Sunday, July 3, 2011

नाग देवता

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर डाल यथावत् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, तुम्हारी दीक्षा प्रशंसनीय है। शायद संसार में तुम एकमात्र व्यक्ति हो, जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मर-मिटने में भी नहीं झिझकता। परंतु मुझे लगता है कि तुम्हारी यह दीक्षा फलीभूत नहीं होगी। धर्मांगद को ही उदाहरण के रूप में ले लो। जब फल उसके हाथ आया, उसने उसे अपने हाथों से फिसल जाने दिया। कहीं तुम भी ऐसी मूर्खता करोगे तो कहीं के नहीं रहोगे। तुम्हारी यह तपस्या व्यर्थ ही रह जायेगी। तुम्हें सावधान करने के लिए उसकी कहानी तुम्हें बताने जा रहा हूँ। ध्यान से सुनो।’’ फिर वेताल धर्मांगद की कहानी यों सुनाने लगाः


धर्मांगद और विश्वनाथ दीर्घकाल से घने दोस्त थे। पर उनकी मैत्री की परीक्षा भूषण के रूप में हुई।
भूषण धोखेबाज़ था। धोखे से भरे पत्रों की सृष्टि करने में वह पटु था। उसने ऐसे एक पत्र की सृष्टि की, जिसमें लिखा गया कि धर्मांगद ने अपने खेत उसके पास गिरवी रखकर उससे तीन हज़ार अशर्फियॉं कर्ज में लीं। फिर उसने धर्मांगद को ख़बर भिजवायी कि तुरंत उसका कर्ज़ चुकाया न जाए तो उसका खेत वह अपने अधीन कर लेगा।

धर्मांगद तुरंत न्यायाधिकारी से मिलाऔर उसने भूषण के धोखे से उसे बचाने की विनती की। न्यायाधिकारी ने इसपर खूब सोचने के बाद कहा, ‘‘किसी भी अपराध की जांच-पड़ताल किये बिना निर्णय लेना उचित नहीं है। मैं भली-भांति जानता हूँ कि तुम अच्छे स्वभाव के हो और भूषण धोखेबाज़ है। पर जांच-पड़ताल तक भूषण को रोकना हो तो तुम्हें एक हज़ार अशर्फियॉं जमानत के रूप में रखनी होंगी । साथ ही किसी को तुम्हारी जमानत देनी होगी।’’

तब धर्मांगद के पास धन नहीं था। फिर भी वह नहीं घबराया। गॉंव भर में उसका अच्छा नाम था, इसलिए उसे लगा कि अवश्य ही कोई न कोई कर्ज़ देगा। पर लोगों को जब मालूम हुआ कि उसका खेत उसके हाथों से शायद छूटनेवाला है तो कोई भी कर्ज़ देने आगे नहीं आया।

धर्मांगद को विश्वास था कि ऐसी परिस्थिति में विश्वनाथ अवश्य ही उसकी सहायता करेगा। पर, उसी वक्त विश्वनाथ का पिता बहुत बड़ी बीमारी का शिकार हो गया। इसी बीच उसकी बहन की शादी भी तय हो गई। विश्वनाथ ने अंदाजा लगाया कि आवश्यक खर्च के लिए कम से कम पॉंच-छे हज़ार अशर्फ़ियों की ज़रूरत पड़ेगी।
वह इन्हीं कोशिशों में लगा हुआ था। ऐसे समय पर भूषण उससे मिला और बोला, ‘‘मैं तुम्हारी मदद करने को तैयार हूँ। पर तुम्हें भी मेरी मदद करनी होगी।’’
विश्वनाथ को लगा कि अब दोस्ती से बढ़कर है, ज़रूरत। उसने धर्मांगद के विषय में ज़मानत देने से साफ़-साफ़ इनकार कर दिया। धर्मांगद को कहीं भी कर्ज़ नहीं मिला। फलस्वरूप खेत भूषण का अपना हो गया।


तब धर्मांगद, भूषण से भी अधिक विश्वनाथ पर क्रोधित हुआ। पहले उसने सोचा कि विश्वासघाती विश्वनाथ को मार डालें। परन्तु सोचने पर उसे लगा कि भला इससे क्या फ़ायदा होगा। उसे हत्यारा ठहराकर फांसी की सज़ा सुना दी जायेगी। यदि वह अपना प्रतिकार लेने के लिए उसे जी भर पीटेगा, उसके हाथ-पॉंव तोड़ेगा तब भी तो लोग यह कहकर उससे घृणा करेंगे कि वह दुष्ट है, नीच है।

