
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः उस प्राचीन वृक्ष के पास गया। वृक्ष पर से शव को उतारा। उसे अपने कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर अग्रसर होने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, तुम्हारा कठोर परिश्रम देखते हुए अत्यंत आश्चर्य होता है। मुझे लगता है कि किसी के हाथों तुम्हारा अप्रत्याशित अपमान हुआ है और उस अपमान से अपने को बचाने या उसे छिपाने की कोशिश में लगे हुए हो। हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य अच्छा करने के उद्देश्य से कोई काम हाथ में लेता है। पर परिस्थितियाँ उसे साथ नहीं देतीं। उल्टे उस काम से उसे हानि पहुँचती है। वह यह नहीं चाहता कि किसी दूसरों का यह मालूम हो, क्योंकि वह जगहँसाई से बहुत डरता है। इसके लिए वह आवश्यकता से अधिक सावधानी बरतता है। सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा यह प्रवृत्ति समाज में बड़े माने जानेवाले लोगों में अधिकाधिक पायी जाती है। उदाहरणस्वरूप राजा सुनील की कहानी तुम्हें सुनाने जा रहा हूँ, जो एक चोर से ठगा गया। वह यह नहीं चाहता था कि यह विषय किसी और को मालूम हो। इसलिए जब चोर पकड़ा गया तब उसने उसे दंड नहीं दिया, उल्टे उसे माफ़ कर दिया। राजा होकर उसे ऐसा करना नहीं चाहिये था। उस राजा सुनील की कहानी अपनी थकावट दूर करते हुए ध्यानपूर्वक सुनो।'' फिर वेताल राजा सुनील की कहानी यों सुनाने लगाः
राजा सुधीरवर्मा का पुत्र सुनील, दयानंद मुनि के गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहा था। उसने बहुत ही जल्दी सभी विद्याओं में भरपूर ज्ञान प्राप्त किया। एक दिन सुनील को बुलवाकर दयानंद मुनि ने उससे कहा, ‘‘तुमने विद्यार्जन के प्रति पर्याप्त आसक्ति दर्शायी और निरंतर परिश्रम किया। इसके कारण कम समय में ही सब विद्याओं में पारंगत हो पाये। अब तुम्हें गुरुकुल में रहकर और शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। हर मानव के लिए विद्या नयनद्वय की तरह है। शासनकाल में यह तुम्हारे लिए इतोधिक उपयोगी सिद्ध होगी। अधिकारीगण विवेकपूर्ण निर्णय लेते हैं, जिनसे लोग बहुत बड़ी संख्या में लाभ उठाते हैं। अतः शासकों के लिए विद्या बहुत आवश्यक व उपयोगी है। समस्त विद्याओं का ही परमार्थ नहीं बल्कि मानव जन्म का भी परमार्थ है, परोपकार। इस परम सत्य को सपने में भी न भुलाना। वही मेरे लिए सच्ची गुरुदक्षिणा होगी।'' कहते हुए मुनि ने सुनील को आशीर्वाद दिया।

सुनील ने भक्तिपूर्वक गुरु को प्रणाम किया। गुरुकुल की समग्र वृद्धि के लिए पिता ने जो भेंट भेजी उसे गुरु समर्पित किया और राजधानी निकल पड़ा।
विद्या शोभा से सुशोभित पूर्णचंद्र की तरह लौटे अपने पुत्र को देखकर राजा सुधीर वर्मा बहुत आनंदित हुए। मंत्रियों व राजगुरु से परामर्श करने के बाद उन्होंने अपने पुत्र का राज्याभिषेक वैभवपूर्वक किया।
पिता के सुयोग्य पुत्र की तरह सुनील ने बड़ी ही दक्षता के साथ शासन चलाया। गुरुकुल से निकलते समय गुरु ने जो बातें कहीं, वे सदा उसके कानों में गूँजती रहीं। इसलिए वह अक्सर बहुरूपिया बनकर देश में घूमता रहता था और प्रजा की समस्याओं से स्वयं परिचित होता था। वह इन समस्याओं के समाधान भी ढूँढ़ निकालता था। विपत्तियों में फंसे लोगों की सहायता करने में उसे अपार आनंद मिलता था।
एक दिन वह वस्त्र व्यापारी के वेष में देश में घूमने निकला। राजधानी से थोड़ी ही दूरी पर प्रवाहित हो रही नदी के उस पार के अरण्य प्रदेश में जब वह एक गाँव के निकट पहुँच रहा था तब उसे अकस्मात् एक आर्तनाद सुनायी पड़ा, ‘‘मेरे बच्चे को बचाइये, मेरे बच्चे को बचाइये''। उस आर्तनाद को सुनकर वह मुड़ा।

