
धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे अपने कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘मैं यह नहीं जानता कि किस धर्म कार्य की पूर्ति के लिए इतने कष्ट झेल रहे हो। यद्यपि शास्त्र घोषित करते हैं कि जीत धर्म की ही होती है, पर जीवन में घटती हुई कुछ घटनाओं को देखते हुए लगता है कि जीत धर्म की नहीं, अधर्म की होती है और धर्मशील कष्टों में फँस जाते हैं। उदाहरण के लिए मैं उस गरुड़ की कहानी तुम्हें सुनाऊँगा जिसने अधर्म की राह पर चलकर सफलता प्राप्त की। थकावट दूर करते हुए उसकी कहानी सुनो।'' फिर वेताल यों गरुड़ की कहानी सुनाने लगाः

थोड़ी ही देर में अंधेरा छा गया। गाय का पता नहीं चला। वह सोच में पड़ गया कि क्या करूँ। तभी उसकी दृष्टि एक विचित्र दृश्य पर पड़ी। उसने एक सर्प को देखा, जिसके सिर पर मणि था। वह पास ही के बिल से बाहर आया और वह सर्प देखते-देखते मानव के आकार में बदल गया। उस सर्पमानव ने मणि को एक पेड़ के कोटर में छिपाया और ध्यानमग्न होकर बैठ गया। यह दृश्य देखकर चमन घबरा गया और पेड़ से उतरकर घर की ओर निकल पड़ा।
दूसरे दिन जब वह पशुओं को चराने गया, तब उसने इस विचित्र दृश्य के बारे में गरुड़ से बताया। यह सुनते ही उसने कहा, ‘‘तुम भी कितने बेवकूफ हो! तुम उस नागमणि को ले आ सकते थे। वह अगर हमारे पास हो तो हम उन लोगों को बचा सकते हैं, जो साँप के डसने से मर जाते हैं। इससे हम धन भी कमा सकते हैं। जीवन में ऐसे सुअवसर कभी-कभी अनायास आ जाते हैं। बुद्धिमान उस अवसर से लाभ उठाते हैं और अपना भाग्य बदल लेते हैं। लेकिन बुद्धिहीन अवसर को हाथ से निकल जाने देते हैं। वे कायर होते हैं। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। हो सकता है, वह सर्पमानव कल भी उसी जगह पर आये। हम दोनों वहाँ जायेंगे और उस मणि को चुरा कर ले आयेंगे।'' बड़े ही उत्साह के साथ गरुड़ ने कहा।
‘‘नागमणि की चोरी करना आसान काम है। किन्तु, जिस सर्प ने उसे खोया, वह थोड़े ही चुप रहेगा? कहते हैं कि सर्प का बदला बारह सालों तक बना रहता है। किसी दिन वह हमें मारकर ही छोड़ेगा।'' डरते हुए चमन ने कहा।
‘‘मैं तुम्हारी तरह कायर नहीं हूँ। तुम नहीं आओगे तो मैं अकेले जाऊँगा और वह मणि ले आऊँगा। जिनमें धैर्य, साहस होते हैं, उन्हीं को संपत्ति मिलती है।'' कहते हुए गरुड़ ने अपने पशुओं की देखभाल का भार चमन को सौंपा। फिर वह चमन के बताये हुए मार्ग से उस जगह पर गया, जहाँ सर्पमानव तपस्या में लीन था।
गरुड़ को जब विश्वास हो गया कि सर्पमानव ध्यान मग्न है तो उसने मणि चुराया और कपड़ों में छिपाकर वहाँ से निकल पड़ा। किसी से बताये बिना वह तड़के ही गाँव से निकल पड़ा और दूर प्रदेश में चला गया। मार्गमध्य में उसने एक धनवान के इकलौते बैटे की जान मणि के द्वारा बचायी, जिसे साँप ने डस लिया था। धनवान खुश हुआ और उसने उसे बहुत धन भेंट में दिया। उससे उसने वहीं एक कुटीर का निर्माण किया और ऐसे कितने ही लोगों की जानें बचायीं, जो साँप की काट के शिकार हुए। क्रमशः वह धन भी कमाने लगा और बहुत ही कम समय में धनवान बन गया।

