
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और अपने कंधे पर डाल लिया। फिर वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, तुमसे हर बार कहता आ रहा हूँ कि जो काम तुम कर रहे हो, वह तुम्हें शोभा नहीं देता। यह क्यों भूल जाते हो कि तुम एक राजा हो और राजा का काम श्मशान में नहीं, राज्य में होना चाहिये। आम जनता के दुख दर्द को जानना चाहिये और उनकी यथासंभव सहायता करनी चाहिये। मेरी समझ में नहीं आता कि अपने कर्तव्य को भुलाकर तुम यह कठोर परिश्रम क्यों कर रहे हो। परंतु, कभी-कभी कार्य को साधने के बाद, जिस फल की आशा की जाती है, उसके विपरीत होता है। उदाहरणस्वरूप तुम्हें चक्रि नामक एक युवक की कहानी सुनाऊँगा। थकावट दूर करते हुए उसकी कहानी सुनना।'' फिर वेताल चक्रि की कहानी सुनाने लगाः
भोगपुर में श्रीकांत नामक रत्नों का एक व्यापारी रहा करता था। उसके तीन बेटे थे। दोनों बड़े बेटे पिता के व्यापार में सहायता पहुँचाते रहते थे । तीसरा बेटा चक्रि साहित्य में विशेष अभिरुचि रखता था। व्यापार में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

उस शहर के प्रमुख पंडित ब्रह्मवर्मा के घर में हर दिन शाम को काव्य गोष्ठी का आयोजन होता था। उसमें पुरुष और स्त्रियाँ भाग लेते थे और कितने ही विषयों पर विशद रूप से चर्चाएँ करते रहते थे। चक्रि भी अ़क्सर उन चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लेता था। काव्यों का वह भली-भांति अध्ययन करता था और समझ भी लेता था। सब लोग उसकी विद्वता की प्रशंसा भी करते थे। एक दिन, विमला नामक एक युवती ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। उस दिन से चक्रि विमला से प्रेम करने लगा।
विमला उस शहर की नहीं थी। उसका पिता वीरांग मोहपुर में प्रमुख व्यापारी था। जब वह बीमार हुआ तब वैद्यों ने उसे सलाह दी कि भोगपुर में रहने से उसकी तबीयत सुधर सकती है। अपनी बेटी के साथ वह वहाँ आया और अपने एक रिश्तेदार के घर में रहने लगा। विमला, हर दिन चक्रि के साथ ब्रह्मवर्मा के घर में काव्यों को लेकर चर्चाएँ करती रहती थी। दोनों कभी-कभी वैयक्तिक बातें भी करते रहते थे।
विमला ने, एक दिन चक्रि से कहा, ‘‘मेरे पिताजी का स्वास्थ्य अब बिलकुल ठीक है। कल ही हम मोहपुर लौटनेवाले हैं।'' यह सुनते ही वह चिंतित हो उठा और कहने लगा, ‘‘तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता। तुम्हारी स्वीकृति हो तो हम दोनों शादी कर लेंगे।''
विमला शरमाती हुई बोली, ‘‘तुम एक प्रमुख रत्न व्यापारी के पुत्र हो। मेरे पिता इस विवाह को अवश्य स्वीकार करेंगे। विवाह का प्रस्ताव लेकर तुम अपने बड़ों के साथ मोहपुर आओ। वहीं इसका निर्णय होगा।''
चक्रि यह बात पिता से बताना चाहता था, परंतु जब उसके दोनों भाइयों की शादी नहीं हुई, तब भला यह कैसे कहे। वह संकोच में पड़ गया।

