
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़्र पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, इस श्मशान में भूत-प्रेत घूमते रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अद्भुत शक्तियों को प्राप्त करने के लिए इनकी भी परवाह किये बिना बेरोकटोक परिश्रम करते जा रहे हो। किसी भी प्रकार के खतरे को मोल लेने के लिए सद्ध हो। तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि ऐसी अद्भुत शक्तियों को प्राप्त करने के बाद भी सही समय पर वे काम नहीं आतीं और उल्टे वे तुम्हारे दुश्मन बनकर तुम्हारे विरुद्ध काम करने लगती हैं और तुम्हें विपत्ति में डाल सकती हैं। उदाहरण स्वरूप तुम्हें उन चार कार्यदक्षों की कहानी सुनाऊँगा, जिनके साथ ऐसा हुआ है।'' फिर वेताल उन चार कार्यदक्षों की कहानी यों सुनाने लगाः
माणिक्यपुर के वज्रों के व्यापारी पद्मनाभ की इकलौती पुत्री थी प्रत्यूषा। उसके बालिग़ हो जाने पर पद्मनाभ चाहता था कि अपने बाल्य मित्र के बेटे के साथ उसका विवाह किया जाये। किन्तु विवाह के कुछ दिनों के पहले प्रत्यूषा एक विचित्र रोग का शिकार हो गयी। वह बोल नहीं पाती और सदा अचेत स्थिति में पड़ी रहती थी। दुखी और परेशान पद्मनाभ ने कितने ही वैद्यों को बुलवाया और उसका इलाज करवाया। पर, कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अंत में कृपाल नामक सुप्रसिद्ध वैद्य ने प्रत्यूषा की परीक्षा करने के बाद कह दिया, ‘‘यह नब्ज संबंधी रोग है। इसकी चिकित्सा के लिए दशमूल नामक जड़ी-बूटी की आवश्यकता है, जो दिरसवंचपुर में उपलब्ध होती है। परंतु इस जड़ी-बूटी को ले आना असाध्य कार्य है।'' उसने लंबी सांस खींचते हुए कहा।

‘‘यह दिरसवंचपुर है कहाँ?'' वहीं उपस्थित हेमानंद ने पूछा।
‘‘पूर्वी समुद्र में सौ कोसों की दूरी पर मसूरद्वीप के मध्य यह उपलब्ध होगा। मुझे इसकी जानकारी ताल पत्रों को पढ़ने पर प्राप्त हुई है। इसके बारे में और विवरण मैं नहीं जानता।'' वैद्य ने कहा।
‘‘अपने प्राण की परवाह किये बिना मैं वहाँ जाऊँगा और उस जड़ी-बूटी को ले आऊँगा।'' हेमानंद ने दृढ़ स्वर में कहा।
‘‘उस जड़ी-बूटी को ले आने पर केवल प्रत्यूषा को ही हम बचा नहीं सकते, बल्कि ऐसे रोगों से पीडित होनेवालों की भी रक्षा की जा सकती है। तुम्हें मैं आशीर्वाद देता हूँ और भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे इस काम में तुम्हें सफल बनावें।'' वैद्य ने कहा।
हेमानंद के साथ उसका मित्र शिवनाथ और वैद्य का शिष्य संजीवराय निकल पड़्रे। यह विषय जानकर साहसप्रिय कपर्दि नामक एक और युवक ने भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की और उनकी अनुमति लेकर वह भी उनके साथ निकल पड़ा।
