
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारकर अपने कंधे पर डाल लिया और श्मशान की ओर बढ़ता हुआ चला गया। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, अपने लक्ष्य को साधने के लिए तुम कठोर परिश्रम कर रहे हो। तुम्हारा यह हठ प्रशंसनीय है। किन्तु जिस लक्ष्य को साधने के लिए तुम इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो, वह तुम्हारे लिए है या और किसी के लिए? कहीं कोई कपटी तुम्हारे द्वारा यह काम तुमसे कराता तो नहीं है? बुद्धिमान व्यक्ति भी कभी-कभी कपटी की बातों में आ जाते हैं और अनावश्यक अपने को कष्ट में डाल लेते हैं। मैं अब तुम्हें सावधान करने के लिए उस जनबंध नामक तपस्वी की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जिसने दो प्रतिभावान युवकों को, मीठी-मीठें बातों से लुभाया और उन्हें धोखा दिया। फिर वेताल उनकी कहानी यों बताने लगाः

परंतु, कुछ समय के बाद वज्रपुर में अकाल पड़ा। तीनों मित्र शारीरिक परिश्रम करना चाहते नहीं थे, इसलिए वे तीनों श्रीनगर पहुँचे। ठहरने के लिए वे नगर के धनी बसवेश्वर के घर गये।
उस समय बसवेश्वर के घर में जनबंध नामक तपस्वी थे। बसवेश्वर के आतिथ्य से प्रस होकर जनबंध ने कहा, ‘‘अगले साल तुम्हारी बहू एक सुपुत्र को जन्म देगी।''
यह सुनकर बसवेश्वर का चेहरा फीका पड़ गया। उसकी पत्नी विमला ने कहा, ‘‘स्वामी, हमारी कोई संतान नहीं है। आपके आशीर्वाद के बल पर अगर पुत्र का जन्म भी हुआ तो भी उसका विवाह बीस सालों के बाद ही होगा न।'' यों उसने अपना दुख व्यक्त किया।
जनबंध ने थोड़ी देर तक अपनी आंखें बंद कर लीं और फिर आंखें खोलकर कहा, ‘‘मेरा आशीर्वाद दैव संकल्प है। किसी योग्य युवक को दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार कीजिये और उसका विवाह करवाइये। साल ही के अंदर आपकी बहू पुत्र को जन्म देगी।''
बसवेश्वर ने कहा, ‘‘हमने भी यही सोचा। किन्तु हम यह कैसे जानें कि दत्तक पुत्र के योग्य कौन है?''
ठीक उसी समय राम, भीम, सोम ने दरवाज़ा खटखटाया। वे अपने बारे में कुछ कहें, उसके पहले ही जनबंध ने हर एक का नाम लेकर उन्हें बुलाया और कहा, ‘‘जिस गाँव में आप रहते थे, वहाँ अकाल पड़ गया। मेहनत करने की आप लोगों की इच्छा नहीं थी इसलिए अपनी-अपनी प्रतिभा के योग्य काम को ढूँढ़ते हुए इस नगर में आये। मेरा अनुमान सही है न?''
तीनों मित्र हक्का-बक्का रह गये और कहा, ‘‘आप महान हैं। आपकी दृष्टि दिव्य है। आप हमारे बारे में सब कुछ जान गये। आप ही को अब उपाय सुझाना होगा कि हम क्या करें।'' कहते हुए उन्होंने उस तपस्वी को प्रणाम किया।
जनबंध ने कहा, ‘‘भाग्यवान, इस बसवेश्वर की कोई संतान नहीं है। दशरथ पर्वत पर वशिष्ठ वृक्ष है। उसका पका फल खाने पर इसकी पत्नी माँ बनेगी। किन्तु वह पर्वत पश्चिमी दिशा में नहीं है। शेष तीनों दिशाओं में भी यह वृक्ष नहीं है। तुम तीनों, तीन दिशाओं में जाओ और उस फल का अन्वेषण करो। जो वह फल लायेगा, उसे बसवेश्वर अपनी आधी जायदाद देगा। दो महीनों वे अंदर अगर तुम में से कोई भी वह फल लाने में सफल नहीं होगा तो फल के अन्वेषण में जो दूसरों की तुलना में अधिकाधिक परिश्रम करेगा, उसे वे दत्तक पुत्र बनायेंगे और फल के अन्वेषण के लिए कोशिश के बदले तुम तीनों को काम मिलेगा।'' तीनों मित्र फल के अन्वेषण में अलग-अलग दिशा में गये।

