सैकड़ों साल बीत गये, एक व्यापारिक जहाज माल लेकर स्वदेश लौट रहा था। धीमी-धीमी हवा चल रही थी। वातावरण बड़ा ही प्रशांत था। अकस्मात हजारों छोटी नावों ने जहाज को घेर लिया। कप्तान और अधिकारी चकित रह गये। वे यह जानने की कोशिश में ही थे कि आख़िर हो क्या रहा है, नावों से आदमी त्वरित गति से जहाज में आ पहुँचे और जो-जो उनके हाथ में आया, उन्हें लेकर नावों में कूद पड़े और देखते-देखते आँखों से ओझल हो गये। व्यापारी बेतहाशा चिल्लाने लगे, ‘‘क्या हुआ, हुआ क्या है।'' उनकी समझ में नहीं आया कि अचानक यह क्या हो गया।
प्राचीन काल में कलिंग राज्य के नाम से प्रसिद्ध वर्तमान उडीसा प्रांत को ब्रिटिश वालों ने 17 वीं शताब्दी में अपना व्यापार केंद्र बनाया। परंतु, तटीय प्रांत के एक राजा को यह बिलकुल पसंद नहीं आया कि पराये उनके राज्य में घुसें और वहाँ की मूल्यवान वस्तुओं तथा निधियों को जबरदस्ती लेकर चले जायें। एक नहीं, दो नहीं, कई बार ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के व्यापारिक जहाजों को उस राजा के अनुचर नावों में आकर लूटकर चले गये। उनका यह काम अंग्रेज़ व्यापारियों को बहुत बुरा लगा और उन्हें अपनी असहायता पर क्रोध आने लगा। संप भारत देश के इस भू भाग में वे निष्कंटक व्यापार चला रहे थे और उन्होंने इसे अपना केंद्र बनाया था। लुटेरों का इस प्रकार अकस्मात् आना और लूटकर माल ले जाना उनसे सहा नहीं गया। उन्होंने निर्णय कर लिया कि किसी भी हालत में उस शासक को गिरफ्तार करना होगा, जिसके प्रोत्साहन से यह लूट हो रही है। किन्तु वे जान नहीं पाये कि आख़िर यह शासक है कौन? यह कहाँ रहता है?


राजा के मेज़बान पुरी के महाराजा अपने भवन के ऊपर से इस सनसनीखेज घटना को देख रहे थे। अद्भुत बल और पराक्रमशाली उस युवक को उन्होंने षांधा (सांड से अधिक बलवान) के खिताब से सत्कार किया। कुजांग राजा की कोई संतान नहीं थी। अपने प्राणों की रक्षा करनेवाले उस साहसी युवक को उन्होंने अपने पुत्र के रूप में स्वीकार किया और उसे अपने सिंहासन का वारिस बनाया। इस युवक से ही बृषभराजाओं के वंश का प्रारंभ हुआ।
बृषभ वंश के ही चंद्रध्वज को कोई हरा नहीं सका, इसीलिए उन्हें, ‘जंगली सांड' का खिताब मिला। चंद्रध्वज को ब्रिटिश अधिकारी पकड़ नहीं सके, इसलिए उन्होंने गुप्तचरों को यह जानने का काम सौंपा कि आख़िर यह है कौन और कहाँ रहता है? चंद्रध्वज केवल अद्भुत बलशाली ही नहीं थे, बल्कि अपार आध्यात्मिक चिंतक भी थे, साथ ही ध्यान के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के बाद जहाँ कहीं भी भले ही वे रहें, ध्यान मग्न हो जाते थे। अरण्य के बीचों बीच वे रहते थे और उनके विश्वासपात्र अनुचरों को ही यह रहस्य मालूम था। एक दिन प्रातःकाल के समय जब वे ध्यानमग्न थे, तब षड्यंत्र रचकर ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। शत्रुओं को यह कैसे मालूम हुआ कि वे इस प्रदेश में रहते हैं और हर प्रातःकाल वे ध्यानमग्न हो जाते हैं? धन के लोभ में आकर राजा के एक साथी ने ही यह विश्वासघात किया।
क़ैदी चंद्रध्वज राजा को मालूम था कि शत्रुओं से बचकर निकल पाना असाध्य कार्य है, फिर भी वे बिलकुल शांत दिखते थे। उस युवक राजा के उत्साह व मैत्री स्वभाव ने ब्रिटिश अधिकारियों के हृदयों को जीत लिया। वे उनसे बहुत ही प्रभावित हुए। हमारे देश के मल्ल युद्ध तथा अन्य युद्ध कलाएँ भी उन्होंने इन्हीं से सीखीं। क्रमशः वे उन्हें अपना शत्रु नहीं बल्कि मित्र मानने लगे। फिर भी, सदा वे उनपर कड़्री निगरानी रखते थे। यों एक साल गुज़र गया। ब्रिटिश जहाजों पर आक्रमण करने का सिलसिला भी टूट गया।
नाव जो व्यक्ति ले आया था, वह और कोई नहीं, राजा का विश्वासपात्र मंत्री पट्टा जोशी ही था। राजा को छुड़ाने के लिए उसने यह अद्भुत व्यूह रचा और विजयी भी हुआ।
साहसी व वीर इस कुजांग राजा के बारे में ‘‘ए स्केच आफ हिस्टरी आफ ओडिसा'' नामक ग्रंथ में ब्रिटिश इतिहासकार जि.टाइनबी ने यों लिखा, ‘‘इस परगणे के तीन प्रधान नगर जब ब्रिटिश के अधीन आ गये, तब प्रथम योजना के अनुसार कुछ सैनिक मेजर फोर्स के नेतृत्व में बार्मूल घाटी भेजे गये। कर्नल हारकोर्ड के नेतृत्व में थोड़ी और सेना कुजांग पर आक्रमण करने निकली। इसके पहले ही ब्रिटिश अधिकारियों को इस रहस्य का भी पता चला कि इस प्रांत का राजा, ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ अपनी रक्षा के लिए और शत्रुओं को चोट पहुँचाने के लिए खुर्दा, कनिक राजाओं से पत्र-व्यवहार कर रहे हैं।''
इतिहासकार आगे कहते हैं, ‘‘कुजांग राजा भाग गया। पर जल्दी ही वह पकड़्रा गया और उसे कटक किले में बंद रखा गया। उसके क़िले का ध्वंस कर दिया गया। वहाँ एक तोप दिखायी पड़ी, जिसे कटक भेजा गया। उस पर ईस्ट इंडिया कंपनी की मोहर के पीतल की दो नयी बंदूकें दिखायी पड़ीं। मालूम नहीं कि ये राजा को कैसे मिलीं। जहाज के डूब जाने पर या समुद्री डाकुओं के द्वारा उन्हें ये प्राप्त हुई होंगी।''
राजा महानदी तट पर के ऐतिहासिक नगर कटक के करावती किले में बंदी बनाकर रखे गये। नौ मंजिलों का यह भवन 14 वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था। उसका मुखद्वार बहुत ही विशाल था। उसके चारों ओर बीस गजों की खाई थी। ‘ईस्ट इंडिया कंपनी ने बहुत हद तक इसे नष्ट कर दिया और इसे अपनी राजधानी बनाया।