चारों समुद्र के तट पर पहुँचे और नाव में बैठकर समुद्र में यात्रा शुरू कर दी। पाँच दिनों तक उनकी यात्रा में कोई रुकावट नहीं आयी। छठवें दिन दुपहर को दस हाथियों के वज़न का एक तिमिंगल सामने आया और नाव को अपनी पूंछ से मारा, जिससे नाव हवा में उड़ी और दूर जाकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी। हेमानंद डूबने ही वाला था, शिवनाथ ने नाव के एक टुकड़े को उसकी ओर बढ़ाया और कहा, ‘‘इसकी सहायता से किनारे पर पहुँच जाना।''
किनारे पर पहुँचे हेमानंद, संजीव राय और कपर्दि शिवनाथ का बड़ी ही बेचैनी से इंतज़ार करने लगे, पर उसका कोई पता नहीं चला। दुःखी हो वे आगे बढ़ने लगे और तीन दिनों तक चलते रहे। तब जाकर उन्होंने पर्वत श्रेणियों को देखा और वे एक चट्टान पर बैठ गये।

थोड़ी देर बाद उन्होंने आकाश में एक विचित्र गाड़ी देखी। वे उसे देखते ही रहे। थोड़ी ही देर में वह उनके सामने आकर रुक गयी। उसमें बहुत ही वृद्ध एक व्यक्ति उन्हें दिखायी पड़ा। उन तीनों ने उस वृद्ध से पूछा, ‘‘दादाजी, आप जानते हैं, दिरसवंचपुर पहुँचने के लिए किस तरफ़ जाना है।''
‘‘वह पर्वतों के बीच में है पर वहाँ पैदल नहीं जा सकते। इस वायु शकट में यात्रा करने पर ही आप वहाँ पहुँच सकते हैं। इसके बिना कोई दूसरा मार्ग नहीं है। बचपन से ही आकाश में विचरने की मेरी प्रबल इच्छा थी। मैंने इसके लिए बहुत ही प्रयोग किये। दूर देशों से यंत्र सामग्री मँगवायी। आखिर आकाश में उड़नेवाले इस वायु शकट का निर्माण कर सका। मेरी उम्र सौ सालों से अधिक है। जीवन में किसी भी प्रकार के सुख का मैंने अनुभव नहीं किया। अभी-अभी मुझमें आशा जाग रही है। तुममें से यदि कोई अपना यौवन मुझे देने को तैयार हो, तो मैं यह वायु शकट देने को तैयार हूँ। इसमें बैठकर आप लोग दिरसवंचपुर जा सकते हैं।'' बूढ़े ने कहा।
संजीवराय अपना यौवन देने को आगे आया। हेमानंद ने उसे रोका तो उसने कहा, ‘‘अद्भुत औषधि को बनानेवाले इस यज्ञ में मैं समिधा बन जाऊँ, इससे बढ़कर भाग्य क्या और हो सकता है? मुझे रोकने की कोशिश मत करना।''
इसके बाद वृद्ध के कहे अनुसार संजीवराय ने मंत्र का पठन किया, जिससे वह वृद्ध बन गया और वह वृद्ध युवक । किन्तु वृद्ध होते ही संजीवराय बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया। अब उस युवक वृद्ध ने उन्हें वायु शकट को चलाने का उपाय बताया और कहा, ‘‘अपने मित्र के बारे मे तुम दोनों निश्चिंत रहो। उसकी देखभाल का भार मुझपर छोड़ दो।''
दोनों दोस्त संजीवराय की स्थिति को देखकर चिंतित हो उठे। पर वे कर भी क्या सकते थे। हेमानंद और कपर्दि वायु शकट से यात्रा करके दिरसवंचपुर पहुँचे। उन्होंने वहाँ देखा कि नगर की गलियों में जंतुओं के सिरों और मानव शरीरधारी विचित्र प्राणी विचार रहे हैं। उन्होंने वायु शकट को झाड़ियों में छिपा दिया और दोनों एक झोंपड़ी में घुस गये। वहाँ एक बूढ़्री ने उन्हें देखा, पर वह जान नहीं पायी कि ये कौन हैं।