मुड़ने पर उसने देखा कि एक आदमी एक उजड़े कुएँ के बाहर खड़ा है और गिडगिडा रहा है, ‘‘महाशय, मेरा बेटा कुएँ में गिर गया। मैं अपाहिज हूँ। कुएँ में उतर नहीं सकता। मेरे बेटे को बचाइये। कृपया बचा लीजिये।'' दीन स्वर में गिडगिडाने लगा।
बहुरूपये सुनील ने कपडों की गठरी ज़मीन पर रख दी और कुएँ के अंदर झांकते हुए उसमें कूद पड़ा। उसने पूरा कुआँ ढूँढ़ डाला, बहुत देर तक। पर बच्चा दिखायी नहीं पड़ा। जब वह कुएँ से बाहर आया तो वहाँ न ही वह अपाहिज था और न ही उसके कपड़ों की गठरी थी। राजा को अब यह समझने में देर नहीं लगी कि उसके साथ धोखा हुआ है। वह उदास होकर राजधानी लौटा।
दस दिन बीत गये। ग्यारहवें दिन जब राजा सुनील दरबार में सिंहासन पर आसीन था तब सैनिक एक चोर को वहाँ ले आये, जिसके हाथों में हथकड़ियॉं लगी थीं।
राजा ने उसे ग़ौर से देखा। सैनिकों से उसने पूछा कि इसने क्या अपराध किया?
‘‘प्रभु, आभूषणों के व्यापारी पुण्यगुप्त के घर में सेंघ लगाते समय यह पकड़ा गया।'' सैनिकों ने कहा।
थोड़ी देर तक सोचने के बाद राजा ने कहा, ‘‘ठीक है, आज रात तक उसे जेल में ही रखना। कल सज़ा सुनाऊँगा।''
सैनिक उसे खींचते हुए ले गये और जेल में बंद कर दिया।
उस दिन आधी रात को राजा वस्त्र व्यापारी के वेष में जेल के अंदर गये। और सोते हुए चोर को जगाया।
चोर घबराता हुआ जागा और व्यापारी को देखकर आश्र्चर्य भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम यहाँ कैसे आये? क्या तुम भी चोर हो?''
राजा ने अपनी दाढ़ी निकाली, पगड़ी उतारी तो चोर उसे देखकर हक्का-बक्का रह गया। वह भय के मारे थरथर कांपते हुए कहने लगा, ‘‘क्षमा कीजिये, प्रभु! आपको चकमा देकर आपके कपड़ों की गठरी चुरा ली। भविष्य में कभी भी ऐसा काम नहीं करूँगा। मेरी रक्षा कीजिये।'' कहता हुआ वह राजा के पैरों पर गिर पड़ा।

‘‘अपराधी को दंड भुगतना ही पड़ेगा। व्यापारी के घर में सेंघ लगाकर तुमने अपराध किया और इस अपराध के लिए तुम्हें दंड भुगतना ही होगा। मुझे धोखा दिया है, इस अपराध के लिए मैं तुम्हें कोई सजा नहीं दूँगा। परंतु हाँ, वादा करो कि कुएँ के बाहर जो घटना घटी, उसके बारे में तुम किसी से कुछ नहीं कहोगे। मेरी शर्त तुम्हें मंजूर है?'' राजा ने पूछा।
‘‘हाँ, ऐसा ही करूँगा प्रभु।'' कहते हुए चोर ने राजा के पैरों का स्पर्श किया। राजा जेल के बाहर आया।
दूसरे दिन, सैनिक चोर को राजा के सामने ले आये। सभासद् राजा का फैसला सुनने के लिए उत्कंठित थे।
राजा ने चोर से पूछा, ‘‘आभूषणों के व्यापारी पुण्यगुप्त के घर में तुमने सेंघ लगायी?''
‘‘हाँ प्रभु'', चोर ने सिर झुकाकर कहा।
‘‘क्या यह तुम्हारी पहली चोरी है या चोरी करना ही तुम्हारा पेशा है? राजा ने पूछा।
‘‘चोरी करना मेरा पेशा नहीं है प्रभु। जैसे ही पढ़ाई पूरी हुई, दुर्भाग्यवश मुझपर चोरी का इलजाम मढा गया। जिसे मैंने नहीं कीथी । मुझे सज़ा भी दी गयी। मुझपर चोर की छाप लग गयी। जीविका के लिए बहुत घूमा-फिरा। मुझे चोर समझकर कोई भी मुझे काम देने के लिए तैयार नहीं था। मैं जीना नहीं चाहता था। जीवन से मुझे विरक्ति हो गयी। मरने के लिए जंगल गया। पर मरने का साहस मुझमें नहीं था। भूख से तडपता हुआ एक कुएँ के किनारे बैठा रहा। तभी वहाँ आये एक पुण्यात्मा के कपडों की और आहार पदार्थों से भरी गठरी की चोरी चालाकी से की। उन आहार पदार्थों को खाकर पेट भर लिया। तब से मुझे लगने लगा कि चोरी करके आराम से जिन्दगी काट सकूँगा। मुझे लगा कि यह कोई ज़रूरी नहीं है कि ज़िन्दगी गुजारने के लिए काम किया जाए। उस दिन ले लेकर मैं छोटी-मोटी चोरियाँ करने लगा। कल व्यापारी के घर में सेंघ लगाते हुए पकड़ा गया।'' आंसू बहाते हुए चोर ने बताया।
‘‘अगर तुम्हें जीने का कोई रास्ता मिल जाए तो क्या चोरियाँ करना छोड़ दोगे?'' राजा ने पूछा।

