धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः उस पुराने पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और यथावत् उसे अपने कंधे पर डाल लिया। फिर श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, रुकावटों की परवाह किये बिना अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए तुम जो अथक परिश्रम कर रहे हो, वह बहुत ही प्रशंसनीय है। जब एक लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्न किये जाते हैं, तब रुकावटों का सामना करना सहज है।
परंतु ऐसे भी प्रबुद्ध मौजूद हैं, जो लक्ष्य की सिद्धि के समय उसे अपने हाथ से फिसल जाने देते हैं। कितने ही कष्ट झेलकर मयूरध्वज की प्रेयसी उसके पास पहुँच पायी, पर उसने बडी ही अनुदारता से उसका तिरस्कार किया। अपनी थकावट दूर करते हुए उसकी कहानी सुनो ।’’ फिर वेताल मयूरध्वज की कहानी यों सुनाने लगाः मयूरध्वज अवंती राज्य का राजा था। मनोविनोद के लिए एक बार वह आखेट करने जंगल गया।
साथियों को छोड़कर वह अकेले ही जंगल में बहुत दूर चला गया। दुपहर तक वह बहुत थक गया और आराम करने एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। अकस्मात् झाडियों में से एक बाघ उसपर कूद पड़ा। बग़ल में ही रखे गये धनुष-बाणों तक पहुँचने के लिए भी उसके पास समय नहीं था। फिर भी रिक्त हाथों से उसने बाघ का सामना किया और अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसे मार डाला। इस दौरान वह बुरी तरह से घायल हो गया, और फलस्वरूप बेहोश हो गया।
उस समय स्वर्णरेखा नामक एक गंधर्व कन्या अपनी सहेलियों के साथ वहॉं आयी। मयूरध्वज का साहस देखकर वह मंत्रमुग्ध रह गयी। उसकी वीरता व भुजबल ने उसे आश्र्चर्य में डाल दिया। वह बेहोश राजा के पास आयी और बडी ही मृदुता के साथ उसका स्पर्श किया। देखते-देखते राजा के सारे घाव भर गये और वह उठकर बैठ गया। स्वर्णरेखा उसके नवमन्मथ रूप को देखकर उसपर रीझ गयी और उसे एकटक देखने लगी। तब उसने देखा कि राजा भी पलक मारे बिना उसे ही देखता जा रहा है।
लज्जा के मारे उसने सिर झुका लिया। राजा भी उसके अद्भुत सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। दोनों ने आपस में बातें कीं, एक-दूसरे के बारे में विवरण जाने। ‘‘राजन्, मैं हृदयपूर्वक आपसे प्रेम करती हूँ। अगर आप सहमत हों तो गांधर्व विवाह करने के लिए मैं सन्नद्ध हूँ।’’ मुस्कुराते हुए स्वर्ण रेखा ने मधुर वाणी में कहा। राजा ने उसके प्रस्ताव पर खुश होते हुए कहा, ‘‘मैं भी तुम्हें बेहद चाहता हूँ।
परंतु मुझे लगता है कि तुम इस विषय में गंभीरता के साथ सोचे बिना कह रही हो । भूलोक में जीवन बिताना कोई आसान काम नहीं है। तुम गंधर्व लोक की सुकुमारी हो। भूलोक में तुम सुखी नहीं रह सकती हो।’’ ‘‘पति का साहचर्य ही पत्नी के लिए स्वर्ग धाम है। क्या आप जानते नहीं कि स्वर्ग धाम दिव्य लोकों से भी उत्तम है?’’ स्वर्णरेखा ने पूछा।
‘‘मैं समझता हूँ कि क्षणिक आकर्षणों में आकर तुम ऐसी बातें कर रही हो।’’ राजा ने कहा। ‘‘नहीं, मेरा प्रेम सत्य है, शाश्वत है,’’ स्वर्ण रेखा ने बल देते हुए कहा। ‘‘तुम्हारा प्रेम कितना सच्चा है, इसे जानने के लिए एक छोटी-सी परीक्षा...’’ राजा अपनी बात पूरी करे, इसके पहले ही स्वर्ण रेखा ने पूछा, ‘‘कहिये, वह परीक्षा क्या है?’’
