
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि किससे बदला लेने के लिए आधी रात को इस भयानक श्मशान में घूम-फिर रहे हो और यों परिश्रम कर रहे हो। परंतु देखा गया है कि कुछ लोग आवेश में आकर बदला लेने पर तुल जाते हैं और जब आवेश ठंडा पड़ जाता है, तब वे उसे भुला देते हैं। मैं जानता हूँ कि तुम उस व्यक्ति की तरह नहीं हो लोगों ने जिसका मज़ाक उड़ाया, जिसकी अवहेलना की, उनके बीच रहना जिसे पसंद नहीं, इसलिए उसने गाँव छोड़ दिया, पर फिर कुछ समय के बाद उन्हीं के बीच रहने का उसने निर्णय किया। एक ऐसे ही व्यक्ति अकाल की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। थकावट दूर करते हुए उसकी कहानी सुनो।'' फिर वेताल उसकी कहानी यों सुनाने लगाः
सभ्य समाज से दूर अन्नवर नामक एक सुदूर गाँव में अकाल रहता था। कृषि ही उस गाँव के निवासियों का जीवनाधार था। वे अलग ही प्रकार की विचित्र फसलें उगाते थे। सवेरे से लेकर शाम तक वे कड़ी मेहनत करते थे। पास ही के पहाड़ों से वे कंद मूल फल इकठ्ठा करते थे और खाते थे।

उनका मानना था कि उनके स्वस्थ होने का यही कारण है। उनका यह दावा भी था कि इन्हीं फसलों के कारण उनकी शारीरिक स्थिति इतनी अच्छी है। इस गाँव भर में अकाल ही एक ऐसा व्यक्ति था, जिसे ये फसलें और ये खाद्य पदार्थ बिलकुल पसंद नहींथे ।
अकाल को बचपन से ही पढ़ना-लिखना बहुत पसंद था। इनमें उसकी पर्याप्त अभिरुचि थी। मंदिर के पुजारी से श्लोक आदि सीखता था। मंदिर में सुरक्षित ताल पत्रों को पढ़ते हुए समय बिताता था। अकाल ऐसा तो नाटा नहीं था, पर अन्य ग्रमीणों के सामने वह बिलकुल छोटा दिखता था।
हमेशा किसी सोच में पड़ा रहता था और उसके संदेह बड़े ही विचित्र होते थे। कोई अगर पूछे कि क्यों यों बेकार बैठे रहते हो तो वह कहता रहता था कि अगर आदमी खाने के लिए ही ज़िन्दा रहे तो मनुष्य में और पशु में फर्क ही क्या है।
ऐसी कई विद्याएँ हैं, जिन्हें मनुष्य को सीखना चाहिये। कुछ लोग उसे देखते ही हँस पड़ते थे। कुछ और लोग उसका मज़ाक उड़ाते थे। अकाल कुछ समय तक चुपचाप यह सहता रहा, पर जब वह अठारह साल का हो गया, तब उसने पिता से साफ़-साफ़ कह दिया कि मुझे इस गाँव में नहीं रहना है।
तब पिता ने हँसते हुए कहा, ‘‘गाँव बदलकर कहीं और जाने से कोई फायदा नहीं, बदलना है तुम्हें अपने आपको ।''
‘‘यहाँ के सब लोग साधारण जीवन बिता रहे हैं। अगर मैं इनके समान बन जाऊँ तो मैं सामान्य मनुष्य में बदल जाऊँगा, जो मुझे पसंद नहीं। मैं दंडकारण्य के गुरु भुजंग के गुरुकुल में विद्याभ्यास करूँगा और लौटकर गाँव को ही बदल डालूँगा। तब जाकर ग्रमीणों की प्रशंसा पाऊँगा।''
यों कहकर अकाल गाँव छोड़कर चला गया। चार दिनों के बाद जब वह दंडकारण्य के समीप पहुँचा, तब उसे एक रथ पीछे से आता दिखाई पड़ा ।
मुझे समझने में तुम लोग और मेरे गाँव के लोग एक समान लगते हैं। परंतु हाँ, तुम दोनों में फर्क इतना ही है कि वे अनपढ़ हैं और तुम महापंडित भुजंग के शिष्य हो।'' भुजंग राजधानी से लौट आये और अकाल को अपने ही गुरुकुल में पाकर चकित हुए।



