Sunday, July 3, 2011

शरनिधि का शतरंज

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा; अपने कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, आधी रात का समय है, भयंकर सन्नाटा है, फिर भी मुझे ढोते हुए निधडक चले जा रहे हो। थकावट का नाम ही नहीं ले रहे हो। भला अपना मूल्यवान समय क्यों यों व्यर्थ किये जा रहे हो। मुझे शक होता है कि तुम्हारा परिश्रम आख़िर व्यर्थ होकर रहेगा। कुछ व्यक्ति कुछ क्रीडाओं को विशेष रूप से चाहते हैं। उनके प्रति उनका बड़ा लगाव होता है। शरनिधि शतरंज प्रिय राजा था। एक बार उसने इस क्रीडा में एक गंधर्व पर विजय भी पायी। शर्त के अनुसार जीतने पर उसे फिर से यौवन पाना था। परंतु जीतकर भी उसने यह सुअवसर हाथ से फिसल जाने दिया। उसकी कहानी सुनाऊँगा। ध्यान से सुनो,'' फिर वेताल शरनिधि की कहानी यों सुनाने लगाः

शरनिधि मधुवन का शासक था। शतरंज उसे जान से भी ज़्यादा प्यारा था। राजधानी में हर साल इनकी प्रतियोगिताएँ चलाया करता था। शरनिधि की धर्मपत्नी प्रभावती देवी, उनकी दोनों पुत्रियाँ वैजयंती और मेघना भी शतरंज के प्रति विशेष रुचि दिखाती थीं।
एक पूर्णिमा की रात को वैजयंती और मेघना उद्यानवन में बैठकर शतरंज खेलने में तल्लीन थीं। उस समय आकाश में विचरते हुए समीर नामक गंधर्व ने यह दृश्य देखा। आतुरतावश उसने अपना रथ वहाँ उतारा। जैसे ही वैजयंती जीती, वह प्रत्यक्ष हुआ और कहा, ‘‘बहुत ही अद्भुत खेल खेला है तुमने वैजयंती।''
अकस्मात् ही सामने खडे गंधर्व को देखकर दोनों बहनें घबरा गयीं।
अपने को संभालते हुए पहले वैजयंती ने कहा, ‘‘इस उद्यानवन में किसी पराये का आना मना है। यहाँ ख़ास पहरा भी है। फिर यहाँ आपका आना कैसे संभव हो पाया?''
‘‘मेरा नाम समीर है, मैं गंधर्व हूँ; शतरंज प्रिय हूँ। चांदनी में गगन बिहार करते हुए आप लोगों को देखा और भूमि पर उतरे बिना मुझसे रहा नहीं गया। आप दोनों को आपत्ति न हो तो आपमें से किसी एक के साथ शतरंज खेलना चाहूँगा।''
सिर हिलाते हुए वैजयंती ने अपनी सहमति दे दी। तुरंत खेल शुरू हो गया। देखते-देखते गंधर्व ने वैजयंती को हरा दिया और मेघना से कहा, ‘‘क्या तुम भी खेलना चाहोगी?''
मेघना जानती थी कि उसकी हार निश्चित है, फिर भी उसने गंधर्व से खेलने की इच्छा प्रकट की, क्योंकि वह समझती थी कि यह एक सुवर्ण मौक़ा है और जो अविस्मरणीय होगा।
खेल शुरू हुआ। मेघना बड़ी ही सावधानी से चाल चलती रही। परंतु, दस ही चालों में गंधर्व ने मेघना को हरा दिया और ठठाकर हँसने लगा, मानों वह यह बताना चाहता हो कि मेरे सामने तुम जैसे नौसिखियों की क्या गिनती।