‘‘दादी, हम परदेशी हैं। दशमूल नामक जड़ी-बूटी के लिए आये हैं। यहाँ जो रहते हैं, वे मानव हैं या जंतु?'' हेमानन्द ने पूछा। ‘‘जिस जड़ी-बूटी की बात तुम कर रहे हो, वह क़िले के उद्यानवन में है। जिन्हें आपने देखा, वे सब मानव ही हैं। सविस्तार कहूँ भी, तो भी मेरी पीड़ाओं को थोड़े ही तुम दूर कर सकते हो?'' उस बुढ़िया ने कहा।
‘‘दादी, बताना तो सही, इनकी ऐसी दुस्थिति कैसे हो गयी? हम कई विद्याएँ जानते हैं। जितनी सहायता हमसे हो सकेगी, हम अवश्य करेंगे।'' कपर्दि ने कहा।
‘‘हमारे देश की रानी ब्रह्मनंदिनी अद्भुत सुंदरी है। महादंभ नामक मांत्रिक उसके सौंदर्य पर मुग्ध-हो गया और राजकुमार के वेष में आकर उससे विवाह करने के लिए कहा। हमारे देश के संप्रदाय के अनुसार महारानी को जीवन पर्यंत कन्या बनकर ही रहना है। अंतिम दशा में एक और कन्या को महारानी के लिए चुनेगी। इस संप्रदाय का उल्लंघन करने पर देश की प्रजा का अहित होगा। इसलिए उसने मांत्रिक के प्रस्ताव का तिरस्कार किया। मांत्रिक क्रोधित हो उठा और अपने असली रूप में प्रकट हुआ और इस देश के सिपाहियों व वृद्धों को छोड़कर सबको उसने विचित्र रूपों में बदल दिया। अब भी उन्हें सता रहा है। वह समझता है कि ऐसा करने पर रानी उससे विवाह करने के लिए मान जायेगी। वह इसी की प्रतीक्षा में है।'' बुढ़िया ने कहा।
‘‘मांत्रिक को निर्वीर्य बनाने का क्या कोई उपाय है?'' कपर्दि ने पूछा।
‘‘अद्भुत शक्तियों से भरा एक मंत्रदंड उसके हाथ में है। सुना है कि यही उसका बल है।'' जब बूढ़ी उनसे यह बता रही थी तब मांत्रिक उनके सामने प्रत्यक्ष हो गया और पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो? यहाँ कैसे आये?''
‘‘तुम्हारे अत्याचारों का अंत करने आये वीर हैं?'' कपर्दि ने कहा।


‘‘जानते हो, मैं मांत्रिक हूँ'', कहते हुए महादंभ जब मंत्रदंड को ऊपर उठाने वाला ही था तब कपर्दि ने अपनी ध्वनि को बदलते हुए कहा, ‘‘जानते हो, मैं महा मांत्रिक हूँ।'' उसकी कंठ ध्वनि सुनकर महादंभ डर गया और उसका मंत्रदंड ज़मीन पर गिर गया। कपर्दि ने छलांग मारकर उस मंत्रदंड को अपने हाथ में ले लिया। यह देखकर मांत्रिक अवाक् रह गया।
तभी वहाँ आयी महारानी ने सैनिकों को आज्ञा दी कि वे मांत्रिक को गिरफ्तार कर लें और अपने वश में ले लें। मांत्रिक के पकड़े जाने पर महारानी बहुत प्रस हुई और उन दोनों के प्रति कृतज्ञता जतायी। उन्हें दशमूल औषधि के पौधे दिये। मंत्रदंड का नाश करने पर वहाँ की प्रजा को असली रूप मिल जाएँगे, पर कपर्दि ने कहा कि नगर की सरहद पार करने पर मंत्रदंड का नाश करूँगा।
फिर दोनों युवक उस स्थल पर गये, जहाँ उन्होंने वायु शकट को छिपाया था। नगर की सरहद पार करने के बाद हेमानंद ने उस मंत्रदंड का नाश करने के लिए कहा तो कपर्दि ने बताया, ‘‘मैंने जो जादू सीखा था, उससे महादंभ का गर्व चूर-चूर कर दिया। पर मंत्रदंड भविष्य में हमारे काम आयेगा। उसे अपने ही पास रखेंगे।'' फिर भी, सरहद पार करते ही नगर की प्रजा को उनके असली रूप मिल गये। वायु शकट से यह दृश्य देखकर हेमानंद बहुत ही खुश हुआ। उसके बाद पर्वत श्रेणियों को पार करने के बाद संजीवराय को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हेमानंद ने शकट को नीचे उतारा। वहाँ संजीवराय और शिवनाथ को देखकर वे बेहद खुश हुए ।
