
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा; उसे कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, "राजन्, मैं तो यह नहीं जानता कि तुम किस की सहायता करने के लिए, किस की बातों का विश्वास करके इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो। परंतु, मेरा अनुभव कहता है कि जिन्हें हम विज्ञ मानते हैं, वे अपनी ही बातों में बारंबार हेर-फेर कहते रहते हैं और उन्हीं बातों के विरुद्ध सलाह देते रहते हैं और मेधावियों को भी भ्रम में डाल देते हैं। इस प्रकार वे उन्हें ग़लत रास्ते पर ले जाते हैं। मैं तुम्हें एक ऐसे गुरु की कहानी सुनाऊँगा, जिन्होंने पारस्परिक विरोधी सलाहें देते हुए अपने एक विवेकी शिष्य को गुमराह किया। थकावट दूर करते हुए उस गुरु की कहानी सुनो।" फिर वेताल उस गुरु की कहानी यों सुनाने लगाः
अरावली पर्वत श्रेणी के पाद तल में गुरु ज्ञान भास्कर एक गुरुकुल चला रहे थे। पाँच सालों में एक बार वे देश में पर्यटन करते थे और अपने पुराने शिष्यों से मिला करते थे। उनके कुशल-मंगल के बारे में जानकारी प्राप्त करते थे और साथ ही देश की स्थिति को प्रत्यक्ष देखते थे। यह उनकी आदत थी। एक बार जब वे लौट रहे थे, तब मार्गमध्य में उन्होंने बारह साल की उम्र के एक गड़रिये को देखा, जो अकेले बैठे ताल पत्रों को ध्यान से पढ़ रहा था। पशु हरे-भरे मैदान में चर रहे थे। उस बालक को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। वे वहीं रुककर यह दृश्य देख रहे थे।

इतने में एक आवाज़ आयी, "अरे काली चरण, आ जाना। तेरी माँ का भेजा मांड पी लेना," यह सुनते ही वह बालक ताल को पत्थर के नीचे रख उस दिशा की ओर भागता हुआ गया, जहाँ से यह आवाज़ आयी थी। गुरु भी उसके पीछे-पीछे गये।
कुएँ के बग़ल में बैठकर बाप-बेटे ने मांड पी लिया। इतने में पिता की दृष्टि गुरु पर पड़ी तो उसने कहा, "हमने तो पूरा मांड पी लिया। थोड़ा बचा लेते तो अच्छा होता। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा।" कहते हुए वह ताल के पेड़ पर चढ़ गया और फल तोड़कर ले आया। फिर फलों से गूदा निकाला और खड़े गुरु को दिया।
गुरु ने गूदा खाते हुए कहा, "तुम्हारे बेटे पर सरस्वती की कृपा है। पर तुमने तो उसे गड़रिये का काम सौंप दिया। ऐसा क्यों किया?"
"उसे पढ़ाने की मेरी तीव्र इच्छा है स्वामी। किंतु हमारे कुल में लोग तो भेड़-बकरियाँ चराने का काम करते हैं; कोई गुरु इसे अपना शिष्य बनाकर ले जाए तो कितना अच्छा होता। ऐसे गुरु थोड़े ही मिलेंगे।" पिता ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा।
गुरु ने अपने गुरुकुल के बारे में उसे बताया और कहा, "अपने बेटे को मेरे साथ भेजो। निःशुल्क उसे पढ़ाऊँगा।"
विद्याभ्यास पूरा करके वहाँ से जाने के पहले गुरु ने कालीचरण से कहा, "देखो कालीचरण, तुम्हारा जन्म किसी कुग्रम में हुआ और आज विद्वान बनकर जा रहे हो। इसका मूल कारण है, तुम्हारी बौद्धिक शक्ति । कभी भी यह नहीं भूलना कि निरंतर श्रम के कारण ही यह संभव हो पाया है। हर मनुष्य की प्रगति और पतन के कारण होते हैं, उसके विचार और उसके काम। दुनिया में जो भी जन्म लेते हैं, उनके पंचभूत और परिसर एक ही समान होते हैं। उनका सदुपयोग करना चाहिये और प्रगति के शिखरों पर आरोहण करना चाहिए। जानते हो, यह कैसे संभव होता है? उनका परिश्रम, और संकल्प। इस सत्य को पहचानो और स्वयं परिश्रम करो, शोध करो और प्रकाश पथ पर जाते हुए दूसरों को भी राह दिखाओ। कभी-कभी आते रहना और परिणाम मुझे बताते रहना।" फिर उन्होंने आशीर्वाद देकर उसे विदा किया।
स्वग्रम पहुँचने के बाद कालीचरण ने जान लिया कि उसकी विद्या के उपयोग की गुंजाइश यहाँ नहीं है। पिता को समझाकर खेत का एक हिस्सा बेच दिया और वह रक़म लेकर शहर पहुँचा। उसे वहाँ मालूम हुआ कि वहाँ कपड़ों की बड़ी माँग है। उसने कपड़ों की एक दुकान खोली। तीन साल गुज़र गये। व्यापार ऐसे तो चल रहा है, पर लाभ नहीं के बराबर है।
"इससे बढ़कर मुझे और क्या चाहिये गुरुजी। अवश्य भेजूँगा।" कहते हुए उसने अपने बेटे की ओर देखा।
कालीचरण के मुख पर आनंद ही आनंद था। दूसरे दिन प्रातःकाल ही उसने अपने बेटे को गुरु के साथ भेज दिया।
गुरुकुल पहुँचने के बाद कालीचरण ने जी लगाकर शिक्षा प्राप्त की और युवा होते-होते उसने सभी विद्याएँ सीख लीं। उसने गणित शास्त्र और व्यापार संबंधी विषयों में विशेष रुचि दिखायी।


