विष्णु, शांता का इकलौता बेटा था। पिता जिस व्यापार को छोड़कर स्वर्गवासी हो गये थे वह उसे बड़ी ही जिम्मेदारी तथा सतर्कता के साथ संभाल रहा था। शांता अपने बेटे को बहुत चाहती थी । एक दिन खाना परोसते हुए उसने बेटे विष्णु से कहा, ‘‘इस दशहरे पर तुम्हारे पिताजी के जिगरी दोस्त रामावतार अपनी बेटी को लेकर यहॉं आनेवाले हैं।’’
‘‘रामावतार ! लगता है, मैंने इनका नाम इसके पहले कभी नहीं सुना।’’ आश्चर्य प्रकट करते हुए विष्णु ने कहा। ‘‘हॉं’’ के भाव में सिर हिलाती हुई शांता ने कहा, ‘‘तुम्हारे जन्म के पहले हम दोनों एक ही घर में रहते थे। अलग होते हुए भी एक परिवार जैसा व्यवहार हम दोनों के बीच था। मेरे लिए वे भाई जैसे थे तो मैं उनके लिए बहन जैसी थी। तुम्हारे पिताजी और उनकी दोस्ती घनी थी। लोग उनकी घनी दोस्ती की वाहवाही करते हुए थकते नहीं थे । फिर कुछ सालों के बाद रामावतार व्यापार करने बहुत दूर चले गये। व्यापार में व्यस्त हो जाने के कारण यहॉं आना उनके लिए संभव नहीं हो पाया। अब हमसे मिलने के लिए वे लालायित हैं। उनके यहॉं आने के पीछे एक और कारण भी है। वे अपनी बेटी की शादी यहीं किसी अच्छे घराने में कराने की प्रबल इच्छा रखते हैं। इसीलिए उन्होंने यहॉं आने की ख़बर भिजवायी।’’
फिर दो-तीन क्षणों तक वह सोच में पड़ गयी और फिर बोली, ‘‘उन्हें मालूम भी हो गया होगा कि तुम अच्छी तरह से व्यापार संभाल रहे हो, योग्य हो। शायद वे अपनी बेटी की शादी तुमसे करना चाहते होंगे। उनके यहॉं आने के पीछे यह भी एक कारण हो सकता है।’’ विष्णु ने मॉं के बोलने की पद्धति पर आश्चर्य करते हुए कहा, ‘‘तो क्या हुआ? आने दो।’’ ‘‘इस बात की मुझे बड़ी खुशी है कि वे लंबे समय के बाद हमें देखने यहॉं आ रहे हैं। परंतु सुनने में आया है कि रामावतार की पत्नी झगड़ालू और कंजूस है।
कहीं बेटी भी ऐसे ही स्वभाव की हो तो ! पड़ोसिन रुक्मिणी कह रही थी कि सीतापति अपनी बेटी जलजा का विवाह तुमसे करना चाहते हैं। इसलिए रामावतार इस विषय को लेकर तुमसे कोई बात करें तो उनसे कहना कि वे मुझसे बात करें। मुझसे पूछे बिना कोई निर्णय मत लेना।’’ त्योहार आ ही गया। रामावतार अपनी बेटी पद्मा को लेकर आ गये। शांता और विष्णु ने बड़े ही प्यार से उनका स्वागत किया। पद्मा की सुंदता ने शांता को मोह लिया। उसके स्वभाव पर भी वह रीझ गयी। रात को जब विष्णु घर आया, तब उसने उससे कहा, ‘‘बेटे, देखा, लड़की कितनी सुंदर है! स्वभाव से भी बड़ी अच्छी लगती है। बहू हो तो ऐसी हो। दो-तीन दिनों के बाद रामावतार कुछ कहे या न कहे, मैं ही इस रिश्ते का प्रस्ताव रखूँगी।’’