चक्रि का पिता अचानक किसी काम पर ध्रुवपुर गया, जो बहुत दूर था। वहाँ जयगुप्त नामक एक बाल्य मित्र से उसकी मुलाक़ात हुई। वह चक्रि के पिता को अपने घर ले गया।
जयगुप्त करोड़पति था। उसकी तीन बेटियाँ थीं। तीनों ने बहुत ही अच्छी तरह से श्री कान्त का आदर-सत्कार किया। श्रीकांत उनकी सुंदरता, विनय व व्यवहार शैली को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने जयगुप्त से यह कहा भी।
जयगुप्त ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘मैंने तुम्हारे तीनों बेटों को देखा नहीं। परंतु तुम्हें देखकर अंदाजा लगा सकता हूँ कि वे भी अवश्य ही तुम्हारी ही तरह योग्य व दक्ष होंगे। उन तीनों को अपना दामाद बनाने की मेरी इच्छा है। तुमने तो मेरी बेटियों को देख लिया और उनकी प्रशंसा भी की। क्या उन्हें अपनी बहुएँ बनाने को तैयार हो?''
श्रीकांत ने सकपकाते हुए कहा, ‘‘मेरी पत्नी कहा करती है कि बहनें देवरानियॉं हों तो मिल-जुलकर रहेंगी। तुम्हारी बेटियाँ मेरी बहुएँ होंगी तो यह मेरा भाग्य होगा। परंतु, उन्हें पहले एक -दूसरे को देखना होगा और पसंद भी करना होगा न?''
जयगुप्त ने फ़ौरन कहा, ‘‘तुम्हारा शहर मेरे शहर से बहुत दूर है। उनका एक-दूसरे को देखना और फिर कभी विवाह इसमें बहुत समय लगेगा। जहाँ तक मेरी बेटियों की बात है, वे वही करेंगी, जो मैं कहूँगा। समझता हूँ कि तुम्हारे बेटों के विषय में भी यही सच है। उनकी अस्वीकृति की स्थिति में ही उन्हें एक-दूसरे को देखना होगा।''
श्रीकांत के लिए यह चुनौती थी। घर लौटते ही उसने अपने तीनों बेटों को बुलाया और जो हुआ, उसका सविस्तार विवरण दिया। फिर कहा, ‘‘जयगुप्त मेरा बाल्य मित्र है। उसकी बेटियाँ सुंदर और विनम्र हैं। बहुत ही विनयी हैं। उन्हें देखे बिना ही तुम इस विवाह के लिए मान जाओगे तो मैं जयगुप्त के सामने सिर उठाकर खड़ा हो सकता हूँ।''
बड़े दोनों बेटों ने पिता के इस प्रस्ताव को मान लिया। पर चक्रि ने जैसे ही विमला के बारे में बताया तो क्रोध से पिता का चेहरा तमतमा उठा। उसने कहा, ‘‘वह वीरांग हमारा कट्टर शत्रु है। तुम विमला को भूल जाओ।''
चक्रि ने नहीं माना। तब श्रीकांत ने क्रोध-भरे स्वर में कहा, ‘‘मेरे मित्र की पुत्री से विवाह करने से इनकार कर रहे हो और मेरे शत्रु की पुत्री से विवाह पर तुले हुए हो। अगर तुम्हारा यही निर्णय है तो इसी क्षण घर से निकल जाओ। तुम्हारे लिए मेरे घर के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हैं।''

चक्रि उसी क्षण घर से चला गया और मोहपुर जाकर विमला से सारी बातें बतायीं।
विमला डरती हुई बोली, ‘‘अब तक मुझे मालूम ही नहीं था कि तुम्हारे पिता और मेरे पिता कट्टर शत्रु हैं। तब तो मेरे पिता भी इस विवाह के लिए अपनी स्वीकृति नहीं देंगे।''
‘‘तुम्हारे लिए मैं घर छोड़कर आया हूँ। तुम भी घर छोड़कर चली आओ। विवाह करके सुखी जीवन बिताएँगे,'' चक्रि ने कहा।
‘‘तुम्हें तुम्हारे पिता ने घर से निकाल दिया। अब तुम्हारे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। शादी कर लेंगे तो कैसे सुखी रह सकते हैं। जब तक अपने को योग्य व धनी साबित नहीं करोगे तब तक तुमसे शादी करने का सवाल ही नहीं उठता।'' उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया।
चक्रि को लगा कि विमला की बातों में औचित्य है। उस दिन से वह धन कमाने के प्रयत्नों में जी-जान से लग गया। लेकिन तत्काल पेट भरना भी उसके लिए मुश्किल था।
ऐसी परिस्थितियों में, वज्रपुर के एक निवासी ने चक्रि से कहा, ‘‘इस गाँव में कपड़े धोनेवाले नहीं हैं। तुम अगर मेरे घर के कपड़े धोओगे तो दोनों व़क्त खाने का बंदोबस्त करूँगा। और हर महीने पाँच अशर्फियाँ दूँगा।''
कोई और चारा नहीं था। चक्रि ने उसका कहा मान लिया और नौकरी पर लग गया। अड़ोस-पड़ोस के लोग भी उसे धोने के लिए कपड़े देने लगे। क्रमशः उसकी मासिक आय बढ़ने लगी।
एक दिन उसके मालिक के घर एक साधु आया। चक्रि को उसके काषाय वस्त्र धोने पड़े। साधु ने चक्रि को बुलाकर कहा, ‘‘तुमने मेरे कपड़े धोये, पर गंदगी जैसी की तैसी है। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो तुम अपने पेशे में कैसे आगे बढ़ सकते हो?''
चक्रि की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसने साधु को अपनी प्रेम-कहानी सुनायी और कहा, ‘‘लाचार होकर मैं यह काम कर रहा हूँ। कपड़े धोना मेरा पेशा नहीं है।''
साधु को उसपर दया आ गयी। उसने कहा, ‘‘जिस पेशे में तुम आगे बढ़ना चाहते हो, उस पेशे से प्रेम करना चाहिये। अन्यथा जीवन में तुम्हारी प्रगति कदापि नहीं होगी।''