‘‘अगली पूर्णिमा को ठीक इसी समय पर फिर से आऊँगा। एक और बार खेल खेलेंगे,'' कहकर वह रथ की ओर बढ़ा।
दोनों युवरानियों को अंतःपुर में देरी से आते हुए देखकर महारानी ने पूछा, ‘‘लौटने में इतनी देरी क्यों हुई? मतलब यह हुआ कि अब तक उद्यानवन में क्या शतरंज खेलती रहीं?''
मेघना ने कहा, ‘‘हाँ, एक गंधर्व ने हम दोनों के साथ शतरंज खेला।'' आश्चर्य प्रकट करती हुई रानी प्रभावती ने वैजयंती से पूछा, ‘‘क्या यह सच है?''
‘‘हाँ माँ, मेघना ने सच ही बताया। वह यह कहकर गया कि अगली पूर्णिमा के दिन फिर आऊँगा और शतरंज खेलूँगा।'' वैजयंती ने माँ के संदेह को दूर करते हुए कहा।
इतने में, राजा शरनिधि वहाँ आया। रानी ने पूरा किस्सा उसे सुनाया। शरनिधि ने भी आश्र्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘‘इसका यह मतलब हुआ कि फिर से गंधर्व का आगमन होनेवाला है।'' यों कहकर वह सोच में पड़ गया।
अगली पूर्णिमा के दिन प्रथम पहर के दौरान वैजयंती, मेघना यथावत् चंद्रशिला पर आसीन थीं। राज दंपति पास ही की चमेली के कुंज के पीछे खड़े थे और बैचैनी से गंधर्व की प्रतीक्षा कर रहे थे।
थोड़ी ही देर में गंधर्व उद्यानवन में रथ से उतरा और लताकुंज की ओर दृष्टि फेरते हुए कहा, ‘‘शरनिधि, महारानी समेत लताकुंज के पीछे छिपने की क्या आवश्यकता है? तुम्हें आपत्ति न हो तो तुम्हारे साथ भी शतरंज खेलना चाहता हूँ। खेलोगे?''
गंधर्व ने स्वयं आमंत्रित किया, इसपर खुश होता हुआ शरनिधि आगे आया। राजा और समीर शिला पर आमने-सामने आसीन थे। प्रभावती देवी, वैजयंती, मेघना बगल ही में बैठी थीं।
‘‘स्पर्धा जो भी हो, बाजी लगाने पर ही उसमें मज़ा आता है। आपका क्या कहना है?'' गोटियों को ठीक करते हुए गंधर्व ने कहा।
शरनिधि ने प्रश्र्न को गंभीरता से न लेते हुए पूछा, ‘‘तो हारना क्या होगा?''
तब गंधर्व ने कहा, ‘‘अगर होड़ में मैं हार गया तो, अपनी गंधर्व महिमा से अधेड़ उम्र के तुम्हें फिर से युवक बना दूँगा। तुम अगर हारे तो, अपनी पुत्रियों में से एक पुत्री के साथ मेरा विवाह करोगे। क्या तुम्हें यह शर्त मंजूर है?''

