Saturday, July 2, 2011

समाधान

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, "राजन्, मैं यह नहीं जानता कि किस प्रकार की समस्या के समाधान के लिए इतना परिश्रम कर रहे हो। हो सकता है कि तुम अपने राज्य की किसी समस्या के समाधान के लिए इतनी कठोर साधना कर रहे हो। विज्ञ माने जानेवाले कुछ व्यक्तिगण सरल काम को भी जटिल बना देते हैं। उस महाराज शूरसेन और उस गुरु की कहानी तुम्हें सुनाऊँगा, जिन्होंने दुष्ट अग्रज को हटाकर अनुज को राज्याधिकार सौंपने की समस्या को अनावश्यक ही जटिल बना दिया। हो सकता है तुम्हारी भी समस्या कुछ वैसी ही हो। ध्यान से सुनो।" फिर वेताल उनकी कहानी यों सुनाने लगा:

अवंति के राजा शूरसेन सुयोग्य शासक थे। जनता उन्हें बहुत चाहती थी। वज्रसेन, विक्रमसेन उनके दो पुत्र थे। वृद्धावस्था में राज्य की जिम्मेदारियाँ उनसे संभाली नहीं जा सकीं, अतः बड़े बेटे वज्रसेन को राज्याधिकार सौंपा और वानप्रस्थ स्वीकार करके पत्नी समेत पास ही के अरण्य में चले गये।
वज्रसेन पिता की ही तरह सुचारु रूप से राज्य-भार संभालने लगा। उसके सुशासन में प्रजा सुखी थी। गुरुकुल में जब वह शिक्षा प्राप्त कर रहा था, तब सहपाठी मणिधर को वह बहुत चाहता था। वे दोनों घने दोस्त थे। इसलिए वज्रसेन ने मणिधर की बहन से विवाह किया। मणिधर भी बहन के साथ अवंति राज्य में आया और स्थायी रूप से वहीं बस गया। धीरे-धीरे उस राज्य को हस्तगत करने की इच्छा उसमें तीव्रतर होती गयी। इसलिए उसने वज्रसेन की अच्छाई का फायदा उठाया। उसमें विलास के प्रति उसकी आसक्ति जगा दी और शासन की ओर से उसका मन हटा दिया। फिर उसकी जिम्मेदरियाँ स्वयं संभालने लगा। राज्य के प्रमुख और अधिकारी उसी के द्वारा राजा को अपना सन्देश भेजने लगे। राजा के स्थान पर वही निर्णय देने लगा। क्रमशः वज्रसेन का शासन पर वश नहीं रहा। मणिधर ने एक-एक करके सभी अधिकारों को अपने हाथ में ले लिया।
चूँकि राजा का अधिकार मणिधर के हाथ में आ गया, इसलिए स्वार्थी अधिकारी उसके तलवे चाटने लगे। उसकी प्रशंसा करने लगे और मासूम प्रजा को लूटने लगे। राज्य में अनीति बढ़ती गयी। राज्याधिकारी धनवान बनते गये। व्यापारी और साधारण प्रजा नाना प्रकार के कष्ट सहने लगे।
नगर के प्रमुख इस दुःस्थिति को सह नहीं पाये। वे राजा से इसकी शिकायत करने आये, पर मणिधर ने उन्हें रोका। उन्हें राजा तक नहीं जाने दिया। नगर के प्रमुखों ने मणिधर को राजा का अन्तरंग मित्र समझकर उसकी बात मान ली। उनके प्रयत्न असफल हो गये। वे सब विक्रमसेन से मिले और अपने कष्टों को दूर करने की याचना की। अग्रज को सिंहासन से हटाकर स्वयं राजा बनने के लिए उन्होंने उसे प्रोत्साहित किया। पर विक्रमसेन ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

