Saturday, July 2, 2011

अहंकारी पंडित

धुन का पक्का विक्रमार्क ने पुनः पेड़ पर से शव को उतारा; उसे अपने कंधे पर डाल लिया और वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, आधी रात का समय है, आँखें फाड़-फाड़कर देखोगे तब भी कुछ दिखायी नहीं पड़ेगा, फिर भी तुम बढ़े जा रहे हो। तुम्हारे इस अंकुठित आग्रह को देखते हुए लगता है कि तुम किसी जटिल कार्य को साधने में लगे हुए हो। कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो अहंकार के नशे में अपने को महान और असाधारण मान बैठते हैं। अपनी शक्ति और सामर्थ्य से भी बढ़कर कार्य साधने का निश्चय कर लेते हैं। उन्हें यह मालूम नहीं कि उनका अहंकार उन्हें गुमराह कर रहा है। तुम्हें सावधान करने के लिए एक ऐसे ही अहंकारी पंडित की कहानी सुनाऊँगा। थकावट दूर करते हुए उसकी कहानी सुनो।'' फिर वेताल उस पंडित की कहानी यों सुनाने लगा:

मोटेराम ब्रह्मपुर का एक सामान्य किसान था। श्रीचरण उसका इकलौता पुत्र था। बचपन से ही वह आशु कविताएँ सुनाता रहता था। उसकी इस प्रतिभा को देखकर परिमित नामक आचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाया।
जिसे सीखने और पढ़ने में विद्यार्थियों को दस साल लगते थे, उसे श्रीचरण ने तीन ही सालों में सीख लिया। परिमित ने अपने शिष्य के कौशल की सराहना की और कहा, ‘‘जो मुझे सिखाना था, सिखा दिया। अब तुम दंडकारण्य जाकर गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करोगे तो और उन्नति कर सकोगे।''
परंतु श्रीचरण गुरु की सलाह को अमल में नहीं ला पाया। क्योंकि वह चाहता था कि मेहनती पिता के साथ रहूँ और उसकी सहायता करूँ। एक बार एक राजस्थानी कवि उस गाँव में आया। गुरु परिमित ने श्रीचरण के बारे में बताया और कहा, ‘‘मैं शास्त्र का ज्ञान रखता हूँ, पर कविता के मूल्य को आंकने में असमर्थ हूँ। आप उसकी कविता सुनिये और बताइये कि क्या वह राज सम्मान पाने के योग्य है?''
राजस्थानी कवि ने, श्रीचरण की कविता सुनी और कहा, ‘‘तुम्हारी कविता में व्याकरण व अलंकार शास्त्र से संबंधित दोष हैं। शंखपुर में महानंद नामक एक महापंडित हैं। अगर वे तुम्हें योग्यता-पत्र प्रदान करेंगे तो समझ लो, तुम राज सम्मान के योग्य बन गये।''
श्रीचरण ने, महानंद के बारे में जानकारी प्राप्त की। मालूम हुआ कि वे अपने ही गाँव के संचारी नामक भूस्वामी के दूर के रिश्तेदार हैं। वह उससे मिला ।

