Saturday, July 2, 2011

देवसेना की कहानी

अवंति देश की राजधानी में, एक सुप्रसिद्ध विष्णु मंदिर हुआ करता था। विष्णु शर्मा उस मंदिर का प्रधान पुजारी था। उसने संगीत व नाट्य़ शास्त्र का गहरा अध्ययन किया और उन में प्रवीण हो गया। राजस्थान के संपन्न लोगों के बच्चे उसके यहाँ ये विद्याएँ सीखने आते थे ।
देवसेना, विष्णु शर्मा की इकलौती पुत्री थी। उसके बचपन में ही उसकी माँ का निधन हो गया। यौवन में प्रवेश करते-करते उसने नृत्य-संगीत कलाएँ बखूबी सीख लीं; सब उसकी कला की प्रशंसा करने लगे। उसका नृत्य देखने साधारण लोग व पुर प्रमुख सब आते थे।
राजा विक्रमसेन देवसेना के कौशल की जानकारी मिलने पर बहुरूपिये के वेष में उसका नृत्य देखने आया। उसकी प्रतिभा को देखकर वह अवाक् रह गया। उसके नृत्य- गान -माधुर्य व सुन्दरता से बहुत प्रभावित हो गया। उसने राजधानी लौटने के बाद विष्णुशर्मा को खबर भेजी कि उसकी पुत्री देवसेना को राज नर्तकी के पद पर नियुक्त किया जाता है।
इसके उत्तर में देवसेना ने राजा को पत्र लिखा, जिसमें उसने स्पष्ट रूप से बताया कि वह कलाओं के लिए समर्पित है, रसिक जनता व पंडितों के सम्मुख ही नृत्य प्रदर्शित करेगी और राजनर्तकी बनकर दरबार के नियमों का पालन करना उससे संभव नहीं और उसे यह क़तई पसंद नहीं। देश भर में यह बात फैल गई । लोग यहाँ तक कहने लगे कि राजा उससे विवाह करना चाहते हैं, पर देवसेना ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
‘‘देवसेना नृत्य व संगीत में कोविद है, इसलिए वह किसी महान कलाकार से विवाह करना चाहती होगी,'' एक शिल्पी को ऐसा लगा और उसने देवसेना की आकृति को एक चिकने पत्थर पर तराश कर वह प्रतिमा भेंट स्वरूप देवसेना के पास भेजी। उसने उससे विवाह रचाने का भाव भी व्यक्त किया। उसको एक कवि ने अपने काव्य की नायिका बनाया और एक महाकाव्य रच डाला। एक चित्रकार ने उसके सौंदर्य को एक कलाकृति के रूप में चित्रित किया और उससे विवाह करने की इच्छा जतायी।

इस प्रकार कई लोग उससे विवाह करने आगे आये। यह सब देखकर देवसेना घबरा गयी। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या किया जाए। वह अपने बचपन की सहेली सुभाषिणी से सलाह माँगने गयी, जो राजवैद्य की पुत्री थी।
सुभाषिणी बड़ी ही विवेकशील थी। उसे अच्छे-बुरे की परख थी। उसने देवसेना से कहा, ‘‘तुम ब्रह्मचारिणी बनी रहना चाहती हो या किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह करना चाहती हो, जो सब प्रकार से तुम्हें अच्छा लगता है?''
बिना हिचकिचाये देवसेना ने कहा, ‘‘मैं ऐसे व्यक्ति से ही विवाह करना चाहती हूँ, जो मेरे नृत्य, संगीत व सौंदर्य पर रीझकर नहीं, बल्कि मुझे देवसेना मात्र मानकर मुझसे पवित्र प्रेम करे।''
उसके इस उत्तर पर सुभाषिणी खुश हुई और उसने कहा, ‘‘ठीक है। मेरे पिताश्री चिकित्सा हेतु कुछ मूलिकाओं को इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें मैं बखूबी जानती हूँ। उनमें से दो मूलिकाएँ लाकर तुम्हें देती हूँ। उनमें से एक को खाने के बाद एक ही घंटे के अंदर तुम्हारा रूप विकृत हो जायेगा। तुम एकदम काले रंग की हो जाओगी। दूसरा खाने पर कुछ ही क्षणों में तुम्हारा रूप यथावत् हो जायेगा।''
विकृप करने वाली मूलिका को देवसेना ने उसी दिन खा लिया। एक घंटे के अंदर ही उसका रंग बदल गया। दूसरे ही दिन उसने उस शिल्पी, कवि व चित्रकार को ख़बर भेजी, जो उससे शादी करने के लिए तड़प रहे थे। अपने-अपने भाग्य पर आनंदित होते हुए ये तीनों उससे मिलने आये। परंतु, उसके रूप को देखकर स्तंभित रह गये।
‘‘दुर्भाग्यवश, मेरा यह रूप हो गया। आप तीनों में से मुझसे जो शादी करना चाहते हैं, उनमें से एक आगे आये।'' देवसेना ने कहा।
बस, तीनों बिना कुछ बोले वहाँ से भाग गये।
बाह्य रूप को देखकर मनुष्य कितना आकर्षित हो जाता है, भ्रम में पड़ जाता है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव देवसेना को हो गया।