वहाँ जंगल में सर्पमानव को सवेरे-सवेरे मालूम हो गया कि उसके मणि की चोरी हो गयी। वह बहुत ही चिंतित हो उठा। उसका नाम सुधेंद्र था। इंदुकलिका को उसने जो वचन दिया, उसकी याद आते ही वह बहुत ही दुखी हो उठा।
इंदुकलिका एक किसान की बेटी थी। बड़ी ही सहज सुंदरी थी। एक दिन जब वह खेत में मचान पर खड़े होकर गुलेल से चिड़ियों को भगा रही थी तब युद्ध से लौटते हुए एक सैनिक ने उसे देखा। उस सैनिक को वह लड़की बहुत पसंद आयी। युवक ने साहस बटोरकर पूछा, ‘‘क्या तुम मुझसे शादी करोगी?'' फिर वह अभद्र व्यवहार पर तुल गया। वह लड़की ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी। आस-पास कोई नहीं था, इसलिए उसकी रक्षा करने कोई नहीं आया।
हठात् सुधेंद्र बहुत ही क्रोधित होकर फुफकारते हुए उस सैनिक के सामने आ गया। वह सैनिक भय के मारे भाग गया। इंद्रकलिका कृतज्ञता भरी आँखों से उसे निहारने लगी। उसके सौंदर्य पर मुग्ध होकर सुधेंद्र ने उस कन्या से कहा, ‘‘मेरा नाम सुधेंद्र है, मैं नागलोक का हूँ। नागमणि के कारण मेरे पास कई अद्भुत शक्तियाँ हैं। उन्हीं के बल पर मैंने मानव रूप धारण किया। पर, अधिक समय तक इस रूप में नहीं रह सकता। तुम मान जाओगी तो मैं भरसक प्रयत्न करके मानव का रूप पाऊँगा और तुमसे शादी करूँगा।''
इंदुकलिका ने अपने बारे में बताया और कहा, ‘‘जब तक तुम नहीं आओगे तब तक मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगी।''

दूसरे ही क्षण सुधेंद्र अदृश्य हो गया और सुकृतानंद मुनि के आश्रम में पहुँचा। वे दयावान थे। जो भी उनसे मदद माँगते थे, वे उनकी सहायता करते थे। सुधेंद्र ने मानव रूप में बदल कर मुनि को प्रणाम किया और अपनी समस्या के बारे में विशद रूप से बताया। शाश्वत रूप से मानव रूप में रहने के लिए अभ्यर्थना की। मुनि ने कहा, ‘‘सुधेंद्र, सृष्टि में हर जीव की एक विशिष्टता है। एक जीव को दूसरे जीव के रूप में कोई परिवर्तन करना चाहता हो तो यह भगवान की सृष्टि को ही चुनौती देने के समान है। भगवान की सृष्टि प्रकृति के कठोर नियमों के अनुसार संचालित हो रही है। उन नियमों के अनुसार इस प्रकार का परिवर्तन अस्वाभाविक है, अप्राकृतिक है। भगवान जब तक स्वयं ही ऐसा न चाहें तब तक यह असम्भव है। भगवान की जिस पर कृपा हो जाये तो वे उसके लिए अपना विधान बदल सकते हैं। मानव शक्ति के लिए यह असम्भव है।''
‘‘मैं इंदुकलिका को बहुत चाहता हूँ। उससे विवाह करने का वचन भी दे चुका हूँ। शाश्वत रूप से मानव रूप धारण किये बिना यह संभव नहीं है। किसी भी जीव को तभी आनंद प्राप्त होता है, जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होता है। कृपया जैसे भी हो, आप मेरी सहायता कीजिये'', सुधींद्र ने विनती की।
‘‘मैं जान गया कि तुम्हारा प्रेम बहुत ही गहरा है। उसे सफल बनाने के लिए मैं यथासाध्य तुम्हारी सहायता करूँगा। परंतु, तुम्हारे पाप का फल प्रतिबंधक बना हुआ है।'' मुनि ने कहा।
‘‘मैंने ऐसा क्या पाप किया मुनिवर?'' सुधेंद्र ने पूछा। ‘‘जब तुम हरियाली में लेटे हुए थे, तब एक युवक ने ग़लती से अपने पैर तुम पर रखे और तुमने तुरंत उसे डसकर मार डाला। उस युवक के वृद्ध माता-पिता का शोक तुम्हारे लिए शाप बन गया। अपनी तपोशक्ति से हर दिन आधे समय तक मानव के रूप में रहने का वरदान दे सकता हूँ। इसके बाद, अपनी तपस्या के द्वारा या प्रजा की भलाई करके पुण्य-कमाओगे तो शाश्वत रूप से तुम्हें मानव रूप मिलेगा'', मुनि ने यों कहकर उसे आशीर्वाद दिया।
मुनि के आशीर्वाद के प्रभाव से सुधेंद्र रातों में मानव रूप में तपस्या करने लगा। ऐसी तपस्या की अवधि में ही गरुड़ ने उसके मणि को चुरा लिया।