राम उत्तरी दिशा में गया। उसने दशरथ पर्वत के बारे में जानकारी पाने की कोशिश की। वह वंचक नामक एक भूस्वामी से मिला। उसने राम से संबंधित जानकारी पाने के बाद कहा, ‘‘नियमानुसार उन्हीं को दशरथ पर्वत के बारे में विवरण दिया जायेगा, जो ईमानदार और अ़क्लमंद हो। तुम छे ह़फ़्तों तक मेरे यहाँ काम करो। अगर मुझे विश्वास हो जाए कि तुम अ़क्लमंद हो तो उस पर्वत से संबंधित विवरण बताऊँगा।''
राम ने वंचक की बातों का विश्वास किया। वह उसका काम करने में लग गया। वंचक हर रोज़ उससे घर का काम करवाता था। घर की सफाई कराता था, पशुओं को पानी से धुलवाता था, लकड़ियाँ तुड़वाता था और कुएँ से पानी खिंचवाता था। राम को इन कामों को करने की इच्छा तो नहीं थी, पर छे हफ्तों तक उसे ये काम करने पड़े। छे महीनों के बाद जब उसने वंचक से दशरथ पर्वत के बारे में बताने को कहा तो उसने कहा, ‘‘इन छे ह़फ़्तों में तुमने अपने को विश्वासपात्र साबित किया। किन्तु अगर मैं उस पर्वत के बारे में बताऊँगा तो यहाँ से फ़ौरन चले जाओगे। इतना विश्वासपात्र नौकर मुझे कहाँ से मिलेगा ! इतनी छोटी-सी बात भी तुम समझ नहीं पाये। स्पष्ट है कि तुम अ़क्लमंद नहीं हो, तुम दशरथ पर्वत के बारे में जानने योग्य नहीं हो।''
अब राम समझ गया कि वंचक को दशरथ पर्वत के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है और वह धोखेबाज़ है। बेचारा राम श्री नगर लौटने के लिए निकल पड़ा।

भीम दक्षिण दिशा में गया। वह विचित्रपुर नामक गाँव में पहुँचा। उसने उस गाँव में अपनी मल्ल विद्या को प्रदर्शित किया। गाँववाले इससे संतुष्ट हुए और उसे उसी गाँव में रह जाने की सलाह दी। भीम ने उन्हें वहाँ आने का कारण बताया । इसे सुनकर शिलाद्र नामक एक व्यक्ति ने उससे कहा, ‘‘हमारे गाँव से थोड़्री दूरी पर दुर्गम पर्वत श्रेणी है। मैं एक पर्वतारोही हूँ। इन पर्वतों की विशेषताओं को जानने के लिए तुम जैसे एक बलवान की तलाश में हूँ। तुम ‘हाँ' कह दोगे तो तुम्हारे साथ चलने के लिए मैं तैयार हूँ। हो सकता है, उन पर्वतों के बीच मे दशरथ पर्वत भी हो।''
भीम ने उसके प्रस्ताव को मान लिया। दूसरे ही दिन वे निकल पड़े। वह मार्ग सचमुच ही दुर्गम व जोखिम भरा था। उतार-चढ़ाँवों से भरा था। तिसपर क्रूर जंतुओं का भय भी था। विष धर सर्प भरे पड़े थे। खाने की कोई चीज़ भी नहीं थी। छे हफ्तों के बाद वे निराश होकर लौट पड़े। विचित्रपुर के ग्रामीणों ने इस कठोर यात्रा के लिए उनका सम्मान किया। दशरथ पर्वत का पता तो नहीं लगा, पर भीम को इस बात की खुशी थी कि उसने कठोर परिश्रम किया और अनेक कष्ट झेले। उत्साह से भरा वह श्रीनगर पहुँचने निकल पड़ा।
अब रही सोम की बात। वह पूर्वी दिशा में जाकर मकरावलि नामक नदी के किनारे स्थित जलपुर नामक गाँव में गया। उसने वहाँ के ग्रामीणों को अपनी जल क्रीड़ाओं से संतुष्ट किया। गाँववालों ने उससे वहीं रह जाने ने लिए कहा, पर उसने उन्हें अपना ध्येय बताते हुए उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उसकी कहानी सुनने के बाद मकर नामक एक व्यक्ति ने कहा, ‘‘इस नदी में दो हफ्तों तक यात्रा करेंगे तो मगरमच्छों के द्वीप में पहुँच सकते हैं। हो सकता है, उस द्वीप में दशरथ पर्वत हो। किन्तु नदी के बीच में मगरमच्छ अधिकाधिक हैं। इसी भय के कारण आज तक किसी ने भी उस द्वीप में जाने का साहस नहीं किया। मैं एक नाविक हूँ। इस द्वीप की विशेषताओं को जानने के लिए मैं तुम जैसे एक जलनिपुण की खोज में हूँ। तुम ‘हाँ' कह दोगे तो हम दोनों निकल पड़ेंगे।''
सोम ने अपनी सहमति दी। दोनों मकरद्वीप की ओर नाव में चल पड़े। दो दिनों के बाद जहाँ देखो, वहाँ मगरमच्छ थे। सोम ने अपने जल-नैपुण्य से मगरमच्छों को डराकर भगा दिया। यों दो ह़फ़्तों तक यात्रा करने के बाद वे मगरमच्छों के द्वीप में पहुँचे।