धर्मांगद की समझ में नहीं आया कि विश्वनाथ से कैसे बदला लिया जाए। इसलिए गॉंव के बाहर की एक गुफ़ा में रहनेवाले एक बैरागी से वह मिला और अपना दुख़ड़ा सुनाया। सब लोग कहते थे कि वह चमत्कार करने की शक्ति रखता है। बैरागी ने, धर्मांगद का दुखड़ा सुना और फिर कहा, ‘‘स्वार्थ के वश में आकर विश्वनाथ ने समय पर तुम्हारी मदद नहीं की, इसलिए वह तुम्हारा सच्चा दोस्त नहीं है। चूँकि उसने तुम्हारी मदद नहीं की, इसलिए तुम उसे हानि पहुँचाना चाहते हो। इसलिए तुम भी अच्छे दोस्त नहीं हो।’’

‘‘स्वामी, अपकार किया है विश्वनाथ ने, मैं उसे हानि पहुँचाना नहीं चाहता। बस, बदला लेना चाहता हूँ। इसके लिए मुझे आपकी सहायता चाहिये,’’ धर्मांगद ने कहा।
‘‘अब तुम्हारे मन में प्रतिकार की भावना भरी हुई है। सॉंप के विष की ही तरह प्रतिकार भी मनुष्य के लिए विषैला है। मैं विषैले प्राणियों की मदद नहीं करता। तुम प्रतिकार की भावना छोड़कर आओगे तो फिर बातें करेंगे।’’ बैरागी ने स्पष्ट कह दिया।

‘‘स्वामी, मेरे मन से प्रतिकार की यह भावना हट जाए, इसके लिए भी आप ही कोई मार्ग सुझाइये। इस प्रतिकार का उद्वेग मुझसे सहा नहीं जा रहा है।’’ धर्मांगद ने कहा। बैरागी ने कहा, ‘‘तो सुनो! मैं तुम्हें सर्प के रूप में बदल सकता हूँ। तब तुम्हारा प्रतिकार विष के रूप में परिवर्तित हो जायेगा और तुम्हारे मस्तिष्क में प्रवेश करेगा। जब तुम उस विष के प्रभाव से बाहर आ जाओगे, तब फिर से मानव बन सकोगे। जब तक तुम सांप बने रहोगे तब तक तुममें पूर्व ज्ञान रहेगा,पर बुद्धि तो सांप ही की होगी। परंतु हॉं, जब तुम्हें उस रूप में रहते समय कोई मार डालेगा तो उसी रूप में मर जाओगे।’’ धर्मांगद ने अपनी सहमति दे दी। बैरागी ने उसे सांप बना दिया।


सांप के रूप में परिवर्तित धर्मांगद, वहॉं से रेंगता हुआ खेतों की ओर बढ़ता गया। उस समय एक किसान खेत में खड़ा होकर लाठी से मिट्टी हटा रहा था । वह लाठी सांप की पूँछ से जा लगी।

सॉंप नाराज़ हो उठा और फन फैलाकर फुफकारने लगा। तब तक किसान वहॉं से जा चुका था। फुफकार सुनकर बगल की झाड़ियों में से एक सांप बाहर आया और धर्मांगद से कहने लगा, ‘‘मुझे इस बात का डर हुआ कि तुम उस आदमी का पीछा करोगे और डँस दोगे । याद रखना, आदमी हमें देखेगा तो हम ख़तरे में पड़ जायेंगे।’’ सांप - धर्मांगद ने उस सांप से अनेक विशेष बातें जानीं। उसकी बातों से उसे मालूम हुआ कि सिर में जो विष भरा हुआ होता है, उसका उपयोग सांप आत्म-रक्षा मात्र के लिए करते हैं। मानव के द्वारा जो भी हानि पहुँचायी जाती है, उससे अगर प्राण ख़तरे में नहीं पड़ता हो तो वे उस मानव को कोई हानि नहीं पहुँचाते। सांपों में प्रतिकार की भावना नहीं होती।

धर्मांगद को भी यही सच व सही लगा। फिर भी वह सोचता रहा कि विश्वनाथ उसका दुश्मन है और उसे डँसना चाहिये। तब वह मर जायेगा और मुझे इसके लिए कोई दंड नहीं दिया जायेगा।

धर्मांगद यों सोचकर, सबकी नज़रों से बचते हुए विश्वनाथ के घर पहुँचा। घर के एक कमरे में छे साल की उम्र का विश्वनाथ का बेटा गुड़ियों से खेल रहा था। उसने सांप-धर्मांगद को देख लिया और डर के मारे ‘‘सांप सांप’’ कहकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा।

धर्मांगद के मन में विचार आया कि उस बालक को डँस लूँ और विश्वनाथ को पुत्रशोक का शिकार बना दूँ । पर उसे लगा कि उस मासूम बच्चे को डँसना पाप है। वह वहॉं से तेजी से रेंगता हुआ पूजा मंदिर में गया।