‘‘वह वृद्ध दयालु है। अपना मन बदलकर उसने मेरा यौवन मुझे लौटा दिया।'' संजीवराय ने कहा। ‘‘समुद्र से हम किसी और तट पर पहुँच गये, इसलिए यहाँ आने में देरी हुई'', शिवनाथ ने कहा। बाद चारों वायु शकट में बैठकर माणिक्यपुरी पहुँचे। दशमूलारिष्ट तैयार करके प्रत्यूषा को दिया गया। अब वह बिलकुल ठीक हो गयी। प्रत्यूषा का विवाह हेमानंद के साथ संप हुआ।
उस दिन की शाम को कपर्दि ने जादू की प्रदर्शिनी का आयोजन किया। कपर्दि को आशा थी कि उसकी सफलता पर लोग उसकी बड़ी प्रशंसा करेंगे और मूल्यवान भेंटें प्रदान करेंगे। वह मांत्रिक के मंत्रदंड का उपयोग करनेवाला था। पर उल्टे उस मंत्रदंड ने कपर्दि को खूब मारा पीटा। अपमानित कपर्दि ने मंत्रदंड को तोड़ डाला और शर्म के मारे वहाँ से चला गया।
वेताल ने यह कहानी कह चुकने के बाद अपने संदेह प्रकट करते हुए राजा विक्रमार्क से पूछा, ‘‘हेमानंद के साथ गये कपर्दि ने मांत्रिक को हराया और जड़ी-बूटी को पाने में उसे बड़ी सहायता पहुँचायी। मांत्रिक के मंत्रदंड का नाश किये बिना उसे अपने पास ही रखा। पर वह मंत्रदंड बाद उसके उपयोग में क्यों नहीं आया? क्या यह इस बात का पुष्टीकरण नहीं करता कि अद्भुत शक्तियों का विश्वास करने पर वे किसी दिन, कभी न कभी उल्टे उसे ही दंड देंगे। मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगेतो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे?''
राजा विक्रमार्क ने कहा, ‘‘जड़ी-बूटियों के लिए निकले हेमानंद को तीनों ने सहायता पहुँचायी। यों वे चारों के चारों कार्यदक्ष थे। हेमानंद जब पानी में डूब रहा था तब शिवनाथ ने काठ का टुकड़ा देकर उसकी जान बचायी और मैत्री धर्म निभाया।
नयी औषधि से मानव जाति की भलाई होगी, इसीलिए संजीवराय ने अपना यौवन त्याग दिया। मांत्रिक को निर्वीर्य करने के लिए चातुर्य व सामर्थ्य दिखाने में सफल हुआ कपर्दि। पर, मंत्रदंड के हाथ आ जाने पर उसमें स्वार्थ बढ़ गया और मंत्रदंड के बल पर उसने लाभ पाना चाहा। मंत्रदंड में हालांकि अद्भुत शक्तियाँ थीं, पर वह महादंभ के कंठस्वर के प्रकंपन पर ही काम करती थीं। जो उसे पाते हैं, उसी की सहायता वह करता है। जो उसका तिरस्कार करते हैं, वह उनकी सहायता नहीं करता। इसीलिए उसने कपर्दि के स्वार्थपूरित कार्यों में साथ नहीं दिया।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और पुनः पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः काशीराम शास्त्री की रचना)

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