‘‘पेशे से प्रेम। यह कैसे?'' आश्चर्य-भरे स्वर में उसने पूछा। ‘‘पेशा अगर तुम्हें इज्ज़त बख्शे तो वह पेशे का बडप्पन है। पेशे की इज़्जत अगर तुम करोगे तो वह तुम्हारा बडप्पन है। पेशे की बारीकियाँ सीखो और नयी पद्धतियाँ अपनाओ।'' साधु ने कहा।
साधु की इन बातों ने चक्रि पर मंत्र की तरह काम किया। साधु के चले जाने के बाद, वह एक दूरस्थ गाँव में गया और वहाँ अपने पेशे से संबंधित बारीकियाँ सीखीं। फिर वज्रपुर लौट कर कपड़ा धोने के क्षेत्र में नयी पद्धतियों को अमल में लाने लगा। इस वजह से जो कपड़े वह धोता था, वे एकदम सफ़ेद होते थे। रंग भरे कपड़े नये दिखते थे। पुराने कपड़े अगर रंगहीन हो जाते तो वह उनपर रंग चढ़ाता था। नये कपडों का रंग अगर पसंद न आता हो तो वह उस रंग को बदल भी देता था। वज्रपुर के निवासियों ने पहचाना कि यह एक बड़ी कला है और वे उसका आदर भी करने लगे। चक्रि को अब इस पेशे से पर्याप्त आमदनी भी मिलने लगी। साल ही के अंदर उसने नाम कमाया, साथ ही बहुत धन भी।
इस बीच, चक्रि का बाप ध्रुवपुर गया और जयगुप्त से चक्रि के विषय में सविस्तार बताया। इसपर जयगुप्त ने कहा, ‘‘मुझे इस बात का दुख है कि मेरे कारण बाप-बेटे को अलग होना पड़ा। विमला के पिता वीरांग को मुझसे कितने ही लाभ पहुँचे। वह मेरी बात को इनकार ही नहीं कर सकता। इस विवाह से तुम दोनों परिवारों के बीच का मन-मुटाव भी दूर हो जायेगा।''
यों, जयगुप्त के प्रयासों से श्रीकांत और वीरांग दोस्त बने। तीनों सपरिवार वज्रपुर गये और चक्रि से मिले। चक्रि ने अपनी पूरी कहानी उन्हें सुनायी। तब उसकी माँ ने उससे कहा, ‘‘कड़ी मेहनत करके तुम इतने बड़े हो पाये, पर हम तुम्हारे इस पेशे से क़तई खुश नहीं हैं। यह भूलना मत कि तुम रत्नों के व्यापारी के बेटे हो।'' पास ही खड़ी विमला चक्रि से कहने लगी, ‘‘मेहनत करके जीवन निर्वाह करने का यह पेशा मुझे भी पसंद नहीं। अगर यह पेशा नहीं छोड़ा तो मैं तुमसे शादी नहीं करूँगी। निर्णय कर लो कि तुम मुझे चाहते हो या अपने पेशे को।''

चक्रि नाराज़ी से बोला, ‘‘तो मेरा भी निर्णय सुन लो। उसी कन्या से मैं विवाह करूँगा, जो मेरे साथ मेरे पेशे का भी आदर करेगी।''
तब जयगुप्त ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटा, मेरी तीसरी बेटी तुम्हारे साथ कपड़े धोने के लिए तैयार है। क्या उससे शादी करोगे?''
चक्रि ने तुरंत जयगुप्त के पाँव छूते हुए कहा, ‘‘आपकी पुत्री से विवाह करना अपना भाग्य समझता हूँ।''
वेताल ने कहानी पूरी की और राजा विक्रमार्क से पूछा, ‘‘राजन्, चक्रि ने अपनी प्रेयसी विमला के लिए, प्रमुख रत्न व्यापारी पिता व परिवार को छोड़कर नाना कष्ट सहे। साधु के हितबोध के कारण उसने कपड़ों को धोने का पेशा अपनाया और उस पेशे से पर्याप्त धन भी कमाया। परंतु विमला को उसका पेशा हेय लगा। विमला की इच्छा के अनुसार ही वह पेशा छोड़ पिता के साथ रत्नों का व्यापारी बनकर आराम से ज़िन्दगी गुज़ार सकता था। उसका निर्णय तो विवेकहीन लगता है। मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रहोगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘कुछ ऐसे पेशे होते हैं, जो आदरणीय नहीं लगते, पर जो व्यक्ति उन पेशों को अपनाते हैं और अपनी प्रतिभा से उन्हें आदरणीय बनाते हैं, वे विशिष्ट व्यक्ति कहलाते हैं। साधु के हितबोध से चक्रि ने यह जाना और वह उस पेशे का प्रेमी बना। उसने साबित कर दिखाया कि कपड़ों को धोना कोई हेय पेशा नहीं है। परंतु, विमला इस तथ्य को जान नहीं सकी और उसके पेशे को हेय मान बैठी। इसी वजह से चक्रि ने उससे शादी करने से इनकार कर दिया।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार-मनोज गुप्ता की रचना।)

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