‘‘जन्म भर चोरियाँ करूँगा ही नहीं प्रभु'', आंसू पोंछते हुए चोर ने कहा। ‘‘इन दस दिनों में तुमने जिन-जिन लोगों की भी जो चोरी की, उन्हें उनको लौटा दो और उनसे माफ़ी मांगो। तब तक सैनिक तुम्हारे ही साथ रहेंगे। इसके बाद किसी रोज़गार का इंतज़ाम मैं कर दूँगा।'' राजा ने आश्वासन दिया।
उस फैसले को सुनकर सभी सभासदों ने तालियाँ बजायीं।
‘‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है प्रभु,'' कहता हुआ चोर सैनिकों के पीछे-पीछे गया।
राजा सुनील ने गुरु की बातों का स्मरण करते हुए तृप्ति के साथ सिर हिलाया।
वेताल ने कहानी समाप्त की और राजा से पूछा, ‘‘राजन्, एक तरफ़ राजा कहते रहे कि अपराधी को अवश्य दंड मिलना चाहिये और दूसरी तरफ़ चोर के अपराध को माफ़ कर दिया। यह क्या आपको अस्वाभाविक व विचित्र नहीं लगता? क्या इससे यह साफ़ नहीं हो जाता कि अगर चोर असली राज़ खोल दे तो अपमानित होने के भय से राजा ने उस धोखेबाज़ चोर को माफ़ कर दिया और उसे रोज़गार दिलाने का आश्वासन भी दिया।
‘‘जिस चोर के हाथों राजा खुद ठगा गया, उसे माफ़ करना क्या न्यायसंगत है? क्या यह न्याय व धर्म कहलायेगा? इससे क्या देश में अपराधों की संख्या में तीव्र वृद्धि नहीं होगी? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े -टुकड़े हो जायेंगे।''

राजा विक्रमार्क ने कहा, ‘‘जो अपराधी है, उसे निस्संदेह दंड भुगतना ही पड़ेगा। परंतु हमें इस तथ्य को भुलाना नहीं चाहिये कि दंड का उद्देश्य अपराधी में परिवर्तन ले आना है। हमें मालूम हो जाता है कि जेल में चोर ने राजा को पहचाना, उसमें परिवर्तन का क्रम शुरू हो गया। चोर होते हुए भी उसने जो भी कहा, राजा ने उसका विश्वास किया, क्योंकि चोर को अपनी ग़लतियों पर पछतावा होने लगा। उसमें अपने को सुधारने की तीव्र इच्छा जगने लगी। राजा का यह कर्तव्य बनता है कि चोरी के मूल कारणों को वह जाने और उन कारणों को मिटा दे,जिससे चोर को चोरी करने का अवसर ही नहीं मिले। इसी सत्य को दृष्टि में रखते हुए आदर्श शासक सुनील ने चोर को सुधरने का मौक़ा दिया। अब रही, राजा के चोर से ठगे जाने की बात को राज़ ही रखने की बात। उन्होंने इस डर से चोर से यह नहीं कहा कि इससे उसकी जगहँसाई होगी या उसका अपमान होगा, निरादर होगा। वे चाहते थे कि परोपकार के बारे में गुरु ने जो कहा, उसका पूरा-पूरा पालन वे केवल स्वयं ही न करें बल्कि उनके देश के नागरिक भी करें। इसके पीछे उनका आशय यही था। ऐसी स्थिति में राजा का स्वयं परोपकार करते हुए ठगे जाने की बात लोगों को मालूम हो जाए तो जनता में परोपकार के प्रति विश्वास नहीं रह जायेगा। ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो, इसी उदात्त आशय से प्रेरित होकर राजा ने चोर के सामने शर्त रखी कि वह उस विषय को गुप्त ही रखे।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब होकर फिर से पेड़ पर जा बैठा ।
(आधार ‘मंजु भारती' की रचना)

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