इतने में घर के सब लोग विश्वनाथ के बेटेे के पास पहुँच गये। उसकी बात सुनकर सबके सब पूजा मंदिर में आये। उन्होंने देखा कि सांप- धर्मांगद फन फैलाकर वहॉं खड़ा है। ‘‘नाग देवता है।


आंखें बंद करके नमस्कार करो। किसी को भी वह हानि नहीं पहुँचायेगा। आज से हमारी सब तक़लीफें दूर हो जायेंगी, प्रार्थना करो कि दुष्टों की वजह से तुम्हारे मित्र धर्मांगद पर जो विपदा आयी, वह भी बर्फ़ की तरह गल जाए। नागदेवता हमारी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे।’’ विश्वनाथ की मॉं कहने लगी। इन बातों को सुनकर सांप-धर्मांगद चौंक उठा। उसने बहुत कोशिश की, पर उसमें प्रतिशोध की भावना पैदा नहीं हुई।

‘‘छी, इस विष से मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचा, व्यर्थ है,’’ यों सोचते हुए उसने अपने दांतों से पूजा मंदिर को जोर से काटा। इससे जैसे ही विष बाहर आ गया, सांप का रूप मिट गया और वह फिर से धर्मांगद बन गया। वे सब आंखें खोलें, इसके पहले ही धर्मांगद उनके बीच में आकर खड़ा हो गया।

विश्वनाथ ने थोड़ी देर बाद आंखें खोलीं और बग़ल में ही खड़े धर्मांगद को देखकर चकित रह गया। तब धर्मांगद ने कहा, ‘‘दोस्त, तुम्हारी ज़रूरत ने जो काम तुमसे करवाया, उसके कारण मेरा खेत छिन गया। इतनी सी बात के लिए मैं तुम्हारी दोस्ती खोने को तैयार नहीं हूँ।’’

यह सुनकर विश्वनाथ और उसके परिवार के सब सदस्यों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह जानकर गांव के लोगों ने भी धर्मांगद को बहुत सराहा। इससे दुष्ट भूषण में भी परिवर्तन आया और उसका खेत उसे वापस कर दिया।


वेताल ने विक्रमार्क को कहानी सुनाने के बाद कहा, ‘‘राजन्, विश्र्वनाथ, धर्मांगद का जिगरी दोस्त था, पर जब वह तक़लीफों में फंस गया, उसने उसकी सहायता करने से इनकार कर दिया। ऐसे मित्रद्रोही से बदला लेने के लिए धर्मांगद ने बैरागी का आश्र्रय लिया और सांप बना। है न? पूजा मंदिर में, जिस दोस्ती के बारे में उसने बढ़ा-चढ़ाकर कहा और सांप बनकर उसने जो व्यवहार किया, वे मेल नहीं खाते। मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे, तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।’’

विक्रमार्क ने कहा, ‘‘मनुष्यों की तरह ही पशु-पक्षियों में भी प्रकृति के प्रभाव के कारण एक सहज स्वभाव होता है। मनुष्यों में साधारणतया जो अनुमान होते हैंै, उनके अनुसार उसने भी सोचा कि सांप दुष्ट स्वभाव के होते हैं, इसीलिए वह भी बदला लेने पर आमादा हो गया। बैरागी भी उसे बता चुका था कि वह सांप होकर भी पूर्व ज्ञान नहीं खोयेगा, पर उसकी बुद्धि सांप की होगी। धर्मांगद की मुलाक़ात संयोगवश एक और सांप से हुई। उस सांप ने उसे बताया कि सांप के सिर में जो विष होता है, उसका उपयोग वह केवल आत्म-रक्षा के लिए ही करता है, वह प्रतिकार लेना नहीं जानता। उस समय, बुद्धि के विषय में, सांप बने धर्मांगद को लगा कि यह आचरणीय है। इसमें संदेह नहीं कि विश्वनाथ और धर्मांगद जिगरी दोस्त हैं।

अकस्मात् कष्टों में फंसे धर्मांगद ने विश्वनाथ से सहायता मांगी और यह सहज है। पर उस समय पिता के अनारोग्य और बहन की शादी के कारण विश्वनाथ दोस्त की सहायता कर नहीं पाया। पर धर्मांगद उसकी मजबूरी को समझने में बिफल हुआ और बदला लेने का निश्र्चय किया। पूजा मंदिर में सांप को देखते ही विश्वनाथ की मॉं ने जो बातें कहीं, उनसे उसकी आँखें खुल गयीं। वह जान गया कि सच्चाई क्या है। वह अपनी ग़लती जान गया, इसीलिए उसने विश्वनाथ को नहीं डँसा।’’
राजा के मौन-भंग में सफल, वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और पेड़ पर जा बैठा।

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