Saturday, July 2, 2011

शिवालय

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और उसे कंधे पर डाल लिया। फिर यथावत् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, इस घोर अंधकार में कहॉं जाने का तुम्हारा इरादा है? तुम्हें क्या अपने गम्य स्थल की जानकारी है? यह क्यों भूल जाते हो कि वहाँ अब तक तुम पहुँच ही नहीं पाये? तुम्हें देखकर मुझे संदेह होता है कि तुम शाप ग्रस्त हो, इसीलिए लक्ष्यहीन होकर घूम-फिर रहे हो। अब ही सही, संभल जाओ, सही मार्ग चुनो, अथवा तुम्हारी भी वही दुस्थिति होगी, जो शिव नामक एक युवक की हुई।
वह सद्गुण संपन्न था, असाधारण साहसी था, भय उससे भागता था। इन गुणों से लैस उसने एक महान कार्य भी किया। परंतु बुद्धिहीन होकर, अहंकार के नशें में चूर होकर उसने उसका फल खो दिया। जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तुम इतना अथक परिश्रम कर रहे हो, उसके फलस्वरूप अगर वह तुम्हारे हाथ आ जाए तो उसे कहीं जाने न दो, इसलिए मैं तुम्हें सावधान करने हेतु उस युवक शिव की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। ध्यान से सुनना।'' फिर वेताल शिव की कहानी यों सुनाने लगाः

सुगंधिपुर नामक गाँव के निकट एक ऊँचे पर्वत पर एक सुविशाल मंदिर था। परंतु गाँववालों को यह ज्ञात नहीं कि उस मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान कौन हैं। इसका एक कारण भी है। उस पर्वत के शिखर तक पहुँचने का कोई मार्ग नहीं था। वह प्रदेश विषैले सर्पों तथा कांटों की झाड़ियों से भरा पड़ा था।
उस गाँव में शिव नामक बीस साल की उम्र का एक युवक रहा करता था। जब से उसने होश संभाला, भक्तों की कहानियाँ सुना करता था। फिर इसके बाद, पढ़ने-लिखने में भी उसने पर्याप्त अभिरुचि दिखायी। वह अक्लमंद तो था ही, इससे भी बढ़कर वह असाधारण साहसी था। बचपन से ही पर्वत पर के मंदिर और उसमें प्रतिष्ठित भगवान को देखने की उसकी अदम्य इच्छा थी। एक दिन उसने अपनी माँ से अपने मन की इच्छा बतायी। वह एकदम घबराती हुई बोली, ‘‘बेटे, यह दुस्साहस मत करना। हमारे गाँव के शिवालय के बैरागी ने भी वहाँ जाने का दुस्साहस किया। उसी प्रयत्न में उन्होंने अपनी एक आँख खो दी।''
दूसरे ही दिन शिव, बैरागी से मिला। उससे मंदिर जाने की अपनी इच्छा भी प्रकट की। तब बैरागी ने शिव की भुजा को थपथपाते हुए कहा, ‘‘उस पर्वत शिखर पर पहुँचना कोई असाध्य कार्य नहीं है। मैं भी वहाँ तक जा पाया, किन्तु एक क्रोधी यक्ष के शाप के कारण एक आँख खो दी। परंतु वहाँ तक जाने का उपाय तुम्हें बता सकता हूँ। फिर तुम्हारा भाग्य तुम्हारा साथ देगा तो परिणाम अच्छा होगा।''
शिव ने माँ से यह बात छिपा रखी कि वह बैरागी से मिला। एक हफ्ते के बाद एक दिन सबेरे वह मंदिर जाने के लिए निकल पड़ा। महाशिव के प्रिय बेल के पत्तों को साथ लेकर वह निकला। बैरागी के कहे अनुसार ही एक चट्टान पर महाशिव का रूप नक्काशा हुआ था। शिव के रूप को उसने प्रणाम किया और बेल के पत्तों को भगवान के चरणों पर थोड़ी देर तक रखने के बाद उन्हें अपने सिर पर रख लिया। इन पत्तों की महिमा के कारण न ही कांटे चुभते हैं और न ही विषैले सर्प पास आते हैं। यह रहस्य बैरागी ने बड़ी ही साधना के बाद जाना और शिव को बताया।