‘‘मॉं, बिना जाने कि उनकी क्या राय है, जल्दबाजी करना अच्छा नहीं है।’’ विष्णु ने यों मॉं को सावधान किया। दो दिनों के बाद शांता ने विष्णु से एकांत में कहा, ‘‘पद्मा मुझे बहुत अच्छी लगी। घर के काम-काजों में भी काफ़ी दिलचस्पी लेती है। मेरी समझ में नहीं आता कि रामावतार शादी को लेकर कोई भी बात क्यों नहीं कर रहे हैं। मैं ही उनके सामने यह प्रस्ताव रखना चाहती हूँ। कहो, तुम्हारी क्या राय है?’’ विष्णु ने ज़रा चिढ़ते हुए कहा, ‘‘वे लोग ह़फ़्ते भर यहीं रहनेवाले हैं। थोड़ी-सी सहनशक्ति से काम लो। तुम इस प्रकार जल्दबाजी करोगी तो उनकी नज़र में हमारी कोई इज्ज़त रह नहीं जायेगी।’’
शांता बिना कुछ बोले वहॉं से चली गयी। विष्णु भी जब वहॉं से जाने लगा तब पीछे से आवाज़ आयी। ‘‘विष्णु!’’ उस आवाज़ में मिठास भरी हुई थी।
विष्णु ने देखा कि पद्मा उसी की तरफ बढ़ी चली आ रही है । ‘‘तुमने अभी सासू से जो बातें कीं, मैंने सुन लीं।’’ विष्णु ने सकपकाते हुए कहा, ‘‘मॉं, हर बात में जल्दबाज़ी दिखाती है। इसलिए...’’ यों कहते हुए वह रुक गया।
पद्मा ने मंद मुस्कान भरते हुए कहा, ‘‘सासू के मन के सभी विचारोें को मैंने भांप लिया है। उन्हें भय है कि पता नहीं, कैसी बहू घर में क़दम रखेगी; इस वृद्धावस्था में उनकी ठीक तरह से देखभाल करेगी या नहीं। ऐसी स्थिति में उनका यह चाहना सही है कि शांत स्वभाव की कोई कन्या दिखायी पड़े तो यथाशीघ्र उसे अपनी बहू बनाने का निर्णय ले लेना चाहिये। और यह कोई जल्दबाजी नहीं कहलाती। आख़िर तुम इकलौते बेटे जो ठहरे।’’
विष्णु ने ‘हॉं’ के भाव में सिर हिलाया।
पद्मा फिर से कहने लगी, ‘‘मानव की मनोवृत्ति को सही तरह से समझने पर उसके व्यवहार के अच्छे और बुरे पक्षोें को भी जान पायेंगे। अन्यथा टूटे शीशे के प्रतिबिंबों की ही तरह टेढ़े-मेढ़े और अटपटेदिखने लगेंगे। मेरे पिताजी ने व्यापार में पर्याप्त सफलता प्राप्त की और कमाई का दुरुपयोग भी नहीं किया। मेरी मॉं तुनकमिजाज है, इसलिए लोग उसे कंजूस और झगड़ालू कहते हैं। यहॉं आने के बाद ही मेरे पिताजी को मालूम हो पाया कि मेरी मॉं के बारे में लोगों की, ख़ासकर हमारे रिश्तेदारों की क्या राय है। इस हालत में हमारे विवाह को लेकर सासजी से बात करने से वे सकुचा रहे हैं। अगर सासजी ही यह प्रस्ताव पेश करतीं तो हमारी दृष्टि में उनके प्रति आदर और बढ़ता।’’ यह कहते हुए उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये । उसने तुरंत अपना सर झुका लिया।
विष्णु ने एक क़दम आगे बढ़कर उसका हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, ‘‘जल्दबाज़ी मॉं की नहीं, मेरी है। आगे-पीछे सोचे बिना मैं बक गया। मुझे माफ़ करना। पर अब तो लगता है कि जल्दबाज़ी करनी ही होगी।’’ पद्मा ने चकित होकर पूछा, ‘‘जल्दबाज़ी किस बात में?’’ ‘‘हमारे विवाह कोे लेकर। जिस लड़की ने मेरी मॉं को और मुझे इतना आकर्षित किया है, उससे विवाह रचाने के विषय में जल्दबाज़ी करनी ही होगी न!’’ विष्णु ने हँसते हुए कहा। वहॉं से जाती हुई पद्मा ने सिर झुका लिया।
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