
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे पर डाल लिया। फिर श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘आधी रात के समय निडर होकर जाते हुए तुम्हें देखकर लगता है कि तुम किसी साधारण लक्ष्य को साधने के लिए यह कठोर परिश्रम नहीं कर रहे हो बल्कि एक अति अद्भुत रहस्य का पता लगाकर किसी लोकोत्तर रहस्य को जानने के लिए कटिबद्ध हो और यह तुम्हारा संकल्प है। कुछ लोग, कभी-कभी असाधारण अद्भुतों के प्रति उदासीन रहते हैं और साधारण विषयों को महोत सत्य मानकर उनकी प्रशंसा में लगे रहते हैं। विदर्भ-राजा यशोधर वर्मा ने ऐसी ही भूल की। उसकी कहानी तुम्हारे लिए उपयोग में आ सकती है, इसलिए ध्यान से सुनो। फिर वेताल यों वह कहानी सुनाने लगा:
विदर्भ राजा यशोधर वर्मा आदर्श शासक माने जाते थे। बचपन से ही वे विनोद प्रेमी थे। चूँकि राज्य शत्रुओं के आक्रमण तथा अकाल व दुर्भिक्ष के भय से मुक्त था, इसलिए राजा की दृष्टि विनोद के प्रति केंद्रीभूत हुई। इस वजह से उन्होंने शासन का भार समर्थ मंत्रियों को सौंपा और वे विनोद भरे कार्यक्रमों में समय बिताने लगे। मंत्रीगण समय-समय पर उनसे मिला करते थे और भरोसा दिलाते रहते थे कि राज्य की परिस्थिति बिल्कुल ही ठीक-ठाक है और उन्हें चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं। राजा उनकी बातों का विश्वास करके उनका अभिनंदन करके उन्हें भेज देते थे।

राजा यशोधर वर्मा एक दिन महाभारत के राजसूय याग की विचित्रताओं से भरे मयसभा के बारे में सुन रहे थे। दुर्योधन का मयसभा में प्रवेश करना और वहाँ तरह-तरह की दिक्कतों में फंस जाना उन्हें बड़ा ही रुचिकर लगा। इन घटनाओं के बारे में जानने के बाद उनमें एक विचित्र विचार जगा। उन्होंने तुरंत मंत्रियों को बुलवाया और उनसे कहा कि अगली पूर्णिमा को वे सब दरबार में हाज़िर हों। उन्होंने यह भी ऐलान किया कि प्रजा भी इस समय उपस्थित हो सकती है और सबूत सहित अविश्वसनीय सच्चाइयाँ बता सकती है। जो भी इस कार्य में सफल होगा, उसे मूल्यवान भेंटें दी जायेंगी और उनका पूरी तरह आदर-सत्कार किया जायेगा।
राजा की अनुमति लेकर पूरे राज्य में तत्संबंधी घोषणा की गयी। पूर्णिमा के दिन राजा सिंहासन पर आसीन हुए। अविश्वसनीय सच्चाइयों को सुनने नगर के कितने ही प्रमुख लोग भी पधारे। तब यशोधर वर्मा ने कहा, ‘‘आपमें से जो अविश्वसनीय सच्चाइयों को सबूत सहित साबित करेंगे, उन्हें मूल्यवान भेंटें दी जायेंगी।''
गोपी नामक एक किसान ने राजा को नमस्कार किया और काठ की एक पेटी को दिखाते हुए कहा, ‘‘महाराज, कुछ साल पहले जब मैं खेत जोत रहा था तब यह छोटी-सी संदूकची मुझे मिली। बड़ी आशा लेकर मैंने इसे खोला। इसमें छोटा-सा एक काला पत्थर था। जैसे ही मैंने संदूकची खोली, दिन में ही अंधेरा छा गया।
दिन रात लगने लगा। इसे देखते ही मैं बहुत घबरा गया और संदूकची बंद कर दी। बस, अंधेरा गायब हो गया और प्रकाश छा गया। तब मुझे लगा कि इस संदूकची में जो पत्थर है, वह अंधेरा का पत्थर है और वह हमेशा अंधेरे को ही फैलाता है। यह वही संदूकची है।''