दुपहर तक शिव आधे पर्वत तक चढ़ गया। इतने में उसने पत्थर पर छेनी से शिल्प नक्काशने की आवाज़ सुनी। शिव ने उस ओर मुड़कर देखा कि कोई देवता पुरुष छेनी से शिवलिंग को नक्काश रहा है। वह मूल्यवान वस्त्राभूषणों से सुसज्जित था। परंतु बीच-बीच में उस पत्थर में दरारें पड रही थीं। शिव जान गया कि यह वही यक्ष है, जिसका जिक्र बैरागी ने किया था। वह धीरे-धीरे यक्ष के पास गया और विनयपूर्वक नमस्कार किया।
देवता पुरुष ने सिर उठाकर शिव को क्रोध-भरे नेत्रों से देखा और कहा, ‘‘तुमने एक साधारण मानव होकरमेरे पास आने की हिम्मत कैसे की? जानते नहीं, मैं यक्ष देवता हूँ। तुम्हारी ही तरह एक बैरागी भी मेरे पास आया और मेरे हाथों शाप-ग्रस्त हुआ। तुम जैसे मानव यहाँ न पहुँचें, हमारी पूजाओं में खलल न डालें, इसीलिए हमने पर्वत मार्ग को दुर्गम कर दिया। फिर भी, तुम यहाँ कैसे पहुँच पाये? जानते नहीं, इसी वजह से उस बैरागी ने एक आँख खो दी।''
शिव ने निडर होकर कहा, ‘‘यक्षोत्तम, जिस बैरागी को आपने शाप दिया, उन्होंने ही मुझे यह भी बताया कि यक्ष शिव का कितना अनादर कर रहे हैं, कितना बड़ा अपचार उनसे हो रहा है। बहुत पहले एक आदिवासी पर्वत पर शिकार करने आया था और लिंग के आकार के एक बड़े पत्थर को देखकर उसने उसे प्रणाम किया और फूलों से पूजाएँ कर शिव, महाशिव कहते हुए नतमस्तक होकर प्रार्थनाएँ करने लगा। आप यक्षों ने यह देखा और उससे कहा, ‘‘अरे ओ मूर्ख, पत्थर की पूजा कर रहे हो और जप रहे हो शिव का नाम। यह बड़ा ही अपचार है ।'' कहते हुए उन्होंने पत्थर को फोड़ डाला और उसे वहाँ से भगा दिया। शिव कुछ और कहने ही जा रहा था कि यक्ष ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘जिन यक्षों के बारे में तुम बता रहे हो, मैं भी उनमें से एक था।"