कोई और चारा न पाकर वे वृद्ध राजा शूरसेन से मिले और अपना दुखड़ा सुनाया। उन्होंने उससे कहा भी कि वे विक्रमसेन को राजा बनायें और उन्हें इन पीड़ाओं से उबारें।
उनकी दुःस्थिति को जानने के बाद राजा शूरसेन ने अपनी अशक्तता बताते हुए उनसे बताया, "ऐहिक बंधनों से दूर मैं वानप्रस्थ का जीवन बिता रहा हूँ। ऐसी अवस्था में मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता। आप लोग कुछ और समय तक प्रतीक्षा कीजिये। आपकी समस्या का समाधान होगा।"
यद्यपि उन्होंने नगर के प्रमुखों को सन्तुष्ट करके भेज दिया था फिर भी अपने राज्य की समस्या सुनकर चिन्तित हो उठे। शूरसेन ने इस विषय पर खूब सोचा-विचारा। पुरप्रमुखों की इच्छा के अनुकूल करना धर्म विरुद्ध है। हो सकता है, इससे और नयी समस्याएँ उत्पन्न हो जायें। इसलिए दूसरे ही दिन वे गुरु के आश्रम में गये, जिनसे उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। समस्या पर प्रकाश डाला और सही मार्ग दर्शाने की विनती की।
गुरु ने कहा, "अवंति की प्रजा के कष्टों के बारे में मैंने भी सुनाहै । तुम्हारे दोनों पुत्र सद्गुण संपन्न हैं। परंतु वज्रसेन का सहपाठी मणिधर दुष्ट है। इन अनर्थों के मूल में वही है। पंद्रह दिनों के अंदर इस समस्या का समाधान ढूँढ़ेंगे। तुम निश्चिंत होकर जाओ," यह कहकर उन्हें भेज दिया।
दूसरे दिन गुरु वज्रसेन से मिलने स्वयं गये। अपने गुरु के आने का समाचार पाते ही वज्रसेन ने अपने सभी कार्यक्रमों को रद्द किया और उनका स्वागत किया। उन्हें सिंहासन पर बिठाते हुए उसने कहा, "आपके आगमन से हम धन्य हो गये। आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूँ ।"
गुरु ने कहा, "विद्याभ्यास के पूर्ण होते ही शिष्यों से गुरु दक्षिणा स्वीकार करना चली आती हुई परंपरा है। परंतु उस दिन मैंने तुमसे कहा था कि ज़रूरत पड़ने पर मैं अवश्य ही तुमसे गुरु दक्षिणा स्वीकार करूँगा। तुम्हें याद है न?"
"कैसे भूल सकता हूँ, गुरुवर। बताइये, आप क्या चाहते हैं? इसी क्षण मैं उसका प्रबंध करूँगा।" वज्रसेन ने विनयपूर्वक कहा।
"वादा करने के बाद कहीं मुकर तो नहीं जाओगे," गुरु ने कहा।
"मैं जानता हूँ कि वादा करने के बाद उससे मुकर जाना मृत्यु समान है। निस्संकोच माँगिये," वज्रसेन ने दृढ़ स्वर में कहा।