गोपी से वह संदूकची लेकर राजा ने उसे खोला। दूसरे ही क्षण पूरी सभा अंधेरे में डूब गयी। सैनिकों को मशालों को जलाना पड़ा। राजा ने संदूकची बंद की तो अंधेरा गायब हो गया और रोशनी फैल गयी। ‘‘वाह, यह अंधेरे का पत्थर अविश्वसनीय सत्य है।'' बाद यशोधर वर्मा ने गोपी को मूल्यवान भेंटें दीं।
इसके बाद रत्नाकर नामक एक व्यापारी उठ खड़ा हो गया और राजा को झुककर प्रणाम करते हुए बोला, ‘‘प्रभु, एक चांदनी रात को, जब मैं अपने घर के पिछवाड़े में घूम रहा था, तब मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा। देखा कि पंखवाले एक घोड़े पर एक दिव्य पुरुष और स्त्री सवार हैं। वे बड़ी ही तेज़ी से जा रहे थे, तब एक पुष्प फिसलकर मेरे बग़ीचे में गिरा। दूसरे ही क्षण एक प्रकार का दिव्य परिमल बग़ीचे भर में फैल गया। आनंद और आश्चर्य से मैंने उसे अपने पूजा मंदिर में सुरक्षित रखा। बाद मुझे मालूम हो गया कि यह पुष्प कभी भी नहीं मुरझाता और उसका परिमल भी कभी नहीं घटता।'' कहते हुए उसने दंत की भरनी राजा को दी।
राजा ने भरनी खोलकर देखी। उसमें एक पुष्प था, जो अभी-अभी विकसित पुष्प लग रहा था। उसका दिव्य परिमल सभा भर में व्याप्त हो गया।
‘‘ऐसे दिव्य पुष्पों के बारे में मैंने कहानियों में ही पढ़ा, कभी देखा नहीं। यह भी एक अविश्वसनीय सत्य है'', कहते हुए राजा ने रत्नाकर को मोती का हार भेंट में दिया।
इसके बाद महायज्ञ नामक एक पंडित खड़ा हो गया और कहा, ‘‘प्रभु, मेरे पास एक प्राचीन सिक्का है। उसका स्पर्श करने मात्र से पुरानी बातें याद आ जाती है'', कहते हुए उसने वह सिक्का राजा को दिया।
राजा ने जैसे ही उस प्राचीन सिक्के का स्पर्श किया, सारी पुरानी बातें एकसाथ याद आ गयीं। राजा ने प्रस होकर पंडित महायज्ञ को सोने की अनेक अशर्फियाँ दीं।
थोड़ी देर तक सभा में चुप्पी छा गयी। तब शिवदत्त नामक एक युवक ने उठकर कहा, ‘‘महाराज, मैंने सभा में सिंहद्वार से होते हुए प्रवेश नहीं किया। क्या आप बता सकते हैं, मैंने यहाँ कैसे प्रवेश किया?''

