Saturday, July 2, 2011

रसराजा रसिक राजा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास लौट आया। पेड़ पर से शव को उतारा और अपने कंधे पर डाल लिया। फिर यथावत् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, इस भयंकर श्मशान में अपने लक्ष्य को साधने के लिए कठोर परिश्रम कर रहे हो। क्या कभी तुममें यह संदेह उत्पन्न नहीं हुआ कि यह लक्ष्य पूरा होगा या नहीं? जो परिश्रम तुम कर रहे हो, वह अंततः निरर्थक तो नहीं हो जायेगा? रसराजा नामक कवि के विषय में वीरांग नामक राजा ने जो व्यवहार किया, वह अर्थहीन लगता है। अपनी थकावट दूर करते हुए उनकी कहानी मुझसे सुनो।'' फिर वेताल उनकी कहानी यों सुनाने लगाः

वीरांग सिंधु देश का शासक था। कविता में उसकी विशेष अभिरुचि थी। अच्छी से अच्छी कविताएँ सुनने के लिए विजयदशमी के दिन देश भर के बड़े-बड़े कवियों को अपने यहाँ निमंत्रित करता था और उनका सम्मान भी करता था। चूँकि अच्छी और बुरी कविता के फ़र्क को वह जानता नहीं था इसलिए वह महामंत्री को आदेश देता था कि आस्थान के कवियों से परामर्श करे और निर्णय ले। सम्मानित कवियों की कविताओं को सुनते हुए राजा को लगता था कि इन कविताओं में कोई ऐसी विशिष्टता नहीं, जिसके लिए उन कवियों की प्रशंसा की जाए। आस्थान कवि भी उन कविताओं को नीरस, अपरिष्कृत व दिशाहीन ठहराते थे। इसका एक प्रबल कारण भी था। उनका समझना था कि अगर वे उत्तम कवि घोषित किये जायें तो उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ेगा। इसलिए जिन कवियों को वे चुनते थे, उनकी प्रतिभा भी साधारण होती थी।
दो साल के बाद वीरांग ने महामंत्री को बुलाकर कहा, ‘‘दिन व दिन हमारे देश में कविता का स्तर गिरता जा रहा है। इसका कारण क्या हो सकता है?''
‘‘प्रभु, आपने कितने ही महान काव्यों का अध्ययन किया। हमारे आस्थान कवियों से बढ़कर कवि आज हमारे देश में नहीं रहे। आपसे किये जानेवाले सम्मान नयों को ही प्रोत्साहन देते हैं, जो महान कविता को जन्म नहीं दे सकते,'' महामंत्री ने कहा।
राजा वीरांग सोच में पड़ गया। अंतःपुर में जाने के बाद इसी विषय पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए राजा ने रानी से कहा, ‘‘सारहीन कविताओं को प्रोत्साहन देना और उन कवियों का सम्मान करना व्यर्थ है न?''
महारानी ने ‘‘न'' के भाव में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘हज़ार सालों में सूर्य की कांति क्या क्षीण हो जाती है? अगर क्षीण भी हो जाए तो क्या हम यह जान पायेंगे? मेरा तो विचार है कि महान कवि सभी कालों में होते हैं। परंतु उन्हें पहचान सकनेवाले प्रभु कुछ कालों में ही होते हैं।''
रानी की बातों पर आश्र्चर्य प्रकट करते हुए राजा ने कहा, ‘‘तुम्हारी उपमा स्वयं एक महान कविता लगती है। मैं अब तक जानता ही नहीं था कि मेरी रानी इतना अच्छा बोल सकती है, इतने अच्छे विचार रखती है। अगर मैंने देश के महान कवियों को नहीं पहचाना तो, ग़लती मेरी है। पहले मुझे तुम्हारा ही सम्मान करना होगा।''