उस समय, देवसेना का पिता वृद्ध विष्णुशर्मा बीमार था। तिसपर अपनी बेटी के विकृत रूप को देखकर उससे रहा नहीं गया।
कुछ ही दिनों में वह स्वर्गवासी हो गया। अब दुनिया में देवसेना का कोई नहीं रहा। मानसिक पीडा से परेशान वह एक दिन रात को घर से चली गयी। नगर के बाहर आम के बगीचे में बेहोश होकर गिर गयी।
थोड़ी देर बाद जब होश आया, तब उसने अपने को एक झोंपडी में पाया। आश्चर्य में डूबी उसने देखा कि एक किसान युवक बड़ी ही दया भरी दृष्टि से उसे एक टक निहार रहा है।
देवसेना कुछ कहने ही वाली थी, इसके पहले ही उस युवक ने कहा, ‘‘मेरा नाम मुकुंद है। सबेरे जब खेत जा रहा था, मैंने आपको एक वृक्ष के तले बेहोश पाया। बस, आपको अपने घर ले आया। क्या हुआ? बेहोश क्यों हो गयीं? आप कहाँ की रहनेवाली हैं?''
थोड़ी देर तक सकपकाने के बाद देवसेना ने कहा, ‘‘इस दुनिया में मेरा कोई नहीं। मैं बिलकुल अकेली हूँ। जीवन से घृणा होने लगी है। कहीं चले जाने का निर्णय लेकर निकल पड़ी। रास्ते में बेहोश होकर गिर गयी। अपने घर ले आने के लिए कृतज्ञ हूँ।''
‘‘आप अपने को अकेली कहती हैं। यह भी नहीं जानती कि आप को कहॉं जाना है। अच्छा यही होगा कि आप यहीं मेरे ही साथ रह जायें।''
‘‘क्या आप भी अकेले ही हैं? क्या आपका कोई नहीं?'' देवसेना ने पूछा।
‘‘हाँ, मेरा कोई नहीं। माँ-बाप चल बसे। दो एकड़ खेत है, उसी के आधार पर जी रहा हूँ। आप यहीं रह जाइये। साथ-साथ रह सकते हैं।'' मुकुंद ने कहा। देवसेना ने ‘हॉँ' कह दिया। फिर वह मुकुंद के साथ खेत जाने लगी और यथासंभव उसकी सहायता करने लगी।
यों एक महीना गुज़र गया। देवसेना को मुकुंद का स्वभाव, बहुत ही अच्छा लगा। वह उसके प्रति जो आदर-भाव दिखा रहा था, उससे वह बहुत संतुष्ट हुई। खूब सोच-विचारने के बाद वह एक निर्णय पर आयी। खेत के कामों को पूरा करने के बाद जब वे दोनों घर लौट रहे थे, तब उसने मुकुंद से कहा, ‘‘मुकुंद, इधर बहुत दिनों से हम एक साथ रह रहे हैं। मैं जानना चाहती हूँ कि मेरे बारे में तुम्हारी क्या राय है?''

मुकुंद ने तुरंत कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छा बोलती हो। अच्छाई तुम में भरी पड़ी है। काफी लोकज्ञान रखती हो। इससे बढ़कर एक स्त्री को और क्या चाहिये।''
देवसेना हँस पड़ी और बोली, ‘‘मैं क्या थी और क्या हूँ, तुम्हें बताना चाहती हूँ।'' फिर उसने अपनी पूरी कहानी सुनायी।
आश्चर्य में डूबे मुकुंद ने कहा, ‘‘तुमने सुखी जीवन बिताया। जान-बूझकर तुमने अपने आप को विकृत बना लिया और मेरे साथ मिलकर खेत का काम भी करने लगी हो।''
‘‘खेत का ही काम नहीं। तुम्हारी पत्नी बनकर जीना चाहती हूँ। मेरा रूप अब काला है। फिर से सुंदर दीखनेवाली मूलिका खा लूँगी।'' कहकर कंधे में लटक रही थैली में हाथ डालने ही वाली थी कि मुकुंद ने वह थैली छीन ली और उसे दूर फेंक दी। फिर कहा, ‘‘देवसेना, मुझे तुम्हारी सुंदरता नहीं चाहिये। तुम जैसी सद्गुण संपन्न धर्मपत्नी चाहिये।''
मुकुंद की बातें सुनकर देवसेना की आँखों में आँसू भर आये। दो हफ्तों के बाद उस गाँव के रामालय में उनकी शादी हुई। तब बचपन की सहेली सुभाषिणी भी उस विवाह में उपस्थित हुई। उसने देवसेना से कहा, ‘‘कुछ भी हो, तुमने अपनी इच्छा पूरी कर ली।'' और वधू-वर का अभिनंदन किया।
‘‘हाँ सुभाषिणी, मैं आज सचमुच ही बेहद खुश हूँ। मेरे बाह्य सौंदर्य को देखकर, मुझसे विवाह करने के लिए जो उतावले थे, उनसे मुकुंद कहीं महान है।''
देवसेना ने कहा, ‘‘इसके व्यक्तित्व की तुलना में वे कुछ भी नहीं हैं। मैं विकृत हूँ, फिर भी इसने हृदयपूर्वक मुझे चाहा, मुझसे प्रेम किया। सिर्फ मुझसे, मेरी आत्मा से; मेरे शरीर से नहीं, मेरी कला और कीर्ति से नहीं। मैं यही तो चाहती थी। यह लाखों में एक है। इससे विवाह करके मैं धन्य हो गयी। यह ग़रीब किसान है, पर सर्वगुण संपन्न है। इससे विवाह करना अपना सौभाग्य समझती हूँ।'' उस समय उसकी आँखों में आनंद ही आनंद था।

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