वहाँ पहुँचते ही कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनको अपने राजा के पास ले गये। राजा ने उनकी पूरी कहानी सुनने के बाद कहा, ‘‘हमारी देवी मगरमच्छ है। मगरमच्छों की नदी के बीच में उसकी मूर्ति है। जब वह नर बलि चाहती है, तब वह परदेशियों को प्रेरित करती है और उन्हें यहाँ बुला लेती है। तुम दोनों ऐसे ही परदेशी हो। तुम्हें मगरमच्छों के बीच में डाल देंगे। हमारी देवी मगर के रूप में आकर तुम्हें निगल जायेगी।''
सोम ने कहा, ‘‘मेरी एक विनती है। मुझे उस जगह पर उतारिये। देवी मेरी प्रार्थनाओं से प्रस होगी तो साष्टांग नमस्कार करूँगा और सुरक्षित लौट आऊँगा। अगर मैं उस देवी का आहार बन जाऊँगा तो फिर मेरे मित्र को भी वहाँ फेंकिये।''
उसकी बातों पर राजा हँस पड़ा और सोम को उस नदी के बीच में फेंक दिया। फ़ौरन एक बहुत बड़ा घड़ियाल मुँह खोले उसपर टूट पड़ा। सोम ने विविध प्रकार के जल विन्यासों से उस घडियाल को भगाया, फिर वहाँ स्थित देवी की मूर्ति को सविनय प्रणाम किया। राजा ने सोम की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘तुम्हें हमारी देवी का आशीर्वाद प्राप्त है।'' तुम्हारा आतिथ्य करना हमारा धर्म है। जितने दिन यहाँ रहना चाहते हो, रहो और दशरथ पर्वत को ढूँढ़ों।''
दो ह़फ़्तों तक अन्वेषण करने के बाद उन्हें मालूम हो गया कि उस द्वीप में दशरथ पर्वत नहीं है। सोम को लगा कि मैंने कड़ी मेहनत की, हर प्रकार से दशरथ पर्वत को ढूँढ़ने का प्रयत्न किया। इसी से सन्तुष्ट होकर वह लौट गया।
दो महीनों की अवधि पूरी होते-होते वे तीनों श्रीनगर पहुँचे और बसवेश्वर के घर गये। तब वहाँ जनबंध भी उपस्थित थे। उन्होंने उनके अनुभवों को सुनने के बाद कहा, ‘‘मेरे कहे अनुसार फल के अन्वेषण के कारण तुम तीनों को ऐसे प्रदेश मिल गये, जहाँ तुम्हें काम मिल सकते हैं। भीम विचित्रपुर जाए और सोम जलपुर। वहाँ जाकर आराम से रहिये। राम ने तुम दोनों से अधिक कष्ट भरे काम किये, पर उसे कहीं भी काम नहीं मिलेगा इसलिए बसवेश्वर, राम को अपना दत्तक पुत्र बनायेंगे।''

उनका निर्णय सुनते ही सोम और भीम एक क्षण के लिए अवाक् रह गये। फिर संभल गये और जनबंध को प्रणाम करके कहाँ से चले गये।
कहानी कह चुकने के बाद वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, बसवेश्वर किसी एक को दत्तक पुत्र बनाये, इसी उद्देश्य को लेकर सोम और भीम ने दशरथ पर्वत ढूँढ़ने के लिए यथासाध्य प्रयत्न किये, तकलीफें सहीं, खतरों का सामना किया, क्योंकि जनबंध की शर्त थी कि जो ज्यादा से ज़्यादा परिश्रम करेगा, उसे ही बसवेश्वर अपना दत्रक पुत्र बनायेगा। वे दोनों फल के अन्वेषण में अपनी जान भी देने को सद्ध हो गये। जनबंध ने उन दोनों में से एक को चुनने के बदले वंचक के धोखे में आये राम को इसका हक़दार चुना। उस घटना से यह भी साबित हो गया कि वह महा मूर्ख है। जनबंध ने राम को चुनकर क्या ग़लती नहीं की? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दूर करते हुए कहा, ‘‘राम, वंचक के चंगुल में फंस गया। इसके लिए उसने वे सब काम किये, जो उसे बिलकुल पसंद नहीं थे। शेष दोनों ने संदेहपूर्ण लक्ष्य के बावजूद कष्ट भरे कामों को प्रधानता दी क्योंकि वे काम उन्हें पसंद थे, उनके सामर्थ्य को साबित करनेवाले काम थे। पसंदीदा काम करना आसान है, भले ही वे कष्टों से भरे क्यों न हों। पसन्द का काम न हो तो आसान काम करना भी मुश्किल है। राम ने यह काम कर दिया, इसीलिए जनबंध ने उसे चुना। इसमें किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं है। अलावा इसके दोनों की मेहनत भी बेकार नहीं गयी। उन्हें जीने का रास्ता मिल गया। वे दोनों इस सत्य को जान गये, इसीलिए दोनों तपस्वी को सविनय प्रणाम करके चले गये।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार ‘‘वसुंधरा'' की रचना)

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