
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर ड़ाल लिया और श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के बेताल ने कहा, ‘‘राजन्, इस भयंकर श्मशान में निधड़क घूम-फिर रहे हो पर मैं यह नहीं जानता कि तुम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ऐसा कर रहे हो या निस्वार्थ लक्ष्य को साधने के लिए इतना परिश्रम कर रहे हो। पर, लोक व्यवहार शैली को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि स्वार्थ को केंद्र बिंदु बनाकर प्रायः मानव व्यवहार करते हैं, उसी की पूर्ति के लिए अपना पूरा बल लगाते हैं। निस्वार्थता, परमार्थता, परोपकार आदि केवल बहाने मात्र हैं। वे मासूम मनुष्यों को जाल में फंसाने के लिए ही हैं। धोखेबाज़ अपने स्वार्थ के लिए इन्हें उपयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए सजीव नामक वैद्य की कहानी सुनाऊँगा। ध्यान से सुनो और अपने लक्ष्य का निर्णय कर लो। फिर वेताल सजीव की कहानी यों सुनाने लगाः
रसपुर विरूपदेश का एक छोटा शहर था। वहाँ के व्यापारी रत्नाकर के तीन बेटे थे। बड़े दोनों बेटों की शादी हो गयी और वे व्यापार में पिता को सहायता पहुँचाने लगे । यद्यपि तीसरा बेटा बीस साल की उम्र का हो गया, पर व्यापार में उसे कोई रुचि नहींथी । उल्टे जो भी उससे धन की सहायता मांगते थे, आगे-पीछे सोचे बिना दे देता था। बड़े और छोटे भी मीठी-मीठी बातें कहते हुए उसे बहकाते थे और उससे धन ऐंठते थे। घर के लोगों को यह पसंद नहीं था। रत्नाकर बेटे की इस आदत से बहुत परेशान था। पत्नी ने उसे सुझाया कि उसका विवाह कर दिया जाए तो हो सकता है, उसमें सुधार आये। रत्नाकर के एक दोस्त ने उससे कहा, ‘‘सजीव का हृदय बड़ा ही कोमल है। उसमें दया, परोपकार आदि सद्गुण भरे हुए हैं। परंतु दुख की बात तो यह है कि उसमें लोकज्ञान रत्ती भर भी नहीं। मेरी बेटी मनोरमा दयालु है, पर उसमें लोकज्ञान भी है। वह अ़क्लमंद है। उससे शादी करवाओगे तो वह उसमें सुधार ले आयेगी।''

रत्नाकर ने उसकी सलाह मान ली और जल्दी ही मनोरमा, सजीव की पत्नी बनी। पिता की बातों को सच साबित करते हुए उसने थोड़े ही समय में सजीव को अपना बना लिया। वह जो भी कहती, उसे सजीव मान लेता था। उसने एक दिन पति से कहा, ‘‘तुम दयालु हो। जो भी सहायता मॉंगता है, उसे धन देकर सहायता पहुँचाते हो। घर के सब लोगों का यही कहना है कि जिस किसी को भी दान देते हो, उससे उनमें से कोई भी सुखी नहीं है। तुम्हें साबित करना होगा कि उनकी बातों में सच्चाई नहीं है अथवा अपनी पद्धति में परिवर्तन करो और घर के लोगों को संतुष्ट करो।'' सजीव ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया और वह पहले संजय के घर गया, जिसे उसने धन देकर सहायता पहुँचायी। तब संजय अपने घर के चबूतरे पर निराश बैठा हुआ था।
सजीव को देखते ही उसने कहा, ‘‘तुमने जो रक़म दी, उससे कल ही मेरे घर में पकवान बने। हम सबके सब सकुशल हैं, पर मेरे पिता व मेरे छोटे बेटे को अजीर्ण हुआ, बदहज़मी हुई।
वैद्य ने दवा दी। उससे मेरे छोटे बेटे की तबीयत तो ठीक हो गयी पर मेरे पिता अब भी बीमार हैं। वैद्य ने तीन दिनों तक उन्हें उपवास रखने के लिए कहा। पिताजी नाराज़ होकर रक़म देनेवाले तुम्हें और पकवान बनानेवाले मुझे लगातार गालियाँ दे रहे हैं।''
सजीव उसी दिन बृहदारण्य गया और असव से मिला। उन्होंने उसे अपना शिष्य बनाया और एक ही साल में वैद्य शास्त्र में उसे पारंगत बना दिया। विद्याभ्यास की पूर्ति के बाद असव ने सजीव से कहा, ‘‘मैंने चिकित्सा की ऐसी-ऐसी पद्धतियाँ तुम्हें सिखायीं, जो दुनिया के किसी भी वैद्य को नहीं मालूम हैं। पर चंद ऐसे भी रोग हैं, जिनकी चिकित्सा दवाओं से नहीं हो सकती। मेरे पास एक ऐसा भी ग्रंथ है, जिसमें ऐसे रोगों की चिकित्सा के मंत्र हैं। सेवा भाव से निस्वार्थ होकर जो चिकित्सा करते हैं, वे ही इस ग्रंथ को पाने के योग्य हैं । जब यह साबित होगा, तब कोई न कोई मेरी पुकार तुम तक पहुँचायेगा। जब तुम आओगे तो यह ग्रंथ तुम्हारे सुपुर्द करूँगा।''

