बिहार के एक छोटे से राज्य जगदीशपुर का राजा कुँवर सिंह यद्यपि अस्सी साल का बूढ़ा था, परन्तु उसकी रगों में नौजवान का गर्म लहू बहता था। उसकी जवानी की कहानी लोक जीवन के गीतों में बच्चे-बूढ़े सभी गुनगुनाते रहते थेः ‘‘दाढ़ी सफेद झुर्रियों से भरा, बूढ़ा है जरूर बाहरी आन-बान; पर दिल और दिमाग में कुँवर से बढ़कर कौन नौजवान?'' उसके बुढ़ापे में भी जवानों की दिलेरी और हौसला देखकर कोई आश्चर्य नहीं कि उसे बूढ़ा शेर कहा जाता था। यह कहावत और भी स्पष्ट तब हो गई जब अंग्रेजों को उसके छोटे से राज्य को जीतने में कितनी बार मुँहकी खानी पड़ी। वह प्रथम स्वतंत्रता संग्रम के लिए हो रही लड़ाई का 1857 का वर्ष था। अनेक अपमानजनक पराजयों के बाद दीर्घ प्रयत्नों के उपरांत ब्रिटिश शासक उसके राज्य पर आक्रमण तो कर पाये, पर बूढ़े शेर को पकड़ने में सफल न हो सके।
जब कुँवर सिंह ने देखा कि अंग्रेजों की सेना का मुकाबला नहीं कर सकते तो वह चन्द बहादुर सिपाहियों को लेकर जंगलों में छिप गया और न सिर्फ जगदीशपुर बल्कि पूरे देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से टक्कर लेने का मौका देखने लगा। स्थानीय पूर्व गाथाएँ बताती हैं कि बिहार के जगदीशपुर का शासक कुँवर सिंह कभी उज्जैन के शासक विक्रमादित्य का वंशज था । अरण्य उसके बहुत ही प्रिय स्थान थे। बाल्यकाल में अपने मित्रों के साथ वह वहाँ आँख मिचौनी खेलता रहता था। यौवन में प्रवेश करने के बाद उसने जंगलों में ही गोरिल्ला युद्ध की पद्धतियों का अभ्यास किया। वह अपने साथियों को दो समूहों में बॉंट देता था। और एक समूह अचानक दूसरे समूह पर टूट पड़ता था। यह विद्या उत्तरोत्तर शत्रुओं को हराने में ब़ड़ी ही सहायक सिद्ध हुई।


उसे जानकारी मिली कि लखनऊ पर विजय प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सैनिक अवध जा रहे हैं। अपने अनुचरों को लेकर और कुछ क्रांतिकारी शक्तियों का समीकरण करके, उसने ब्रिटिश सेना को अजिमगढ़ दुर्ग से बाहर न आने देने का प्रयत्न किया। उसकी व्यूह-रचना और गोरिल्ला पद्धति अनोखी थी। अक्सर ब्रिटिश सेना को अप्रत्याशित अचरज का सामना करना पड़ता था और उसकी चाल समझ में नहीं आता था। कुंवर सिंह के साथ लड़ाई में अनेक अंग्रेज सिपाहियों को भागकर अपने शिविरों में शरण लेनी पड़ी। खुद अंग्रेज कमाण्डर अजिमगढ़ के दुर्ग में छिप गया। पर ब्रिटिश सेना कुँवर सिंह को जगीदशपुर वापस जाने से रोकने के लिए कृत संकल्प थी। इण्डियन म्यूटिनी के लेखक कर्नल सी.बी.मेलसन के अनुसार गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग इस बात से आतंकित थे कि शेर ने अपना जबड़ा बहुत फैला लिया है। कई अवसरों पर बिहार के न केवल पूर्वी और पश्चिमी बल्कि औपनिवेशिक राजधानी कलकत्ता तक को बूढ़े शेर ने हिला दिया। लॉर्ड कैनिंग ने भारतीय सेना के विशेषज्ञ लॉर्ड मार्क केर को तुरन्त अजिमगढ़ मार्च करने तथा अपराजेय बूढ़े शेर को पिंजड़े में बन्द करने का हुक्म दिया। तुरन्त हथियारों से लैस अंग्रेजों की भारी सेना अजिमगढ़ की सीमा पर पहुँच गई और इनकी बन्दूकें और तोप आग उगलने लगे। इस संघर्ष के बीच सबने देखा कि वृद्ध राजा कुँवर सिंह अपने प्रिय सफेद घोड़े पर सवार हाथ में चमकती तलवार लेकर बिजली की गति से शत्रु सेना को गाजर-मूली की तरह काट रहा है और अनुकरणीय दक्षता के साथ अपने सिपाहियों को निर्देश भी दे रहा है। श्रेष्ठ सेना के बावजूद शत्रु सेना घबरा गई और मार्क केर अपने सिपाहियों के साथ रणभूमि से भागने को मजबूर हो गया। उन्होंने मुख्यालय को सूचित किया कि उनकी मदद के लिए भारी हथियारों के साथ और सेना भेजी जाये। जनरल लुगार्ड के नेतृत्व में एक और सेना टुकड़ी अजिमगढ़ की ओर बढ़ने लगी।