मेरा नाम यशोधन है। इससे भी अधिक मुख्य विषय एक और है। जिस आदिवासी को हमने यहाँ से भगाया, उसके दूसरे ही क्षण गंभीर स्वर में महाशिव ने कहा, ‘‘तुम लोगों ने मेरे मासूम भक्त को सताया, यहाँ से भगाया और ऐसा करके बड़ा अपराध किया। यही नहीं, मेरे जिस रूप की वह पूजा कर रहा था, उसे फोड़ ड़ाला। अतः तुम लोगों का यह धर्म बनता है कि पर्वत पर मेरे एक मंदिर का निर्माण करो और उस मंदिर के गर्भगृह में एक ऐसे शिव लिंग को प्रतिष्ठित करो जिसमें कोई लोप न हो। मेरे किसी निःस्वार्थ भक्त से ही यह संभव हो सकता है। तब तक तुम लोग इस पर्वत को छोड़कर अपना लोक नहीं जा सकते।''
शिव ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा, ‘‘यक्षोत्तम, क्या ऐसे लिंग को बनाना कठिन काम है, जिसमें कोई लोप न हो?''
अपनी असहायता जताते हुए यक्ष ने कहा, ‘‘हाँ, हमने देवालय का निर्माण तो कर दिया, पर लगता है, लोपहीन शिवलिंग को बनाना असाध्य कार्य है। देख रहे हो न, इस शिव लिंग के बीच में दरारें पड़ रही हैं।''
शिव थोड़ी देर तक भगवान शिव के उस शिव लिंग को देखता रहा, जिसे यक्ष तराश रहा था। फिर उसने हाथ जोड़कर भगवान शिव से कहा, ‘‘हे महाशिव, भक्तिपूर्वक पूजा करनेवाले साधारण मानव हैं हम। हमारे गाँव के ही नहीं, बल्कि कितने ही भक्त आपकी पूजा करने, आपकी सेवा करने के लिए तड़प रहे हैं। किसी के हस्तक्षेप के बिना आप स्वयं मंदिर में प्रतिष्ठित हो जाइये।''
दूसरे ही क्षण दरारों से भरा वह शिवलिंग कांति से जगमगा उठा और देखते-देखते वह वहाँ से अदृश्य होकर गर्भगृह में प्रतिष्ठित हो गया।
शिव और यक्ष तुरंत मंदिर की ओर दौड़े। पर्वत पर जितने भी यक्ष थे, वहाँ आ पहुँचे और सबने मिलकर शिवलिंग का अभिषेक किया।
बाद यक्ष यशोधन ने अन्य यक्षों को शिव के बारे में बताया। फिर उसने शिव से कहा, ‘‘महाशिव के प्रति तुम्हारी भक्ति अपार है। हम यक्षों का यहाँ रह जाना समुचित नहीं है, शास्त्र सम्मत भी नहीं है। तुम महाशिव की प्रीति के पात्र हो। अब से शिवालय की देखभाल की जिम्मेदारियाँ तुम्हें ही संभालनी होगी।''

शिव ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘आप के इस आदर के लिए आपका मैं कृतज्ञ हूँ। आपने जिस मंदिर का निर्माण किया, उसमें प्रतिष्ठित भगवान शिव के दर्शन का भाग्य सब मानवों को प्राप्त हो। जिस बैरागी ने आपके शाप की वजह से एक आँख खोयी, उन्हें फिर से दृष्टि प्रदान कीजिये। परंतु मैं मंदिर की जिम्मेदारियाँ संभाल नहीं सकता। जाने की अनुमति दीजिये।'' कहता हुआ वह निकल पड़ा।
वेताल ने कहानी बता चुकने के बाद राजा विक्रमार्क से कहा, ‘‘राजन्, यक्ष मंदिर में शिव लिंग को प्रतिष्ठित नहीं कर सके, पर वह काम शिव ने कर दिखाया। मंदिर की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए उससे कहा गया, पर उसने उनकी इस इच्छा का तिरस्कार किया। मंदिर में शिवलिंग के प्रतिष्ठित होते ही क्या वह अपने को बहुत बड़ा मानने लगा? या उस अवसर पर उसकी बुद्धि शिथिल पड़ गयी? कहीं उसमें स्वार्थ ने घर तो नहीं कर लिया? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘शिव बचपन से ही भक्तों की कहानियाँ सुनता था, शिक्षा में रुचि थी, इसी कारण वह पर्वत पर चढ़ पाया, जहाँ जाने में अन्य लोग डरते थे। वहाँ उसकी निस्वार्थ भक्ति के कारण ही शिवलिंग का प्रतिष्ठापन हुआ। उसकी आँखों के सामने ही घटी इस अद्भुत घटना से उसमें भक्ति भावना और बढ़ गयी। आध्यात्मिक विषयों को और गहराई से जानने की उसमें प्रबल इच्छा जगी। मंदिर की देखभाल की जिम्मेदारी से अधिक यह उसके लिए मुख्य बन गया। ऐसी भक्ति की प्रवृत्ति से पूर्ण मानवों में बुद्धि की शिथिलता या स्वार्थ होते ही नहीं। महाशिव को देखने की इच्छा एक महोन्नत तड़प है, आवेश है। मंदिर में शिव के दर्शन के बाद वहाँ से उसका चला जाना आध्यात्मिक शिखरों का अधिरोहण है। मानव कल्याण के साथ जुडा हुआ उत्तम प्रयास है।''
राजा के मौन भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार सुभद्रा देवी की रचना)


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