‘‘कैसे आये? कुतूहल भरे स्वर में राजा ने पूछा।
‘‘रिश्वत द्वार से आया हूँ'', शिवदत्त ने मुस्कुराते हुए कहा। ‘‘रिश्वत द्वार से? वह कहाँ है?'' राजा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा।
‘‘महाराज, अविश्वसनीय सत्य बताकर आपसे भेंटें प्राप्त करने कुछ लोग इस सभा में आये। उन सबसे आपके पहरेदारों ने दस अशर्फियों के हिसाब से हर एक से रिश्वत ली और अंदर जाने दिया। मैं भी ऐसे ही आया। इसलिए मैंने समझा कि वह सिंहद्वार नहीं, रिश्वत द्वार है,'' शिवदत्त ने कहा।
‘‘पहरेदार रिश्वत लेते हैं? मैं विश्वास नहीं करता'', राजा ने दृढ़्र स्वर में कहा।
‘‘आप विश्वास नहीं करते, इसलिए वह अविश्वसनीय सच हो गया महाराज। यही एक द्वार नहीं, हमारे राज्य में कितने ही और रिश्वत द्वार भी हैं। विश्वास करके जिन्हें आपने शासन की जिम्मेदारियाँ सौंपीं, वे स्वार्थ पूरित होकर करों के रूप में प्रजा को लूट रहे हैं। राजकर्मचारी घूसखोर बन गये हैं। इन अविश्वसनीय सच्चाइयों को आपको बताने के लिए ही रिश्वत देकर अंदर आया हूँ, भेंटें प्राप्त करने नहीं।'' शिवदत्त ने गंभीर स्वर में कहा।
यह सुनकर राजा चौंक उठे। क्षण भर में उन्होंने अपने को संभाल लिया और उन तीनों आदमियों की ओर देखा, जिन्होंने भेंटें प्राप्त कीं। उन सबने इस अर्थ में सिर हिलाया कि शिवदत्त ने सच ही बताया। राजा ने मंत्रियों और राज कर्मचारियों की ओर देखा। उन सबने शर्म के मारे सिर झुका लिया। मौन रहकर ही उन्होंने अपने अपराधों को स्वीकार किया।
सिंहासन से उतरकर राजा सीधे शिवदत्त के पास आये और कहा, ‘‘तुमने जो बताया, वह सब से बड़्रा अविश्वसनीय सत्य है। तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो मैं तुम्हें अपने सलाहकार के पद पर नियुक्त करता हूँ'', कहते हुए उन्होंने अपने कंठ से मणिहार निकालकर उसे दिया।

वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद राजा से कहा, ‘‘राजा ने घोषणा की कि अविश्वसनीय सच्चाइयाँ सबूत सहित जो बतायेंगे, उन्हें भेंटें प्रदान करूँगा और उनका सत्कार करूँगा। अद्भुत अंधेरे के पत्थर को, दिव्य पुष्प को, स्मृति सिक्के को जो-जो लाया, उसे राजा ने भेंटें दीं पर उन सबको महत्व न देते हुए वास्तविकता को उनकी दृष्टि में लानेवाले शिवदत्त की उन्होंने प्रशंसा की। इसका क्या अर्थ है? उसने जो वास्तविकताएँ बतायीं, वे अविश्वसनीय कैसे हो सकती हैं? उनमें अविश्वसनीयता है ही क्या? मेरे संदेहों के उत्तर जानते हुए भी मौन ही रहोगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘उन तीनों ने जो वस्तुएँ दिखायीं, वे सचमुच ही अद्भुत हैं। परंतु शिवदत्त की बतायी वास्तविकता ही सच्चे अर्थ में बड़ा अविश्वसनीय सच है, क्योंकि राजा ने जिन मंत्रियों को विश्वासपात्र माना, वे स्वार्थी और घूसखोर निकले। राजा ने सोचा कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, पर यह असत्य निकला। यह सत्य जानकर राजा चकित रह गये। उनके हृदय को बड़ा धक्का लगा। राजा के लिए वे बातें उतनी ही अविश्वसनीय थीं जितनी अन्य अनोखी वस्तुएं, क्योंकि उन्हें अपने कर्मचारियों की सच्चाई पर पूरा विश्वास था। जिनका विश्वास नहीं करना चाहिये, उनका विश्वास करने से कितने ही अनर्थ घटते हैं। शासक इस प्रकार से आँखें मूंदकर विश्वास करेंगे तो जनता का अहित होगा। अविश्वसनीय समाचारों के नाम पर जिस शिवदत्त ने वास्तविक परिस्थितियों को विशदपूर्वक बताया, वह ईमानदार है, साहसी है। इन सबसे भी बढ़कर वह प्रजा क्षेम को चाहनेवाला उत्तम नागरिक है। इसी वजह से उसने राज्य में हो रहे अन्यायों को बड़ी ही अ़क्लमंदी से राजा को बताकर उनकी आँखें खोल दीं। इसीलिए राजा ने उसे अपने कंठहार ही पुरस्कार के रूप में नहीं दिया बल्कि उसे अपना सलाहकार भी बनाया।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल फिर से शव सहित गायब हो गया और पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः एस. शिवनागेश्वर की रचना)

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