एक दिन शाम को ब्रिटिश अधिकारियों ने एक अद्भुत दृश्य देखा। मोर के आकार की एक बड़ी नाव नदी के तट की ओर आने लगी। रंगों से अलंकृत वह नाव हंस की तरह तैरती हुई निकट आ रही थी। संध्याकाल की कांति में वह अत्यंत मनोहर लगने लगी। ब्रिटिश अधिकारियों को अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। नाव चलानेवाले चौबीस नाविकों के बीच एक आदमी शान से खड़्रा था। अधिकारियों ने उससे पूछा, ‘‘क्या यह नाव तुम्हारी है?''
‘‘नहीं। यह सुंदर नाव एक राजवंश की है। दुर्भाग्यवश वह राज परिवार आर्थिक समस्याओं में फंस गया है। इसे बेचने के लिए मेरे सुपुर्द किया गया है'', उस व्यक्ति ने गंभीर स्वर में कहा।
‘‘इसका क्या दाम है?'' अधिकारी ने आतुरता भरे स्वर में पूछा।
उस आदमी के बताये दाम जानकर वे हक्के-बक्के रह गये। उनके आश्चर्य को देखते हुए उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘दोस्तो, ऐसी नाव का उपयोग राजा और रानियाँ ही करते हैं। ऐसा व्यक्ति आप में से कोई हो तो उसे दिखाइये। उनके कहे मूल्य पर यह नाव दे दूँगा।''
यह प्रस्ताव अधिकारियों को सही लगा। किन्तु ऐसे व्यक्ति को वे कहाँ से लायें? उन्हें अचानक सूझा कि चंद्रध्वज राजा इसका सही मूल्य आंक सकते हैं। राजा तुरंत वहाँ लाये गये। राजा ने नदी तट से नाव को और नमस्कार करनेवाले व्यक्ति को ग़ौर से देखा। उनके ओठों पर फैली मुस्कान उस व्यक्ति मात्र ने देखी।
राजा उस नाव को देखते रहे, उस व्यक्ति से तरह-तरह के सवाल करते गये और धीरे-धीरे उसके निकट आये। ब्रिटिश अधिकारियों को विश्वास था कि राजा सही मूल्य को निर्धारित करने में सक्षम हैं। तब तक सूर्यास्त हो चुका था। राजा ने उस व्यक्ति से बातें करते हुए, नाव के अंदर प्रवेश किया, मानों वे नाव को ध्यान से देख रहे हों। देखते-देखते चौबीसों नाविक डांडों को हाथों में लेकर नाव तेज़ी से चलाने लगे। नदी के तट पर खड़े अधिकारी जानें कि क्या हो रहा है इतने में नाव दूसरी दिशा में मुड़ी और देखते-देखते आँखों से ओझल हो गयी।

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