संचारी ने कहा, ‘‘महानंद एक निराले स्वभाव का है। अगर मैं तुम्हारी सिफ़ारिश करूँ तो वह कहेगा कि तुम कविता के बारे में क्या जानो। एक काम करना। एक अच्छा काव्य रचो और उसे सुनाओ। उसकी प्रशंसा पाओगे तो यह काम बन जायेगा। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि वह बड़ा ही अहंकारी है और दूसरों की गलतियाँ निकालने में उसे आनंद आता है। अन्यों की प्रशंसा वह कभी करता ही नहीं।''
श्रीचरण ने ठान लिया कि काव्य रचूँगा और महानंद की प्रशंसा पाऊँगा। उसने ‘‘श्रीकृष्ण लीलामृत'' नामक काव्य एक हफ्ते भर में लिखा। महानंद की स्वीकृति और प्रशंसा पाने का विश्वास लेकर वह शंखपुर गया और महानंद से मिला।
उस समय महानंद, अपने घर के चबूतरे पर बैठकर, आरंभ नामक एक युवकवि की कविता सुन रहा था। उसमें व्याकरण के जो दोष थे, उनपर वह टिप्पणियाँ सुना रहा था। उन टिप्पणियों को सुनते हुए श्रीचरण हँस पड़ा। महानंद ने, श्रीचरण को ध्यान से देखा और उसकी हँसी का कारण पूछा।
‘‘महोदय, कमल कीचड में जन्म लेता है, वह कितना भी सुंदर क्यों न हो, वह कीचड़ का अलंकार नहीं हो सकता। कीचड़ से अलग करने पर ही कमल अलंकार बनता है। ऐसी स्थिति में दोषों को ठीक करने मात्र से क्या फ़ायदा है? आप सर्वज्ञ हैं। आप जैसे महान पंडित इस प्रकार समय व्यर्थ करते रहेंगे तो क्या फल निकलेगा? इसी को लेकर मैं हँस पड़ा। क्षमा कीजिये, मैं हँसी रोक नहीं पाया।''
महानंद ने, श्रीचरण को नख से शिख तक देखा और कहा, ‘‘जो भी कविता सुनाना चाहता है, उसे चाहिये कि वह व्याकरण के दोषों के बारे में बखूबी जाने। तुम्हारा ज्ञान तो अधूरा है, फिर भी तुमने मेरी हँसी उड़ाने की चेष्टा की, तद्वारा तुमने भी मेरा समय व्यर्थ किया। जानूँ तो सही, आखिर तुम हो कौन?''

श्रीचरण ने अपना, अपने गाँव का नाम बताया और अपनी अभिलाषा व्यक्त की। इसे सुनकर महानंद एकदम नाराज़ हो उठा और बोला, ‘‘मेरी सेवा-शुश्रूषा करने आये हो। मुझे देखते ही तुम्हें मेरे पैरों पर गिरकर प्रणाम करना था, आशीर्वाद पाना था। पहले किसी और गुरु के पास जाओ और उनसे गुरु का आदर करना सीखो। उसके बाद तुम्हें शिष्य बनाने के विषय में निर्णय लूँगा।'' बड़े ही कर्कश स्वर में महानंद ने कहा।
श्रीचरण निराश होकर गाँव लौटा। संचारी ने परिणाम जानना चाहा तो उसने कहा, ‘‘महाशय, आपने जो कहा, वह सच निकला। महानंद महा अहंकारी हैं। उनसे प्रशंसा पाना मेरे बस की बात नहीं है। उन्हें कविता सुनाने का इरादा ही अब मुझमें नहीं रहा।''
इस घटना के कुछ दिनों के बाद संचारी को महानंद ने एक पत्र भेजा, ‘‘अपने गाँव के श्रीचरण से रचित ‘‘श्रीकृष्ण लीलामृत'' काव्य से कुछ कविताएँ मुझे भेजना जो तुम्हें पसंद हैं। परंतु, इसके बारे में उससे कुछ न बताना।'' यही उस पत्र का सारांश था।
संचारी खुद महानंद से मिलने शंखपुर गया। महानंद ने उसे स्वादिष्ट भोजन खिलाया । भोजन के बाद संचारी ने उसके आतिथ्य की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी धर्मपत्नी यशोदा की बनायी मिठाई हरी कांति को फैलानेवाले पूर्ण चंद्र की तरह है। उसमें निहित अमृत को पाने के लिए आतुर राहु की तरह निगलने के लिए तैयार बैठे मेरे गले में वह अटक गया। मैंने जब मुँह खोला, तब तुम्हारी यशोदा ने मिट्टी खानेवाले बालकृष्ण को मुझमें देखा होगा। तुम्हारी यशोदा उस यशोदा माँ की याद दिलाती है।'' इस अर्थ की एक कविता सुनायी।
महानंद ने चकित होकर कहा, ‘‘तुमने जो भी कहा, ऐसा यहाँ कुछ भी नहीं हुआ। किन्तु मेरी पत्नी ने जब अन्न खिलाया, तब उसमें माँ को देखते हुए तुमने भाव-चमत्कारपूर्ण जो कविता सुनायी, वह अद्भुत है। यह कहीं श्रीचरण के काव्य से तो नहीं है?''