रथसारथी ने अकाल से बातें कीं और विषय जानकर कहा, ‘‘महाराज ने गुरुवर भुजंग को तुरंत ले आने का हुक्म दिया है। उन्हीं के यहाँ जा रहा हूँ, रथ में चढ़ जाओ, मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूँगा।''
गुरुकुल पहुँचने के बाद अकाल भुजंग से मिला और उसने अपना आशय बताया। उन्होंने कहा, ‘‘तुम जंबकारण्य जाओ और विनय के गुरुकुल में विद्याभ्यास करो। मेरा शिष्य बनना हो तो कम से कम दो सालों तक वहाँ तुम्हें शिक्षा पानी होगी।''
‘‘गुरुवर, लगता है कि मेरी योग्यता पर आपको शक है। आप किसी भी प्रकार की परीक्षा ले लीजिये, मैं अपनी योग्यता साबित करने के लिए सन्नद्ध हूँ। बिना परीक्षा लिये मुझे जंबकारण्य जाने की आज्ञा मत दीजिये।'' अकाल ने विनती की।
भुजंग ने कहा, ‘‘मुझे अभी राजधानी जाने के लिए निकलना है। लौटने में एक सप्ताह लग जायेगा। इतने में इन दोनों ग्रंथों को अच्छी तरह से पढ़ना, उनके सार को बखूबी समझना और मेरे लौटने के बाद मुझे बताना। तुमसे अगर यह नहीं हो सकता तो विनय के पास चले जाना।'' कहते हुए उन्होंने उसे वे दोनों ग्रंथ दिये और राजधानी जाने के लिए निकल पड़े।
भुजंग के जाते ही गुरुकुल के शिष्य उसके पास आ गये और कहने लगे, ‘‘दो सालों से हम इन ग्रंथों का पठन करते आ रहे हैं। पूछने पर गुरुजी हमारे संदेहों को दूर करते आ रहे हैं, पर अब तक हम इनका सार समझ नहीं पाये। एक हफ्ते भर में इनका सार जान लेना तुम्हारे लिए असंभव है।''
‘‘ठीक है। मैं इसे एक चुनौती मानकर स्वीकार करता हूँ और अपनी योग्यता साबित करके दिखाऊँगा,'' अकाल ने कहा। इसके बाद अकाल ने उन ग्रंथों को ध्यान से पढ़ा और चार ही दिनों के अंदर उनके सार को लिख लिया।
फिर शिष्यों को उसे दिखाया। पर, बिना पढ़े ही उन्होंने उसके आत्मविश्वास को अहंभाव समझा और उसकी खिल्ली उड़ायी। अकाल ने उनकी बातों की परवाह नहीं की और दृढ़ स्वर में कहा, अपना मज़ाक उड़ाया जाना और उसे सह लेना मेरे लिए कोई नयी बात नहीं है।

ग्रंथों के उससे लिखित सार को पढ़ा और कहा, ‘‘पुत्र, तुम सचमुच ही महान हो। महापंडित भी जिन ग्रंथों के सार को समझने में असमर्थ साबित हुए, तुमने उन ग्रंथों के सार को बड़ी ही आसानी से समझ लिया। तुम्हें अपना शिष्य कहते हुए मुझे गर्व हो रहा है। यह मेरे पूर्व जन्म का पुण्य फल है।'' बहुत ही प्रसन्न होते हुए भुजंग ने कहा।
अकाल ने पूछा, ‘‘गुरुवर, क्या आप सच कह रहे हैं या मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं।'' संदेह-भरे स्वर में उसने पूछा। ‘‘सच ही कह रहा हूँ। सही समय पर तुम मेरे पास आये।'' कहते हुए उन्होंने वह सब बताया, जो राजधानी में हुआ। राजमाता अचानक बीमार पड़ गयीं।
रोग के लक्षण राजवैद्यों की भी समझ में नहीं आये। तब राजस्थान के एक कवि ने अपने पास सुरक्षित एक प्राचीन काव्य का जिक्र किया। उसकी नायिका भी उसी रोग से पीड़ित थी, जिस रोग से राजमाता पीड़ित हैं। वैद्यों ने उस रोग की दवा बतायी, जिसे तीन महीनों के अंदर ले आना था ।
धीरोदत्त नायक अथक परिश्रम के बाद उस दवा को ले आने में सफल हुआ और नायिका की रक्षा की। कवि, पंडित व वैद्यों ने उस ग्रंथ को खूब पढ़ा, पर वे उस काव्य में निर्दिष्ट दवा से संबंधित विवरणों को समझ नहीं पाये। राजा ने गुरु को ख़बर भेजी।
तत्संबंधी विवरण उनकी समझ में नहीं आये। यह कहकर वे गुरुकुल लौट आये कि वहाँ जाकर इस ग्रंथ का अध्ययन करूँगा और फिर इस विषय में प्रयत्न करूँगा। वे अपने साथ उस ग्रंथ को भी ले आये। अब अकाल की प्रतिभा को देखने के बाद उनमें विश्वास जगा।
अकाल ने उस काव्य को पढ़ा और कहा, ‘‘गुरुवर, इसमें हर पद का संबंध संगीत, साहित्य, नृत्य व वैद्य शास्त्र से है। और इनके अर्थ अलग-अलग हैं। इसी कारण आप शायद घबरा गये होंगे। दवा से संबंधित पद में बताये गये जिंसों से कषाय को तैयार करना है और राजमाता को पिलाना है।
साथ ही, पद में बताये गये राग तालों से गाते हुए उसके यथायोग्य नृत्य का प्रदर्शन राजमाता को देखना है,'' उत्साह-भरे स्वर में अकाल ने कहा। भुजंग ने भी एक और बार उस पद को पढ़ा और समझ लिया कि उसका कहा सच है।
उसने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। अकाल ने एक और बार उस पद को पढ़ने के बाद कहा, ‘‘ये सारे जिंस हमारे गाँववाले उपजाते हैं।'' आश्चर्य-भरे स्वर में अकाल ने कहा। दूसरे ही दिन भुजंग और अकाल राजधानी गये। राजा ने सिपाहियों को भेजकर अन्नवर गाँव से दवा के लिए आवश्यक जिंस मंगाया।
अकाल के कहे अनुसार इलाज किया गया। अब राजमाता बिलकुल स्वस्थ हो गयीं। राजा ने अकाल का सत्कार किया। इसके बाद अकाल ने भुजंग के गुरुकुल में और दो सालों तक रहकर सभी शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया। फिर देश भर में घूमते हुए उसने संगीत, साहित्य में प्रदर्शिनियाँ चलायीं, जिनका बड़े पैमाने पर जनता ने स्वागत किया।
इसके दो साल बाद वह स्वस्थल अन्नवर पहुँचा। वहाँ की प्रदर्शिनियों के बाद जब गाँववालों को मालूम हुआ कि अकाल अपने ही गाँव का है तो वे उससे मिले और बोले, ‘‘जैसे थे, वैसे ही हो। तुममें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इतना नाम कमाया, यह तुम्हारा भाग्य है।'' अकाल ने कहा, ‘‘आपका कहना है कि मुझमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जिसका यह मतलब हुआ कि आप अब भी बदले नहीं। आप लोगों को बदलने के लिए ही मैं यहाँ रह जाऊँगा।''