रानी ने तुरंत कहा, ‘‘प्रभु, मेरी बातें अगर आपको महान लग रही हों तो आपको मेरा नहीं, मेरी परिचारिका नीला का सम्मान करना चाहिये, क्योंकि ये वाक्य उसीके हैं।''
वीरांग ने और चकित होते हुए कहा, ‘‘मेरे देश की एक परिचारिका इतने उत्तम भाव प्रकट कर सकती है, इसकी मुझे बेहद खुशी है। कहो तो सही, किस सिलसिले में उसने ये बातें कहीं।''
‘‘दो दिन पहले मैं नीला से बात कर रही थी। उससे कह रही थी कि जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे मेरी सुंदरता क्षीण होती जा रही है। उसने यह मानने से इनकार कर दिया और कहा कि हज़ार सालों के बाद भी सूर्य का तेज क्षीण नहीं होता, अगर क्षीण भी हो जाए तो हम जैसे साधारण जनों को यह मालूम नहीं पड़ता।'' रानी ने कहा।
वीरांग ने परिचारिका नीला को बुलवाया और उसकी खूब प्रशंसा की। वह घबराती हुई बोली, ‘‘प्रभु, कमल जन्म लेता हो तो इसका श्रेय कीचड़ को नहीं जाता। कमल यद्यपि ब्रह्मा का आसन है, पर वह सृष्टिकर्ता नहीं बन सकता। ब्रह्मा ने वेदांतों की रचना की, पर वे पूजा की योग्यता नहीं रखते। उसी प्रकार मैंने जो सूक्तियॉं बतायीं, वे मेरी नहीं हैं। एक महीने पहले रसराजा नामक एक महाकवि हमारे नगर में आये और हमारे घर में रह रहे हैं। जो-जो सूक्तियॉं मैंने बतायीं, उन्हीं के मुँह से मैंने सुनीं।''
इन विवरणों पर आश्चर्य प्रकट करते हुए राजा ने कहा, ‘‘वे रसराजा केवल एक महाकवि ही नहीं हैं, महान पंडित भी लग रहे हैं। उनसे कहना कि मैं तुरंत उनसे मिलना चाहता हूँ।''
नीला ने, रसराजा को राजा का संदेश सुनाया। उन्होंने हँसकर कहा, ‘राजा से बताना कि मुझे उनका संदेश मिल गया। मेरे कानों को जब चलना आयेगा, तब अवश्य उनसे मिलूँगा।''
नीला जब यह बात महाराज को बता रही थी, तब महारानी भी वहाँ थी। उसकी समझ में नहीं आया कि रसराजा कहना क्या चाहते हैं। तब राजा वीरांग ने रानी से कहा, ‘‘ऐसा कहने का उनका मतलब है कि मैं स्वयं उनके पास आऊँ और उन्हें बुलाऊँ।'' फिर उसने नीला से कहा, ‘‘उनसे पूछकर बताना कि मैं उनसे कब मिल सकता हूँ।''

नीला ने जब रसराजा से यह बात कही तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं दिन भर लिखता रहता हूँ। रात में मेरे पास समय हैलेकिन तब मैं लोगों को अपनी कविताएँ सुनाता हूँ । राजा से बताना कि उनसे मिलने के लिए मेरे पास समय नहीं है।''
नीला की इन बातों को सुनने के बाद राजा एकदम नाराज़ हो उठा। उसने कटु स्वर में नीला से कहा, ‘‘उनसे बता दो कि कल ही रसराजा को मुझसे मिलना होगा।'' नीला ने यह भी रसराजा को बता दिया। थोड़ा भी विचलित हुए बिना उन्होंने कहा, ‘‘जिन्हें मैं चाहता हूँ, उनसे मैं मिलता हूँ। इस विषय में मुझे पूरी स्वतंत्रता है। इसके लिए मुझे सज़ा दी जाए तो यह दुष्टता है।''
राजा स्तंभित रह गया। नीला कुछ कहते-कहते रुक गयी। वीरांग ने यह भांप लिया और उससे पूछा, ‘‘हम दोनों के बीच में तुम दूत का काम कर रही हो। कहीं तुम असुविधा तो महसूस नहीं कर रही हो?''
नीला ने फ़ौरन कहा, ‘‘प्रभु, ऐसी कोई बात नहीं है। आप रसिक राजा हैं। रात में रसराजा अपनी कविता सबको सुनाते हैं। उस समय बहुरूपिया बनकर वहाँ आइये और उनकी कविता सुनिये, बशर्ते आपको सही लगे?''
राजा वीरांग को नीला का यह सुझाव सही लगा। वह रात को महारानी से बताये बिना साधारण नागरिक के वेष में नीला के घर गया।
रसराजा के काव्य पठन को देखते और सुनते हुए वह मंत्रमुग्ध रह गया। उसे लगा कि वे निस्संदेह ही महाकवि हैं। श्रोता एक-एक करके अपने संदेहों को व्यक्त करते थे और रसराजा बड़ी ही दक्षता के साथ उनके संदेहों की निवृत्ति करते थे। राजा ने जान लिया कि यह व्यक्ति असाधारण पंडित भी है। अपने संदेहों को दूर करने के उद्देश्य से राजा खड़ा हो गया, पर उसकी समझ में नहीं आया कि पहले क्या पूछा जाए।
तब रसराजा ने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा, ‘‘सत्यान्वेषण के लिए संकोच करना नहीं चाहिये। अपना संदेह निस्संकोच व्यक्त करो।''
‘‘हमारे राजा वीरांग ने उत्तम कवियों के सम्मान की प्रथा शुरू की। आपकी कविता व पांडित्य असामान्य हैं। फिर भी, आपको राजा का सम्मान उपलब्ध नहीं हुआ। क्या आप इसका कारण बता सकते हैं?'' राजा ने पूछा ।