घरवालों की बात सही निकली, फिर भी उसका उत्साह कम नहीं हुआ। उसे विश्वास था कि सबके विषय में ऐसा नहीं हुआ होगा। वहाँ से निकलकर वह सुग्रीव के घर की तरफ़ बढ़ा। उसके दरवाज़े पर ही उसे गालियाँ सुनायी पड़ीं। कल ही सुग्रीव बेटी की मंगनी के लिए उससे धन लेकर गया था। आज उसकी बेटी बुखार से पीड़ित है। उसे देखने जो आये थे, उसे रोगी ठहराकर वापस चले गये। उनकी शिकायत थी कि सजीव का दिया हुआ धन रास नहीं आया, इसलिए यह रिश्ता टूट गया। वे सजीव को गालियाँ देने लगे।
सजीव लौटा, पर निराश नहीं हुआ। बड़ी आशा लेकर वह चार-पाँच लोगों के घर गया, किन्तु हर जगह उसने यही स्थिति पायी। सजीव को मालूम हो गया कि जिस-जिस को उसने धन देकर सहायता पहुँचायी, वे संतुष्ट नहीं हैं। सब कुछ उसने सविस्तार पत्नी को बताया। फिर उसने पत्नी से कहा, ‘‘दोस्तों को खुश रखने के लिए मैंने जो पद्धति अपनायी, भले ही वह ठीक न हो, पर मेरी वजह से उनकी ज़रूरतें तो पूरी हुई हैं न? इससे बढ़कर कोई अच्छी पद्धति हो तो बताना। अवश्य उसे अमल में लाऊँगा।''
मनोरमा ने फ़ौरन कहा, ‘‘मनुष्य को सच्ची तृप्ति देता है, आरोग्य। जिसका आरोग्य ठीक नहीं होता, चाहे वह कितना ही संपन्न हो, सुखी नहीं रह सकता। तुम अगर चाहते हो कि तुम्हारे दोस्त और परिचित लोग सुखी रहें तो तुम वैद्य विद्या सीखना। धनी लोगों से धन लेना और गरीबों की चिकित्सा मुफ़्त में करना।''
‘‘वैद्य विद्या सीखने में बहुत साल लग जायेंगे न?'' सजीव ने संदेह प्रकट किया।
‘‘बृहदारण्य में असव नामक तपस्वी हैं। वे योग्य शिष्य को एक ही साल में वैद्य शास्त्र सिखा सकने की क्षमता रखते हैं। तुम वहाँ जाओगे तो शीघ्र ही योग्य वैद्य बन सकते हो'', मनोरमा ने कहा।

सजीव गुरु का आशीर्वाद पाकर रसपुर लौटा और पत्नी मनोरमा को पूरा विषय बताया। पत्नी के कहे अनुसार वह गरीबों से बिना शुल्क लिये और धनी लोगों से अधिक रक़म लेकर उनकी चिकित्सा करने लगा। सजीव की दवा अचूक थी, इसलिए लोग दूर-दूर से आने लगे।
एक दिन एक साधु जीवन के घर के सामने खड़े होकर ‘‘भिक्षांदेहि'' कहने ही वाला था कि इतने में उसने देखा कि सजीव एक गरीब रोगी की चिकित्सा ध्यान मग्न होकर कर रहा है। इतने में बग्गी से एक अमीर आया, और बोला, ‘‘वैद्योत्तम, आप जितनी रक़म चाहते हैं, दूँगा। पहले मेरे रोग की चिकित्सा कीजिये।'' उसके स्वर में गर्व था ।
सजीव ने उसे नख से शिख तक ग़ौर से देखा और कहा, ‘‘आप जो धन देंगे, उसे अवश्य लूँगा, लेकिन चिकित्सा के पहले रोग का निदान करना आवश्यक है। जब आपकी बारी आयेगी, खुद मैं आपको बुलाऊँगा। तब तक क़तार में बैठ जाइये।''
तब सजीव की दृष्टि उस साधु पर पड़ी। उसने साधु को प्रणाम किया और कहा, ‘‘आज आप मेरे साथ भोजन करके हमें कृतार्थ कीजिये।''
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘काम पूरा कर लेने के बाद अंदर आना। दोनों मिलकर भोजन करेंगे।'' कहते हुए वह घर के अंदर गया।
सजीव ने सब रोगियों की परीक्षा की, उन्हें आवश्यक दवाएँ दीं और देरी से अंदर आया। उसने साधु से देरी से आने के लिए क्षमा माँगी तो साधु ने कहा, ‘‘रोगियों के प्रति तुम्हारी श्रद्धा, धन के लिए न झुकनेवाला तुम्हारा निस्वार्थ सेवा भाव व साधुजनों के प्रति तुम्हारा आदर भाव अद्भुत है। ऐसे वैद्य बिरले ही होते हैं। असव के वैद्य मंत्र ग्रंथों को पाने की योग्यता तुममें है। तुरंत बृहदारण्य जाने के लिए निकलो।''