अकाल ने फिर से वही पुराना जीवन शुरू किया। उसके कामों, चेष्टाओं पर ग्रमीण अब भी पहले की ही तरह मज़ाक उड़ाते रहते हैं। पर वह उनकी परवाह नहीं करता। उनकी टिप्पणियों पर ध्यान नहीं देता। रोचक बातों व सुंदर कहानियों से वह बच्चों को आकर्षित करने लगा और उन्हें सुशिक्षित करने लगा।
उसने जो सीखा, जाना, उन्हें पढ़ाने लगा। वेताल ने अकाल की कहानी बतायी और फिर राजा विक्रमार्क से कहा, ‘‘राजन्, अकाल गाँववालों की अवहेलना और भर्त्सना सह नहीं पाया, इसलिए पिता के मना करने पर भी गाँव छोड़कर चला गया।
फिर उसी गाँव में लौटकर अवहेलनाओं के बीच रहने का निश्चय उसने क्यों किया? उसके मन की कोमलता देश भ्रमण के कारण क्या कठोर बन गयी? गाँववालों में परिवर्तन लाने के लिए वह गाँव से चला गया तो फिर खुद क्यों बदल गया?
मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी नहीं बताओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।'' विक्रमार्क ने कहा, ‘‘अपने सामर्थ्य पर जब किसी को विश्वास नहीं होता तब वे दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए लालायित होते हैं। अवहेलना और भर्त्सनाओं से डरते हैं।
दूसरे जब उनका मज़ाक उड़ाते हैं तब वे अपने को छोटा समझते हैं। जब उसकी प्रतिभा पहचानी जाती है तब वे दूसरों के अभिप्रायों की परवाह नहीं करते। जब अकाल की प्रतिभा पहचानी नहीं गयी तब वह मज़ाक उड़ानेवालों के सामने अपने को छोटा समझने लगा।
जब बड़ों ने उसकी प्रतिभा पहचानी तब वह उस स्थिति के पार हो गया। अब मज़ाक उड़ानेवालों पर उसे दया आने लगी, नाराज़ी नहीं। ग्रमीणों में परिवर्तन ले आने का लक्ष्य जैसा का तैसा बना रहा। उसे लगा कि बड़ों को परिवर्तित करने के बदले छोटों को उत्तम नागरिक बनाना सुलभ है।
इसीलिए उसने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया और यों उसने अपने को योग्य और समर्थ साबित किया।'' राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः ‘‘वसुंधरा'' की रचना)

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