‘‘राजा ने सोचा होगा कि मेरी कविता और पांडित्य राज सम्मान पाने के योग्य नहीं हैं,'' रसराजा ने कहा।
‘‘हमारे राजा ने आपकी कविता सुनी नहीं होगी। आप एक बार राजा से मिलेंगे तो अच्छा होगा।'' वीरांग ने कहा।
रसराजा ने हँसते हुए कहा, ‘‘सम्मान पाने की इच्छा मुझमें पैदा होती तो अवश्य राजा के पास जाता और उनसे कहता, ‘‘महाराज, मेरा सम्मान कीजिये, पर अब तो राजा ही मेरा सम्मान करने के लिए उतावले हैं। इसलिए, अच्छा यही होगा कि खुद आयें और अपनी इच्छा प्रकट करें।''
रसराजा की बातें सुनकर वहाँ उपस्थित सब लोग हँस पड़े। वीरांग का चेहरा विवर्ण हो गया। उसने धीमे स्वर में कहा, ‘‘शासक कितने ही कामों में फंसे हुए होते हैं। आप ही का उनके पास जाना न्यायसंगत और उचित होगा।''
‘‘ऐसे व्यस्त राजा कैसे जान पायेंगे कि कौन उत्तम कवि है?'' रसराजा ने पूछा।
‘‘यह जिम्मेदारी संभालने के लिए महामंत्री और आस्थान कवि मौजूद हैं। आप उनसे मिलिये।'' वीरांग ने सलाह दी।
रसराजा ने पुनः हँसते हुए कहा, ‘‘आपके कहने का यह मतलब हुआ कि मैं खुद जाकर उनसे मिलूँ और कहूँ कि महोदय, मैं उत्तम कवि हूँ, मेरा सम्मान कीजिये। ऐसी स्थिति में मैं कवि नाम मात्र के लिए हूँ, उत्तम कवि नहीं हूँ। किसी से मांगकर लेना दान कहलाता है। हमारे राजा सम्मान को दान के रूप में दे रहे हैं।''
वीरांग कुछ कहे बिना वहाँ से चुपचाप चला गया। दूसरे दिन उसने महामंत्री से कहा, ‘‘सुना है कि महारानी की परिचारिका नीला के घर में रसराजा नामक एक महाकवि अतिथि बनकर रह रहे हैं। आप और आस्थान कवि जाकर उनसे मिलिये और उनकी प्रतिभा के बारे में आवश्यक जानकारी प्राप्त करके आइये।''
महामंत्री और आस्थान कवियों ने राजा की आज्ञा का पालन किया। लौटने के बाद महामंत्री ने राजा से मिलकर कहा, ‘‘प्रभु, हमारे आस्थान कवियों का मानना है कि रसराजा की कविता में कोई शक्ति नहीं है, वह सारहीन है। वह सर्वथा राज सम्मान के लिए अयोग्य है।''


महामंत्री की बातों ने वीरांग को क्रोधित कर दिया, पर अपने क्रोध को प्रकट न करते हुए कहा, ‘‘रसराजा की कविता मैंने स्वयं सुनी और मैं मंत्रमुग्ध हो गया।'' फिर जो हुआ, उसने सविस्तार बताया। शर्म के मारे सब आस्थान कवियों ने सिर झुका लिया और क्षमा मांगी।
राजा ने मंत्री को इस प्रकार देखा, मानों वह जानता चाहता हो कि ऐसा क्यों हुआ। तब मंत्री ने विनयपूर्वक कहा, ‘‘प्रभु, मैंने सदा आस्थान कवियों के अभिप्रायों पर विश्वास किया। मैं ताड़ नहीं पाया कि वे इतने स्वार्थी हैं।''
मंत्री की बातों से शांत राजा जब अंतःपुर में प्रवेश कर रहा था तब परिचारिका नीला महारानी से कह रही थी, ‘‘महारानी, रसराजा कवि, महाराज के दर्शन करना चाहते हैं। वे मेरे द्वारा इसके लिए महाराज की अनुमति मांग रहे हैं।'' राजा ने नीला की ये बातें सुनीं और उससे कहा, ‘‘मैं स्वयं आकर उनसे मिलूँगा और उन्हें आमंत्रित करूँगा।''
वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद कहा, ‘‘राजन्, यह स्पष्ट है कि कवि रसराजा आवश्यकता से अधिक अहंभावी है। मानता हूँ कि वह सर्वथा सम्मान के योग्य है, पर इसके लिए उसका चयन नहीं हुआ, यह ग़लती हो सकती है। पर स्वयं जाकर उसे आमंत्रित करने के पीछे राजा का उद्देश्य क्या है? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘रसराजा स्वाभिमानी है न कि दुरहंकारी। उसकी इच्छा यही थी कि आस्थान कवियों के कुतंत्रों का पर्दाफाश हो और राजा उनकी असलियत को जानें। रसराजा ने ठीक ही कहा, सम्मान का अर्थ दान नहीं है, वह एक गौरव है। इस वास्तविकता को राजा अंतिम क्षणों में ही समझ पाये, इसीलिए राजा ने स्वयं उन्हें आमंत्रित करने का निर्णय लिया। वीरांग केवल राजा ही नहीं बल्कि रसिकराजा हैं।''
राजा को मौन भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार ‘‘वसुंधरा'' की रचना)





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