संचारी ने ‘‘हाँ'' के भाव में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘श्रीचरण जब तुम्हारे पास आया था, तभी उसकी कविता सुनकर तुम्हें यह बात बतायी थी।''
इसपर महानंद ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘एक महाकवि ने कहा है कि कविता कभी भी न बुझनेवाली एक प्यास है। श्रीचरण राजाश्रय में जाता तो अवश्य ही उसका सम्मान होता।''
संचारी ब्रह्मपुर लौटा। उसने श्रीचरण से जब यह बात बतायी तब वह बेहद खुश हुआ। उसके मुँह से बात ही नहीं निकली। कुछ देर बाद अपने को संभालते हुए उसने कहा, ‘‘मैं शंखपुर जाकर उस महाकवि को अपना काव्य न सुनाऊँ तो अहंकारी कहलाऊँगा।'' वह उसी दिन शंखपुर जाने निकल पड़ा।
उस समय महानंद अपने घर के चबूतरे पर बैठकर एक दूसरे कवि की कविता सुन रहा था। श्रीचरण को देखते ही वह तुरंत उठ खड़ा हो गया। श्रीचरण उसके पैरों पर गिरा और बोला, ‘‘गुरुवर, आपको अपना काव्य सुनाने आया हूँ। मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कीजिये।''
महानंद ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘आयुष्मान भव, कीर्तिमान भव।'' उसे उठाया और कहा, ‘‘मेरी बात को मानकर तुमने शिष्य परम्परा का पालन किया। मुझे बहुत खुशी हो रही है। परसों पंचमी है। तुम्हारा काव्य पठन उसी दिन से प्रारंभ होगा।''
महानंद ने, अपने ही घर में श्रीचरण के रहने का इंतज़ाम किया।
पंचमी के दिन महानंद ने एक बृहत सभा का आयोजन किया और श्रीचरण को आश्चर्य में डाल दिया। उस सभा में भाग लेने दूर-दूर प्रदेशों से महाविद्वान, कवि और पंडित आये। उन सबको उपस्थित देखकर इतोधिक उत्साह से श्रीचरण ने काव्य पठन किया।


इसके उपरांत जब महानंद ने उस काव्य की विशिष्टताओं के बारे में विवरण दिया, तब हर्ष ध्वनियों के साथ सभा गूँज उठी।
कहानी बता चुकने के बाद वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, निस्संदेह दिखता है कि महानंद अहंकारी पंडित है। यह भी स्पष्ट दिखता है कि सभी साहित्यिक उसे महा पंडित मानते हैं। यही बात उसके रिश्तेदार संचारी ने भी श्रीचरण से बतायी थी। बहुतों का यह भी मानना है कि वह हमेशा दूसरों की ग़लतियाँ निकालता रहता है और अन्यों की कभी भी तारीफ़ नहीं करता। आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे अहंकारी ने, श्रीचरण की कविता की प्रशंसा की। महानंद में जो आकस्मिक परिवर्तन आया, उसका क्या कारण हो सकता है? कवियों और पंडितों में उसकी जो बदनामी हुई, क्या उससे बाहर निकलने के लिए यह प्रयत्न था? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रहोगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘स्पष्ट है कि कितने ही कवि अपनी कविताओं को सुनाने अ़क्सर महानंद के पास आते रहते हैं। श्रीचरण जब उन्हें देखने गया, तब आरंभ नामक कवि अपनी कविता सुना रहा था। ऐसे कवियों की कविताओं में जो व्याकरण व अलंकार दोष हैं, उन्हें निस्संकोच बताते थे, महानंद। इसी वजह से प्रचार हुआ कि वे अहंभावी हैं। श्रीचरण की कविता की महानंद ने भरपूर प्रशंसा की । यह कहना ठीक नहीं कि उनमें कोई आकस्मिक परिवर्तन हुआ । साहित्य के प्रयोजन के लिए कविताओं के दोषों को निकालना, अहंकार नहींहै । सच कहा जाए तो वे लोग अहंकारी हैं, जो महानंद को अहंकारी के रूप में प्रचार करते हैं।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
[आधार-‘‘वसुंधरा'' की रचना]




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