सजीव ताड़ गया कि यह व्यक्ति असव का भेजा हुआ व्यक्ति ही है। उसने पत्नी मनोरमा से यह बात बतायी। उसने पति से कहा, ‘‘बृहदारण्य आने-जाने में कम से कम एक हफ्ता लगेगा। जाइये अवश्य, लेकिन तब जाइये, जब रोगी न हों।'' सजीव ने यही बातें साधु से कहीं। उसने इसे ठीक माना और भोजन करके चला गया।
इसी बीच उस देश के राजा भीमसेन की माँ सख्त बीमार पड़ी। राजवैद्य की कोई भी दवा काम नहीं आयी। राजा ने सजीव को खबर भेजी। पत्नी की सलाह लेकर सजीव ने दूत से कहा, ‘‘मैं यहाँ से जाऊँगा तो कितने ही रोगियों को कष्ट पहुँचेगा। प्रजा हित चाहनेवाले हमारे राजा भी इससे संतुष्ट नहीं होंगे। अच्छा यही होगा कि चिकित्सा के लिए राजमाता को ही यहाँ ले आयें।''
दूसरे दिन साधु सजीव से मिला और साहस, निस्वार्थता की भरपूर प्रशंसा की। उसने सलाह दी कि वह तुरंत बृहदारण्य जाए और मंत्र ग्रंथ को ले आये। पर सजीव ने पहले की ही तरह जवाब दिया।
इसके कुछ दिनों के बाद रसपुर के धनाढ्य महेंद्र सख्त बीमार पड़ गया। सजीव को उसके रोग की गहराइयों का पता नहीं चला और पशोपेश में पड़ गया कि क्या किया जाए। तब साधु मनोरमा से मिला और कहा, ‘‘महेंद्र के रोग की चिकित्सा मंत्रों से हो सकती है। अब ही सही, अपने पति को बृहदारण्य भेजो।''
मनोरमा ने भी इसे आवश्यक माना और पति से बृहदारण्य जाने को कहा। पर, सजीव ने नहीं माना। तब मनोरमा ने साधु की सलाह पर नाटक किया, मानों वह बहुत ही बीमार हो। सजीव ने दवा दी, पर मनोरमा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कोई और चारा न पाकर जब वह साधु से मिला, तब उसने सलाह दी कि वह तुरंत बृहदारण्य जाए और वह वैद्य-ग्रंथ ले आये। नहीं तो उसकी पत्नी ख़तरे में पड़ जायेगी।
मनोरमा ने भी जाने पर ज़ोर दिया तो वह बृहदारण्य गया और असव से वह ग्रंथ लेकर लौटा। महेंद्र के साथ-साथ कितने ही रोगियों की चिकित्सा उसने इस ग्रंथ में बतायी चिकित्सा पद्धति के द्वारा की और उनका रोग दूर किया।
वेताल ने यह कहानी बतायी और पूछा, ‘‘राजन्, साधु ने बहुत बार सजीव से बृहदारण्य जाने को कहा, पर वह नहीं गया। किन्तु जब उसकी पत्नी बीमार पड़ी तो वह बृहदारण्य गया। क्या यह स्वार्थ नहीं? अगर वैद्यमंत्र ग्रंथ अपने पास होता तो महेंद्र जैसे धनाढ्य़ों की चिकित्सा करके बहुत बड़ी मात्रा में धन कमाया जा सकता था, इसीलिए मनोरमा ने अपने पति को बृहदारण्य जाने के लिए बाध्य किया। क्या यह मनोरमा का स्वार्थ नहीं? यों दो प्रकार के स्वार्थों के वश में आकर आये सजीव को असव का मंत्र ग्रंथ देना क्या नियम भंग नहीं है, क्योंकि उसने कहा था कि यह ग्रंथ निस्वार्थियों को ही दिया जायेगा। मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
राजा विक्रमार्क ने कहा, ‘‘अग्नि को साक्षी बनाकर सजीव ने मनोरमा से विवाह किया। पति होने के नाते उसे बचाना उसका कर्तव्य है। उसकी चिकित्सा के लिए उसका बृहदारण्य जाना स्वार्थ नहीं कहलाता। मनोरमा के कारण ही सजीव ने ग़रीबों की चिकित्सा की। उस पर धनार्जन का आरोप लगाना समुचित नहीं। जब उसे मालूम हुआ कि उसकी पत्नी रोग ग्रस्त है तब उसने दूसरे रोगियों की चिकित्सा करने में भी अपने को असमर्थ पाया। यदि मनोरमा सख्त बीमार पड़ जाती तो हो सकता है, वह वैद्य वृत्ति को ही सदा के लिए छोड़ देता। ऐसा होने पर कितने ही रोगियों को हानि पहुँचती ! जो वैद्य मंत्र ग्रंथ ले आया, उससे उसने कितने ही रोगियों की चिकित्सा की और उन्हें रोग मुक्त किया। इसलिए सजीव ने बृहदारण्य जाकर और असव ने वैद्य ग्रंथ देकर कोई नियम भंग नहीं किया।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः सुचित्रा की रचना)

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