‘‘अब तुम अपना लोक लौट जाओ। छे महीनों तक इसपर गंभीरता के साथ सोचो-विचारो। तब भी मुझसे विवाह रचाने की तुम्हारी इच्छा प्रबल रही तो अगले भाद्रपद बहुल द्वादशी के दिन यहाँ आना। देखो, उस शांभवि वृक्ष के तले तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा। तभी हमारा विवाह संपन्न होगा। क्या यह तुम्हें स्वीकार है?’’ ‘‘हाँ, हाँ, अवश्य स्वीकार है। हर हालत में आऊँगी।’’ कहती हुई वह सहेलियों के साथ वहाँ से चली गयी।
अपने लोक में पहुँचने के बाद भी, स्वर्ण रेखा, राजा मयूरध्वज को ही लेकर सोचती रही और यों छे महीने बीत गये। अपने निर्णय पर दृढ़ वह भाद्रपद बहुल द्वादशी के दिन अकेले ही भूलोक पहुँचने निकल पड़ी। मयूरध्वज के बताये शांभवि वृक्ष के समीप उसने एक मनोहर सरोवर देखा। उसमें स्नान करने के उद्देश्य से उसने अपने कंठ के महिमावान हार को निकाला और उसे पास ही की फूलों की झाड़ी में लटका दिया। फिर वह सरोवर में उतर पड़ी। वह शीतल पानी का आनंद लेती हुई अपने आप को भूल गयी। अचानक उसे लगा कि उसका शरीर रंगहीन हो गया। वह चौंक उठी और अशुभ की शंका करती हुई तुरंत सरोवर के बाहर आ गयी।
उसने सरोवर के बाहर आकर देखा कि उसके महिमावान हार को एक युवती पहनी हुई है। उसने क्रोध-भरे स्वर में उस युवती से पूछा, ‘‘तुम कौन हो? मेरे हार की क्यों चोरी की? इसे मुझे वापस दे दो।’’ ‘‘मेरा नाम कादंबरी है। शशांकपुर गॉंव की हूँ। मैंने तुम्हारे हार की चोरी नहीं की। मुझे यह दिखायी पड़ा तो मैंने ले लिया और पहन लिया। यह तो मुझे बेहद सुंदर लगा।’’ उस नादान युवती ने कहा। ‘‘कादंबरी, ऐसे आभूषणों का स्पर्श करने तक की भी तुम्हारी योग्यता नहीं है। यह गन्धर्व कन्याओं का अद्भुत शक्तियों से भरा हार है।’’ स्वर्णरेखा ने गुस्से में आकर कहा।
‘‘मुझे किसी प्रकार की अद्भुत शक्तियों की आवश्यकता नहीं है। यह आभूषण मेरे गले में शोभायमान हो तो राजा मयूरध्वज मुझसे विवाह करने से इनकार नहीं करेंगे।’’ कादंबरी ने कहा। उसकी इस बात पर स्वर्णरेखा ठठाकर हँस पड़ी और कहा, ‘‘क्या कहा तुमने? राजा मयूरध्वज तुमसे विवाह करेंगे?’’
‘‘क्यों नहीं करेंगे? इसी काम पर तो मैं राजधानी जा रही हूँ। मैंने साफ़-साफ़ कह दिया कि विवाह करूँगी तो महाराज से ही करूँगी। पर मेरे माँ-बाप और गाँव के लोग भी मेरी बात का विश्वास नहीं करते । मैं तो यह प्रतिज्ञा करके आयी हूँ कि महाराज से विवाह करके रानी बनूँगी। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी।’’
‘‘तुम्हारी प्रतिज्ञा कभी भी पूर्ण नहीं होगी। राजा और मैंने एक-दूसरे से प्रेम किया। उन्होंने मुझसे विवाह करने का वचन भी दिया। उस शांभवि वृक्ष के तले थोड़ी ही देर में हमारा विवाह संपन्न होनेवाला है।’’ स्वर्णरेखा ने कहा। यह सुनते ही कादंबरी के मन में तरह-तरह के विचार उभर आये। उसने ठान लिया कि स्वर्णरेखा उसके मार्ग में एक रुकावट है और उसका अंत ही समस्या का एकमात्र हल है। उसने कहा, ‘‘जिस हार को मैंने पहन रखा है, अगर सचमुच ही वह महिमावान हो तो इसी क्षण तुम तोती के रूप में बदल जाओगी।’’ हार का स्पर्श करते हुए उसने कहा।
बस, देखते-देखते स्वर्णरेखा तोती में बदल गयी। तदुपरांत कादंबरी ने स्वर्णरेखा का रूप धारण कर लिया और शांभवि वृक्ष के पास गयी। उसे ही सच्ची स्वर्णरेखा मानकर मयूरध्वज बहुत आनंदित हुआ और उससे विवाह रचाने उसे राजधानी ले गया। कादंबरी का विवाह मयूरध्वज से बड़े ही वैभव के साथ संपन्न हुआ। वह अवंती राज्य की रानी बनी और यों असाधारण परिस्थितियों में उसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई।
तोती में बदली स्वर्णरेखा अपनी दुस्थिति पर विलाप करने लगी। एक भील ने उसे पकड़ लिया। और उसे एक कलाबाज़ को बेच दिया। कलाबाज़ ने उसे क्रीड़ाओं में प्रशिक्षित दिया। बातें सखायीं। तोती ने अपनी दुख भरी कहानी एक दिन कलाबाज़ को सुनाई। कलाबाज़ के उसे ढाढ़स दिया।
एक राजकर्मचारी की सहायता लेकर कलाबाज़ ने राजा के दर्शन किये। उसने अपने खेल देखने के लिए राजा से अभ्यर्थना की। राजा ने इसकी अनुमति दी। कलाबाज़ के खेल देखने राजदंपति सहित, राजा के रिश्तेदार, राजकर्मचारी और नगर प्रमुख इकठ्ठे हुए।
कलाबाज़ के खेलों ने उन सबको बहुत ही आकर्षित किया। विशेषकर तोती के खेल-जिस गेंद पर वह खडी थी, उसे ठकेलना, आग के चक्रों से होते हुए दूसरी ओर जाना, कलाबाज़ के बाणों से बचकर निकलना आदिबहुत प्रभावशाली थे। तोती ने साथ ही बड़ी ही मीठी-मीठी बातें सुनायीं, चुटकुले सुनाये। राजा ने उसकी मीठी बातों पर मुग्ध होते हुए कहा, ‘‘ओ तोती, तुम्हारा प्रदर्शन अद्भुत है। माँगो, तुम्हें क्या चाहिये?’’
