Saturday, July 2, 2011

यथार्थ चित्र

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर डाल लिया और श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘तुम्हारा वह कौन-सा संकल्प है, जिसे कार्यान्वित करने के लिए इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो? कुछ ऐसे राजा हैं, जो अपने अधिकार- दर्प के नशे में चूर होकर अकस्मात् ही कोई न कोई निर्णय ले लेते हैं। उनके इस निर्णय के पीछे उनका क्या आशय है, यह किसी की समझ में नहीं आता। अपने नौकर-चाकरों के विषय में ही नहीं बल्कि स्वतंत्र विचारों के कलाकारों के प्रति भी इसी प्रकार का दुर्व्यवहार करते हैं। यह मालूम ही नहीं होता कि वे कब किसे दंड देंगे और किसका सत्कार करेंगे। राजा उग्रसिंह भी एक ऐसा ही राजा था, जिसने अमित अधिकार-दर्प के नशे में चूर होकर विवेक रहित पारस्परिक विरोधी निर्णय लिये। तुम्हें सावधान करने के लिए उसकी कहानी सुनाने जा रहा हूँ। ध्यान से सुनो।'' फिर वेताल यों कहने लगाः

उग्रसिंह जयंतपुर का राजा था। निस्संदेह वह एक दक्ष शासक था, परंतु जब देखो, क्रोधित ही रहता था, चाहे वह अंतःपुर में हो या दरबार में। छोटी-छोटी ग़लतियों पर भी वह लोगों को कड़ी से कड़ी सज़ा देता था।
राजकर्मचारियों को सदा इस बात का डर लगा रहता था कि पता नहीं, कब, किस कारण से उन्हें दंड मिलेगा।
एक बार उग्रसिंह में अपना चित्र बनवाने की इच्छा जगी। यह समाचार जानते ही कई चित्रकार राजधानी आने लगे। परंतु राजा ने इतने में घोषणा करवायी कि जो उसका अच्छा चित्र बनायेगा, उसे हज़ार अशर्फियाँ दी जायेंगी, पर राजा को यह चित्र पसंद न आये तो चित्रकार को दस कोड़े मारे जायेंगे। चित्रकार जानते थे कि राजा हमेशा क्रोधांध रहता है, इसीलिए समर्थ चित्रकार भी पीछे हट गये।
नागवर्मा ही एक ऐसा चित्रकार था, जो राजा का चित्र बनाने के लिए तैयार हुआ। राजभवन के निकट ही उसके रहने का इंतज़ाम किया गया। राजा हर दिन चित्र बनाने के लिए उसे कुछ समय देता था। नागवर्मा ने एकाग्रता के साथ कुछ समय तक काम किया और पूरा हो जाने के बाद चित्र दरबार में ले आया।
परदा हटाने के बाद जैसे ही राजा ने चित्र को देखा, नाराज़ हो उठा और चिल्ला पड़ा, ‘‘छी, यह भी कोई चित्र है? क्या सचमुच में तुम चित्रकार हो? यह तो मेरा चित्र ही नहीं लगता।''
सभासदों ने भी यही राय प्रकट की। उनको आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े चित्रकार ने ऐसा चित्र कैसे बनाया।
नागवर्मा को पुरस्कार पाने की उम्मीद थी, पर उल्टे वह कोड़े से मारा गया। अपमानित होकर वह सभा से निकल गया।
कुछ दिनों के बाद विजय नामक चित्रकार राजा से मिला और बोला, ‘‘आपका चित्र बनाने की इच्छा लेकर आया हूँ। कृपया मुझे इसकी अनुमति दीजिये।''

‘‘निकम्मों के सामने खड़े होकर चित्र बनवाने से मुझे बेहद चिढ़ है। अगर ठीक तरह से चित्र नहीं बनाया तो दुगुना दंड दूँगा? याने कोड़े की मार दस नहीं, बीस बार । शर्त स्वीकार है?'' राजा ने गरजते हुए पूछा।
‘‘हाँ, स्वीकार है महाराज,'' विजय ने कहा। वह उसी दिन काम पर लग गया। हफ्ते भर में उसने चित्र बना दिया, और दरबार में सिंहासन पर आसीन राजा के पास ले आया।
उस चित्र को देखकर राजा क्रोधित हो गया और कहने लगा, ‘‘क्या मैं इतना क्रूर हूँ, तुम्हारा यह साहस?''
‘‘क्षमा कीजिये महाराज, आपका यथार्थ चित्र बनाना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है। एक हिरन पानी पीते समय भी घबराता रहता है और भय के मारे परिवेशों को देखता रहता है। बाघ प्रशांत होकर जब बैठा रहता है, तब भी उसकी आँखों में लालिमा भरी रहती है और वह भयंकर लगता है। ये उनके सहज लक्षण हैं। चित्रकार को किसी भी हालत में उस सहजता को भुलाना नहीं चाहिये।'' विजय ने सविनय कहा।
‘‘इसका यह मतलब नहीं कि मुझे इतना क्रूर दिखाओ। अगर मैं चाहूँ तो तुम्हारा सिर धड से अलग कर सकता हूँ।'' राजा ने हुंकार भरते हुए कहा।
‘‘जानता हूँ, महाराज। परंतु सच्चा कलाकार सदा सत्य ही कहता है। जो सत्य में विश्वास रखता है, उसे भय छू भी नहीं सकता। फिर भी, मेरी एक छोटी-सी विनती है। आप किसी निर्णय पर आयें, उसके पहले इस चित्र को सभासदों को दिखाने की अनुमति दीजिये। कृपया उनकी भी राय लीजिये।''
राजा ने सभासदों को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘क्या यह चित्र मुझ जैसा है?''
चित्र, चूँकि बिलकुल ही क्रोध में खड़े राजा जैसा ही था, इसीलिए सभासद इनकार न कर सके। परंतु वे मौन रह गये, क्योंकि ‘हाँ' कहने से वे डरते थे।
तब वृद्ध मंत्री ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘महाराज, इस चित्र को इस प्रकार से चित्रित करने के औचित्य के बारे में तो कह नहीं सकता, पर यह चित्र हू ब हू आप का ही लगता है। आपके रूप के साथ- साथ, आपके हाव-भाव, आपके सहज लक्षण, आपका व्यक्तित्व इसमें स्पष्ट गोचर होते हैं।'' मंत्री के कथन का समर्थन करते हुए सभासदों ने तालियाँ बजायीं।