गुरु से मिलकर उसने उनसे यह बात बतायी तो उन्होंने कहा, "धनार्जन के लिए व्यापार राजमार्ग है। उसके लिए आवश्यक पूंजी और काम करनेवालों की बड़ी ज़रूरत पड़ती है न। यह किसी एक आदमी से संभव नहीं है। एक-दो विश्वसनीय मित्रों को भागीदार बनाओ तो तुम्हारा व्यापार फलेगा- फूलेगा।"
शहर लौटने के बाद कालीचरण ने गुरु की सलाह को लेकर खूब सोचा-विचारा। दो मित्रों से बातें कीं और उन्हें अपने व्यापार में भागीदार भी बनाया। शहर में दो और नयी दुकानें खुल गयीं। उसके व्यापार ने खूब जोर पकड़ा। शहर के सुप्रसिद्ध जौहरी ने अपनी बेटी का विवाह उससे रचाया। विवाह के अवसर पर पधारे गुरु ज्ञान भास्कर ने नूतन दंपति को आशीर्वाद दिया।
दिन बीतने लगे। कालीचरण की एक पुत्री जन्मी। शिशु का नाम रखा, अन्नपूर्णा और उसे बड़े ही लाड़-प्यार से पालने-पोसने लगा।
व्यापार की और वृद्धि के लिए कालीचरण ने भागीदारों से गहरी चर्चा की। खूब सोचने-विचारने के बाद उसने निर्णय किया कि अपने देश के श्रेष्ठ वस्त्रों को विदेशों में बेचने भेजा जाए तो अधिकाधिक लाभ कमाया जा सकता है। दूसरे महीने से ही उसने विदेशों में वस्त्रों को भेजने का काम शुरू कर दिया।
तीन महीनों के बाद, उसे मालूम हुआ कि सुवर्णद्वीप में इन कपड़ों की बड़ी माँग है तो उसने मूल्यवान वस्त्र एक जहाज में भेजा। साथ ही एक विश्वासपात्र गुमास्ते को भी भेजा। जब जहाज सुवर्णद्वीप के निकट पहुँच रहा था तब बहुत बड़ा भूकंप आया। भूकंप के कारण सुनामी आया और जहाज उलट गया। मालूम भी नहीं हो पाया कि आख़िर जहाज है कहाँ।