‘‘जो चाहूँगी, महाराज अवश्य देंगे? अपने वचन से पलट नहीं जायेंगे न?’’ तोती ने कहा। ‘‘अपना वचन अवश्य निभाऊँगा। निस्संकोच माँगो,’’ राजा ने आश्वासन दिया । ‘‘रानीजी का कंठहार चंद क्षणों तक पहनने का भाग्य मुझे प्रसादिये।’’ तोती ने कहा। राजा ने संकेत द्वारा रानी से बताया कि वह अपना कंठहार तोती को दे। परंतु स्वर्णरेखा बनी कादंबरी के दिल में भय पैदा हो गया। उसने कंठहार निकालकर तोती के गले में डाल दिया। दूसरे ही क्षण तोती स्वर्णरेखा के रूप में बदल गयी और कादंबरी अपने असली रूप में प्रकट हुई। आश्र्चर्य में डूबे राजा को स्वर्णरेखा ने पूरा वृत्तांत सविस्तार बताया। इतने में कादंबरी दौडती हुई राजभवन के ऊपर गयी और वहॉं से नीचे कूद कर मर गयी।
‘‘उस धोखेबाज को सही दंड मिला महाराज। अब मुझे अपनी रानी के रूप में स्वीकार कीजिये।’’ स्वर्णरेखा ने कहा। राजा थोड़ी देर तक सोच में पड़ गया और फिर लंबी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ़ करना। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं कर सकता। कादंबरी के धोखे का शिकार मैं ही नहीं, तुम भी बनी। हम दोनों इसके ज़िम्मेदार हैं। भूलोक में आकर तुमने बहुत कष्ट सहे। जो हुआ, भूल जाआ और अपने लोक में चली जाओ, जहाँ तुम आराम से जिन्दगी गुज़ार सकती हो।’’
राजा की बातों पर स्वर्णरेखा घबरा गयी, पर अपने को संभालती हुई उसने कहा, ‘‘जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही करूँगी।’’ यह कहती हुई वह गायब हो गयी और गंधर्व लोक लौट आई। वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद कहा, ‘‘राजन्, राजा ने सुंदरी स्वर्णरेखा का तिरस्कार क्यों किया? राजा स्वर्णरेखा से प्रेम करते हैं या नहीं? वे उससे प्रेम नहीं करते, क्या इसीलिए उससे छुटकारा पाने के लिए ही उन्होंने छे महीनों की अवधि मॉंगी? पहले ही वह उसका तिरस्कार करते तो बेचारी स्वर्णरेखा को इतने कष्ट सहने नहीं पड़ते।
मेरे इन संदेहों के समाधान को जानते हुए भी मौन रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।’’ विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दूर करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि राजा मयूरध्वज ने, स्वर्णरेखा से गाढ़ा प्रेम किया। छे महीनों की जो अवधि तय की, वह केवल स्वर्णरेखा के प्रेम की परीक्षा मात्र के लिए ही नहीं बल्कि अपने लिये भी थी।
इस अवधि में वे स्वयं अपने प्रेम की भी परीक्षा करना चाहते थे। इसपर निर्णय लेने के बाद ही वे स्वर्णरेखा से विवाह रचाने शांभवि वृक्ष के पास गये। परंतु, उसके बाद कादंबरी के रूप में दुर्भाग्य ने उनका पीछा किया। असली स्वर्णरेखा को देखने के बाद, उन्हें मालूम हुआ कि उनके साथ धोखा हुआ है। राजा को यह भी मालूम हो गया कि बाह्य सौंदर्य से आकर्षित होने के कारण ही उनकी यह दुर्गति हुई है।
यह तो विवाह बंधन का उपहास करना हुआ। वे नहीं चाहते थे कि ऐसी ग़लती फिर से दुहरायी जाए। इसी वजह से उन्होंने स्वर्णरेखा की विनती को अस्वीकार किया। यह उनकी बौद्धिक परिपक्वता व अच्छे संस्कारों का परिचायक है। इस विषय में राजा निष्कपट हैं। स्वर्णरेखा ने राजा के इन मनोभावों को जाना और गंधर्वलोक लौट गई।’’ राजा के मौन भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और पुनः पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः मनोहर शास्त्री की रचना)

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