आवश्यक नावें भी नहीं थीं, इसलिए राजा ने अफ़वाह फैलायी कि राजा और उसके अनुचर बालिला के समीप हाथियों पर चढ़कर गंगा को पार कर रहे हैं। उन्होंने जैसा अनुमान लगाया था, वैसे ही यह अफ़वाह ब्रिटिश सेनाधिपति के कानों में पड़ी। वह इस बात पर बेहद खुश हो गया कि विद्रोही नेता को हाथियों सहित गंगा में डुबोने का अच्छा अवसर हाथ में आया। जल्दी-जल्दी वह सैनिकों सहित बालिला तट के पास गया और झाड़ियों के पीछे छिपकर राजा के आने का बैचैनी से इंतज़ार करने लगा। किन्तु लंबी प्रतीक्षा के बाद भी न ही राजा आया या न ही उसके सैनिक। उन्हें फिर यह समाचार मिला कि उस प्रदेश से सात मील दूर शिवपुर घाट के पास वे नावों में बैठकर नदी पार कर रहे हैं। ब्रिटिश सैनिक तुरंत वहाँ भी पहुँच गये। तब तक राजा की सेना उस पार जा चुकी थी। अंत में उन्हें राजा की वह नाव दिखायी पड़ी, जो बीच नदी में थी और उस पार पहुँचने के लिए तीव्र गति से जा रही थी। शत्रुओं ने गोलियाँ चलायीं तो वह कारतूस राजा के एक हाथ में जा लगा। उस हाथ से रक्त लगातार बहने लगा। राजा ने दूसरे हाथ से तलवार उठाकर कहा, ‘‘गंगामाता, अपने लाड़ले पुत्र की इस अंतिम भेंट को स्वीकार करना।'' यह कहते हुए उसने उस हाथ को काट डाला और गंगा जल में छोड़ दिया।
शत्रु सेनाओं की आँखों से अपने को बचाते हुए वह जगदीशपुर पहुँचा और दुराक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए एक योजना बनायी। इसके लिए आवश्यक साहसी सैनिकों को उसने सावधानी से चुना और उन्हें सूचित किया कि वे मार्गमध्य के तानु नदी के पुल की रक्षा करें। अजिमगढ़ दुर्ग में बंदी ब्रिटिश सैनिकों को छुड़ाने के लिए जनरल लुगार्ड के नेतृत्व में लड़नेवाली सेना को उस पुल को पार करना था। जनरल लुगार्ड ने सोचा कि कुँवर सिंह की सेना उसकी सेना को नगर में प्रवेश करने मात्र से रोकने के लिए इसे रोक रही है। और इसी के लिए वह प्रयत्नशील है। वह भांप नहीं पाया कि इसके पीछे एक अलग योजना है।
जनरल लुगार्ड और उसकी सेना ने अनेक प्रयत्न किये, पर पदच्युत राजा की थोड़ी सेना को हराकर वे आगे बढ़ नहीं पाये। पर, अकस्मात् योजना के अनुसार राजा की सेना वहाँ से हट गयी और पुल के उस पार चली गयी। वहाँ एक भी सैनिक को न पाकर वे आश्चर्य में डूब गये। कुछ सैनिक जब पुल पर उन्हें रोक रहे थे तब उन्हें जानकारी मिली कि वृद्ध राजा और उसके सैनिक शत्रुओं की आँखों से बचकर गाजी पुर मार्ग से होते हुए गंगा नदी के तट पर पहुँचनेवाले हैं। तुरंत ब्रिगेडियर डगलस के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना उनकी ओर बढ़ी। मार्ग मध्य में कुछ जगहों पर कुँवर सिंह के अनुचरों के गोरिल्ला हमलों का सामना उन्हें करना पड़ा। फिर भी, जल्दी-जल्दी जाकर एक गाँव में ठहरी राजा की सेना को घेर लिया।
निर्विराम यात्रा के कारण वृद्ध राजा कुँवर सिंह थक गया, इसलिए वह उस ब्रिटिश सेना का सामना नहीं कर पाया, जिसने उसे और उसके सैनिकों को हाथियों और भयंकर हथियारों के साथ घेर लिया था। जब स्थिति गंभीर हो गयी और लगा कि अब पराजय निश्चित है, तब वह अपने सहज व्यूहों को अमल में ले आया। सैनिक अनेक जत्थों में बंट गये और उन्हें हुक्म दिया गया कि वे एक निर्दिष्ट प्रदेश में निर्दिष्ट समय पर इकठ्ठे हो जाएँ।
इतने में जो सोचा, वही हुआ। राजा की सेना गंगा तट के समीप आयी। उन्होंने अनुमान किया कि ब्रिटिश सेना के वहाँ पहुँचने में अधिक समय नहीं लगेगा। कुँवर सिंह की समझ में आ गया कि इतनी छोटी सेना को लेकर, उतनी बड़ी सेना का सामना करना असंभव है और यह विवेक संगत भी नहीं।


इसके बाद वह नदी के उस पार गया और आठ महीने पहले छोड़ी अपनी राजधानी पहुँचकर शासन की बागड़ोर संभाली। यह ख़बर आरा में ठहरे ब्रिटिश सेना के नायक जनरल ल गै्रण्ड को बहुत ही बुरी लगी। उसकी समझ में नहीं आया कि बलवान ब्रिटिश सैनिकों से बचकर यह वृद्ध राजा कैसे बच पाया और सिंहासन पर कैसे आसीन हो गया। उसके आश्चर्य की सीमा न रही। वह फिर से अपनी सेना को जगदीशपुर ले गया। पर अजेय घायल वृद्ध राजा ने डटकर शत्रुसेना का सामना किया और उनका नाश कर डाला। सन् 1858 अप्रैल महीने तक पुनः राज्य का शासन पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया। कुछ दिनों के बाद, काटे गये हाथ के घाव के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।
इसके बाद उसका छोटा भाई राजा अमर सिंह राजा बनाजो धैर्य-साहस में, देशभक्ति में वह अपने बड़े भाई से कम नहीं था। वह तब तक ब्रिटिश सेना से लड़ता ही रहा, जब तक उसके दुर्ग का पतन नहीं हो गया। अंत में वह दुर्ग से बच निकला। फिर इसके बाद क्या हुआ, यह किसी को नहीं मालूम है।
No comments:
Post a Comment