी गीत गाने लगे। पर इस बार रानी मधुरिमा के पास यह सब देखने के लिए समय नहीं था। उसका शिशु-बेटा, राजकुमार गम्भीर रूप से बीमार था। वह भारी हृदय के साथ अपने बेटे के पास बैठी थी। राज्य के सभी चिकित्सकों ने उपचार किया। पर व्यर्थ! दूसरे दिन के सूर्योदय के साथ उसके बेटे का सूर्यास्त हो गया।

रानी मधुरिमा का हृदय दुख से कराह उठा और आँसुओं से उमड़ पड़ा। उसकी मुस्कुराहट, लगा कि हमेशा के लिए विषाद में डूब गई।
अगले दिन सुबह राजा ने उसे दरबार में बुलाया। ‘‘तुमने अपने ही आदेश का उल्लंघन किया है, मधुरिमा।'' राजा ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘अब तुम्हें देश-निकाला की सज़ा भुगतनी होगी।''
रानी ने स्तम्भित होकर राजा की ओर देखा, ‘‘पर निश्चय ही आप राज्य की रानी को राज्य से बाहर निकाल नहीं सकते!''
‘‘मैंने तुम्हारी आज्ञा से ही यह कानून बनाया और एक बार कानून बन जाये तो यह किसी को नहीं छोड़ता, राजसत्ता को भी नहीं।'' राजा ने दृढ़ता के साथ कहा।
रानी मधुरिमा को महल से बाहर कर घने जंगल में भेज गिया गया। बीहड़ रास्तों में भटकती गिरती जंगली जानवरों के भय से काँपती रोती-रोती वह अन्धी हो गई। उसने उन लोगों की आवाजें सुनीं जो राज्य से निष्काषित किये गये थे। उन सब ने अपनी रानी का स्वागत किया और उसके दुःख और पुत्र शोक की भारी विपदा को बाँटा। उन सबने उसके लिए कुटिया बनाई और स्नेहपूर्वक उसकी देखभाल की क्योंकि अब वह उन्हीं लोगों में से एक थी।
दिन गुजरते रहे। लोग निष्कासित रानी का सम्मान करने लगे। वे उसके साथ अपना सुख-दुख बाँटने लगे। रानी मधुरिमा अपने अहंकार और उद्दण्ड व्यवहार को भूल गई। उसने उन सब की सेवा की, परिश्रम किया और सहायता की जिन्होंने उसे नया जीवन दिया था। अन्ततोगत्वा वह एक सच्ची रानी और माता बन गई।
एक दिन स्वच्छ प्रातःकाल, राजा अपने सुनहले रथ में प्रकट हुआ।
जब वह चारों ओर निहार रहा था तब उसने रानी मधुरिमा को एक बीमार बच्चे की सेवा करते हुए देखा। बच्चा उसकी भुजाओं में सिमटा हुआ था। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। राजा ने उस पर नज़र डाली। रानी नतमस्तक हो गई।
‘‘क्या तुमने आँसू के महत्व को समझ लिया, मधुरिमा?'' उसने स्नेह से पूछा।
‘‘हाँ, समझ गई, मेरे स्वामी'', वह विनयपूर्वक बोली।
‘‘तब तुम अपनी सभी बहिष्कृत प्रजा के साथ अपने राज्य में वापस लौट चलो,'' राजा ने कहा।




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