एक क्षण भर के लिए राजा चौंक उठा। उसने तुरंत विजय को हज़ार अशर्फियाँ दीं और उस चित्र को अपने कमरे में रखवाया।
राजा हर दिन नींद से उठते ही उस चित्र को एक बार ध्यान से देखता था। उस चित्र में उसे जैसा क्रोधी व विकृत दिखाया गया है, ऐसा न दिखूँ, इसकी कोशिश करने लगा। शांत रहने व दिखने के प्रयत्नों में लग गया। कभी नाराज़ हो उठा भी तो वह उस चित्र की याद करने लगा, जिससे वह विनम्र और सौम्य होने लगा। यों उसका उबलता क्रोध एकदम ठंडा पड़ गया। उसने विजय को एक बार और बुलाया और अपने चित्र को चित्रित करने का आदेश किया।
विजय ने कहा, ‘‘महाराज, अब आपके चित्र को बनाना है, नागवर्मा को, मुझे नहीं। आप अगर अनुमति देंगे तो वह आपका चित्र अद्भुत रूप से बनायेगा। उसके पहले के चित्र को ही लीजिये, उसे एक और बार देखेंगे तो उसमें आप अपना प्रशांत गंभीर्य व चित्रकार का अद्भुत कला-नैपुण्य स्वयं देख सकेंगे।''
साथी कलाकार के प्रति विजय ने जो प्रेम व आदर दर्शाया, उसके लिए राजा ने विजय का अभिनंदन किया और नागवर्मा के चित्र को मंगाकर देखा। नागवर्मा के अद्भुत कलानैपुण्य की प्रशंसा करते हुए उसे बुलवाया और उसे आस्थान चित्रकार के पद पर नियुक्त किया। उसका सत्कार भी किया।
वेताल ने कहानी सुना चुकने के बाद कहा, ‘‘राजा उग्रसिंह पहले नागवर्मा पर बहुत ही क्रोधित हुआ, क्योंकि उसकी दृष्टि में उसका बनाया चित्र बहुत ही भद्दा और उसका अपमान करनेवाला था । पर उसने फिर से अपना चित्र बनाने के लिए नागवर्मा को बुलाया। यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसने इस अपराध के लिए उसे कड़ी सज़ा भी दीथी । ऐसे नागवर्मा को अपने आस्थान का चित्रकार बनाया और यहाँ तक कि उसका सत्कार भी किया। क्या तुम्हें यह विचित्र नहीं लगता? ये उसमें भरे निरंकुश स्वभाव, व विवेकहीनोता के परिचायक नहीं? इससे क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि दोनों कलाकारों के चित्रों में कौन-सा बेहतर है, इसका वह निर्णय नहीं कर पाया, इसीलिए उसने दोनों चित्रकारों का सत्कार किया? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारा सिर टुकड़ों में फट जायेगा।''

विक्रमार्क ने कहा, ‘‘राजा उग्रसिंह पहले क्रोधी स्वभाव का अवश्य था, पर, बाद में जो घटनाएँ घटीं, वे उसमें परिवर्तन ले आयीं। उसने विजय को भी कठोर दंड देना चाहा। किन्तु वृद्ध मंत्री तथा सभासदों के अभिप्रायों को वह टाल नहीं सका। उसे विजय को भेंट देनी ही पड़ी। जब उसमें धीरे-धीरे सोचने की प्रक्रिया शुरू हो गयी, तब जान गया कि ग़लती चित्र में नहीं, उसके स्वभाव व उसके रूप में ही है। इसी कारण से उसने एक और बार चित्र बनवाना चाहा। जब उसने नागवर्मा का चित्र मंगवाकर देखा तो उसने पाया कि उसमें नाम मात्र के लिए भी दर्प, दंभ नहीं है। सभासदों ने भी कभी अपने राजा को शांत स्वभाव का नहीं देखाथा । इसीलिए उन्होंने भी चित्र की प्रशंसा नहीं की। राजा जब शांत स्वभाव का हो गया, तब उसमें निहित गांभीर्य व शांति को देखकर स्वयं मुग्ध हो गया। इसीलिए उसने नागवर्मा का सत्कार किया। अच्छाई और महानता को पहचानना हो तो देखनेवालों में उनके कुछ अंश हों तभी यह संभव है। जब राजा क्रोधी स्वभाव का था तब चित्र में अपने गंभीर और शान्त रूप को पहचान नहीं सका। अब रही, चित्रकारों की बात। दोनों महान हैं। वास्तविकता को चित्रित करने में विजय माहिर है तो नागवर्मा में ऋटियों को सुधारते हुए, उनकी कल्पना करते हुए, चित्र बनाने की प्रतिभा है। इसी वजह से उसने आदर्श शासक के स्थान पर कल्पना करके राजा का चित्रांकन किया। दोनों चित्रकारों का सत्कार करके राजा ने अपनी बौद्धिक परिपक्वता और विवेक शक्ति का परिचय दिया। इसमें किसी प्रकार के अनौचित्य की कोई गुंजाइश नहीं।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और पुनः पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः काशी भट्ट शशिकांत की रचना)


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