इस समाचार ने कालीचरण को हिला डाला। जिन भागीदारों ने उस समय तक उसके साथ घनी मैत्री निभायी, इस घटना के बाद वे उससे शत्रु की तरह व्यवहार करने लगे। इस दुःस्थिति कारण उसने मन की शांति भी खो दी। और वह हमेशा उदास रहने लगा।
उस समय गुरु ज्ञान भास्कर देशाटन पर थे। उस दौरान वे कालीचरण को देखने आये। उसकी दुःस्थिति पर उन्होंने दया दिखायी। उसे तसल्ली देते हुए उन्होंने कहा, "कालीचरण, ऐसे समय में धैर्य रखना चाहिये। जीवन में जीत-हार स्वाभाविक हैं। एक बार एक भील युवक बरगद की शाखा पर बैठकर कबूतरों की जोड़ी को अपने बाण का निशाना बनाने के लिए तैयार बैठा था। मादा कबूतर ने यह देख लिया और उड़ जाने के लिए नर कबूतर को संकेत किया । पर, नर कबूतर ने उसे उस बाज़ को दिखाया, जो उन्हें उड़ा ले जाने के लिए आकाश में घूम रहा था। उसने मादा कबूतर से कहा, "घबराओ मत। इस विपत्ति से बचने के लिए केवल भगवान से प्रार्थना कर सकते हैं। सिवा इसके कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इतने में भील युवक ने बाण छोड़ते हुए एक सांप पर अनजाने में पैर रखा, जिसने उसे डस लिया। वह ज़मीन पर गिर गया। वह बाण कबूतरों के ऊपर से होते हुए सीधे बाज़ को लगा, जिसके कारण वह मरकर ज़मीन पर गिर गया। यों कबूतर बच गये। देख लिया न, मरण की विपत्ति में फंस जाने के बाद भी नर कबूतर के धैर्य ने उसे बचाया। इसलिए तुम भी धैर्य रखो, सहनशील बने रहो। समय करवट लेगा। ऐसी कोई काली रात नहीं जिसके अन्त में भोर की किरण नई आशा लेकर नहीं आती। हर बदली के बाद चाँदनी छिटकती है। तुम्हारी स्थिति में भी अवश्य सुधार आयेगा। प्रतिकूल हवा जब चलती है तब मोथे की तरह सर झुकाना ही पड़ता है। सब कुछ काल के अधीन है। हम केवल निमित्त मात्र हैं।"

कहानी कह चुकने के बाद वेताल ने विक्रमार्क से पूछा "राजन्, गुरु ज्ञान भास्कर ने कालीचरण को उपदेश दिया था," जीवन में सफलता के लिए चाहिये परिश्रम और संकल्प। परन्तु अंत में एक चिड़िये की कहानी सुनाकर बताया कि सब कुछ समय के अधीन है। विधि बलवान है, यह कहते हुए उन्होंने शुष्क वेदांत का सहारा लिया। क्या यह विचित्र और एक-दूसरे के विरोधी नहीं लगते? क्या अनुभव ने उन्हें यही पाठ सिखाया? अथवा वृद्ध होने कारण उनमें उत्पन्न निराशा या उदासीनता इसके कारण हैं? उनके दो अभिप्रायों में से कौन-सा अभिप्राय सच्चा है। कौन-सा असत्य है? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे।"
विक्रमार्क ने कहा, "गुरु ज्ञान भास्कर की बातों में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है, उन्होंने कालीचरण को पहले और अंत में जो बताया, वे दोनों ही संपूर्ण सत्य हैं। मनुष्य के प्रयत्न व परिश्रम के बिना, किसी भी प्रकार की प्रगति साध्य नहीं। विधि लिखित मानकर चुप बैठ जायेंगे तो कुछ भी नहीं होगा। ऐसा करने पर दरिद्रता और बढ़ेगी। उन्होंने अपने प्रथम उपदेश में कहा था कि युवा हृदयों के लिए प्रयत्न और परिश्रम प्राण शक्ति समान हैं। उसी प्रकार जीवन की यात्रा में ऐसी बाधाएँ उपस्थित होंगी, जिनका सामना साहस के साथ करना चाहिये। पहले इनकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते।"
"परिस्थितियाँ हमेशा मनुष्य के अधीन नहीं होतीं । ऐसी स्थिति में, हमें सहनशील होना चाहिए और भगवान पर विश्वास रखना चाहिये। यही विषय उन्होंने अंत में बताया। दोनों ही परामर्श सत्य हैं, परंतु कब किस प्रकार से इनका उपयोग करना चाहिये, यह मनुष्य की विज्ञता और विवेक पर निर्भर करता है।"
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार-मंजु भारती की रचना)

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