राजा सोच में पड़ गया। अगर वह हार जाए तो सुयोग्य गंधर्व उसका दामाद बनेगा। वह गंधर्व को हराये तो वृद्धावस्था में क़दम रखनेवाले उसे पुनः यौवन प्राप्त होगा।
हारूँ या जीतूँ, दोनों ओर से मुझे ही लाभ पहुँचनेवाला है। यह सोचते हुए वह मन ही मन खुश हुआ।
उस समय दोनों राजकुमारियाँ भी यही सोचने लगीं कि उनके पिता को गंधर्व के हराने पर वह किससे पाणिग्रहण करेगा। रानी तो कुछ और ही गंभीरतापूर्वक सोच रही थी। उसका पति वृद्धावस्था में क़दम रखनेवाला है, अगर गंधर्व को हराकर वह यौवन प्राप्त करे तो वह उसका तिरस्कार करेगा और हो सकता है, किसी दूसरी स्त्री से विवाह कर ले। वह चिंतित होने लगी।
इतने में एक विचित्र घटना घटी। एक और रथ आकाश से उद्यानवन में उतरा। निश्र्चेष्ट होकर जब सब लोग उस रथ की ओर देख रहे थे तब एक अति सुंदर गंधर्व कन्या उनके पास आयी।
राजा शरनिधि ने नख से शिख तक उसे ग़ौर से देखा और आश्चर्य-भरे स्वर में उससे पूछा, ‘‘जान सकता हूँ, आप कौन हैं?''
‘‘मैं इस गंधर्व की पत्नी हूँ। यह देखने आयी हूँ कि जिस सुंदरी से विवाह रचाने के लिए ये तत्पर हैं, वह आखिर है कौन?'' व्यंग्य-भरे स्वर में उसने कहा।
राजा एक निर्णय पर आया और गंधर्व को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘ठीक है, खेल शुरू करेंगे। परंतु एक शर्त है। शतरंज के इस खेल में हार-जीत किसी की भी हो, उससे मुझे या मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को हानि पहुँचनी नहीं चाहिये। क्या आपको यह स्वीकार है?''
गंधर्व ने एक बार अपनी पत्नी को देखा और शरनिधि से कहा, ‘‘मैं समझ गया हूँ कि आप क्या सोच रहे हैं। वचन देता हूँ, आपको कोई हानि नहीं पहुँचाऊँगा।''
जैसे ही खेल शुरू हुआ, गंधर्व बीच-बीच में अपनी पत्नी को तिरछी नज़र से देखता रहा। गंधर्व की पत्नी ने परोक्ष रूप से खेल में शरनिधि की सहायता की। गंधर्व की हार हुई।

खिन्न गंधर्व जब शरनिधि को यौवन प्रदान करने के उद्देश्य से मंत्रोच्चारण करने ही जा रहा था, तब राजा ने कहा, ‘‘मुझे किसी भी प्रकार का यौवन नहीं चाहिये।''
वेताल ने कहानी सुनायी और कहा, ‘‘राजन् शरनिधि के व्यवहार में कोई अनजानी संदिग्धता, चपलता दिखायी देती है। राजा शतरंज में हारे या जीते, उसे ही लाभ पहुँचे, ऐसा आश्वासन गंधर्व ने उसे दिया और यह शरनिधि का भाग्य ही कहा जा सकता है। परंतु जब बाजी जीत गया, उसने यौवन अपनाने से इनकार कर दिया। क्या यह उसकी मूर्खता नहीं? अगर राजा खेल में हार जाता तो उसे अपनी पुत्रियों में से किसी एक से गंधर्व का विवाह करना पड़ता। मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े को जायेंगे।''
विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दूर करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘यह सच है कि राजा शरनिधि मानव सहज दुर्बलता का शिकार था। उसे इस बात की खुशी थी कि हारने पर या जीतने पर उसी का लाभ होगा। परंतु, खेल को शुरू करने के पहले ही गंधर्व समीर की पत्नी ने अपने पति की मनोकामना के रहस्य को खोल दिया। अब शरनिधि ताड़ गया कि अगर वह बाजी हार जाता और अपनी पुत्रियों में से किसी एक से गंधर्व का विवाह करना पड़ता तो कितना बड़ा अनर्थ हो जाता। उसी प्रकार वह यह भी जान गया कि गंधर्व के वरदान के बल पर उसे यौवन प्राप्त हो जाता तो भविष्य में कितनी बड़ी-बड़ी समस्याओं का सामना उसे करना पड़ता। वह कुशाग्र बुद्धि का था, इसलिए आनेवाले संकट को वह भांप पाया। अगर वह अपनी पुत्रियों की उम्र का हो जाए तो वे भला उसे अपना पिता कैसे मानेंगीं? उसी प्रकार उसकी महारानी अधेड उम्र की हो और वह युवा तो क्या जगहँसाई नहीं होगी? अतः शरनिधि ने जो निर्णय लिया, उसमें न कोई संदिग्धता है, न ही कोई मूर्खता। इसमें तो उसकी बुद्धिमानी ही दृष्टिगोचर होती है।
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(शांतकुमार की रचना के आधार पर)






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