"अपना अवंति राज्य गुरु दक्षिणा के रूप में मेरे सुपुर्द कर दो," गुरु ने माँगा।
उनकी इच्छा को जानकर क्षण भर के लिए वज्रसेन अवाक् रह गया। पर दूसरे ही क्षण अपने को संभालते हुए उसने कहा, "ऐसा ही होगा, गुरुवर। आपकी इच्छा के अनुसार ही यह राज्य..." कुछ और कहने ही वाला था कि मणिधर ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, "ठहरिये महाराज। यह आपके वंश की संपत्ति है। उसे गुरु दक्षिणा के रूप में देना सर्वथा अनुचित है। आपके गुरु को चाहिये तो वे माँगे, धन, मणियाँ, मोती, पशु, खेत या कुछ और माँगे।"
"नहीं, ऐसा करूँगा तो अपने वचन से मुकरनेवाला कहलाऊँगा। इससे मेरे वंश की अप्रतिष्ठा होगी।" फिर गुरु की ओर मुड़ते हुए उसने कहा, "आपकी इच्छा के अनुसार मेरे राज्य को गुरु दक्षिणा के रूप में स्वीकार कीजिये।"
"तुम्हारी गुरु भक्ति असमान व असाधारण है, वज्रसेन। शासन के पालन में तुम्हारी थोड़ी भी श्रद्धा होती तो यह परिस्थिति नहीं आती। इस दुष्ट मणिधर ने तुम्हें गुमराह किया। प्रजा को इसने अनेक कष्ट दिये। प्रजा का कुशल-मंगल ही प्रभुओं के लिए अलंकार है।" फिर उन्होंने अपने दो शिष्यों को बुलाकर उनके कानों में कुछ कहा।
शिष्य जंगल गये और शूरसेन महाराज को राजधानी ले आये। उनके आते ही गुरु ने कहा, "राजन्, वज्रसेन ने अवंति राज्य को गुरु दक्षिणा के रूप में मेरे सुपुर्द कर दिया। अब मैं तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ। इसमें किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है। अब तुम्हें राज्य को दो भागों में विभाजित करना है, जिनके राजा होंगे, तुम्हारे दोनों पुत्र। इससे प्रजा के कष्ट दूर हो जायेंगे। आशा करता हूँ कि इससे दोनों राज्यों में शांति स्थापित होगी और अब सब का कल्याण होगा।"
दोनों भाइयों ने सहर्ष गुरु के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। शूरसेन ने गुरु की आज्ञा के अनुसार राज्य को दो भागों में विभक्त किया और आश्रम लौटे।

वेताल ने इस कहानी को सुनाने के बाद कहा, "राजन्, जब प्रजा ने विक्रमसेन से विनती की कि वह अपने बड़े भाई के विरुद्ध विद्रोह करे और सिंहासन पर स्वयं आसीन हो, तब उसने इनकार किया। फिर इसके बाद पिता की आज्ञा के अनुसार आधे राज्य को स्वीकार किया। उसने ऐसा क्यों किया? यह साबित हो चुका था कि वज्रसेन असमर्थ व व्यसनी है, फिर भी उसे आधा राज्य देना विज्ञता कहलायेगी? जिस शूरसेन ने कहा था कि मैं ऐहिक बंधनों से छुटकारा पाकर वानप्रस्थ में जीवन बिता रहा हूँ। ऐसी स्थिति में मेरा हस्तक्षेप करना अनुचित होगा और होगा, धर्म विरुद्ध। ऐसी स्थिति में उसका गुरु के आश्रम में जाना कहाँ तक उचित है? राज्य को दो भागों में विभाजित करके दोनों भाइयों को सौंपना कहाँ तक न्याय संगत है? क्या यह उनके पक्षपात का ज्वलंत उदाहरण नहीं? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।"
विक्रमार्क ने कहा, "राज्याधिकार वंशानुगत विरासत है। बग़ावत करके उसे अपने वश में करने से हो सकता है, अराजकता फैल जाए और वह बुरी प्रथा बन जाए। इसीलिए विक्रमसेन ने पुरप्रमुखों की विनती को स्वीकार नहीं किया। पर बाद में गुरु, भाई और पिता की इच्छा का पालन करते हुए आधे राज्य को स्वीकार कर लिया। यह उसने किया, प्रजा के क्षेम के लिए। स्वभाव से वज्रसेन भी अच्छा व्यक्ति था, इसीलिए उसने पिता की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसने यह भी सोचा कि साले को दूर रखने से वह भी सन्मार्ग पर चल पायेगा और भाई की ही तरह सुशासन चला पायेगा। यह कहना ठीक नहीं होगा कि वानप्रस्थ आश्रम से लौटे राजा ने फिर से राज्य को स्वीकार किया और जिस राज्य को गुरु ने उससे स्वीकार करने के लिए कहा, उसे दो भागों में विभाजित करके दोनों भाइयों में समान रूप से बांटा। उसने प्रजा के क्षेम को ही सर्वोत्तम माना, इसीलिए उसने ऐसा किया। इसमें उसके स्वार्थ का सवाल ही नहीं उठता। प्रजा क्षेम को सर्वोपरि मानकर राजा और गुरु ने सबकी सम्मति पाकर समस्या का समाधान किया और वे दोनों धन्यवाद के पात्र हैं।"
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा। (आधार प्रभाकर की रचना)

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