नागमणि के खो जाने से वह सारी शक्तियाँ भी खो बैठा और मामूली सर्प बन गया। नागलोक में प्रवेश करना भी उसके लिए असंभव हो गया। ऐसे समय पर ही एक नेवले ने सर्परूप के सुधेंद्र पर आक्रमण किया। जब नेवला सर्प को मारने ही वाला था तब आहार के लिए ढूँढ़ता हुआ एक बाज साँप को उठाकर ले गया। इसके बाद सर्प सौभाग्यवश उसकी पकड़ से छूट कर एक सरोवर में गिर पड़ा। यों मरते-मरते वह बच गया।
अब सुधींद्र उस आदमी की तलाश करने लगा, जिसकी वजह से उसकी यह दुस्थिति हुई। उसे बाद में पता चला कि उसके मणि को चुरानेवाले का नाम गरुड़ है और वह अब कदंबवन लौटकर आया हुआ है।
तब तक गरुड़ मणि की मदद से बहुत धनवान बन चुका था और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था।
उस समय गरुड़ अपने पुराने मित्र चमन से मिलने आया था। उसने चमन से मिलकर कहा, ‘‘दोस्त, तुम्हारे ही कारण मैं अब बहुत बड़ा धनवान बन गया हूँ। तुम्हारी सहायता कभी नहीं भुला सकता। मेरे साथ आओगे तो अपनी कमाई का आधा हिस्सा तुम्हें दूँगा। मेहनत किये बिना आराम से जी सकते हो।''
‘‘मैं तुम्हारे साथ आऊँगा, तो मेरा स्थान कौन भरेगा? यह काम कौन करेगा?'' चमन ने पूछा।
‘‘अवश्य ही कोई न कोई आयेगा'' गरुड़ ने कहा। ‘‘उसके लिए भी यह काम तकलीफ़ों से भरा काम होगा न? संसार में ऐसे भी बहुत लोग होंगे, जो मेहनत किये बिना ज़िन्दगी में आराम से रहना चाहते हैं। किन्तु मैं यह पसंद नहीं करता। मेहनत के बिना तुम जिस प्रकार से आनंद का अनुभव कर रहे हो उसी प्रकार मेहनत से मुझे आनंद मिलता है। मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता'', चमन ने दृढ़ता के साथ कहा। गरुड़ मन ही मन दोस्त की प्रशंसा करते हुए वापस लौट गया। उसके सामने सर्परूप में सुधींद्र क्रोध से फुफकारते हुए डसने को सन्नद्ध हो गया। परन्तु भयभीत गरुड़ को छूते ही सुधेंद्र शाश्वत रूप से मानव के रूप में परिवर्तित हो गया।

वेताल ने कहानी बतायी और कहा, ‘राजन्, स्वार्थी गरुड़ सर्प के डसने से कैसे बच गया? पहले ही से लेकर जिस सुधींद्र ने थोड़ा-सा भी संयम का पालन नहीं किया, वह मानव कैसे बन गया? क्या तुम्हें यह विचित्र नहीं लगता? चमन ने कर्तव्य का पालन करना ही अपना धर्म माना और जैसे के तैसे ही रह गया। क्या यह इस बात का उदाहरण नहीं है कि धर्म के रास्ते पर चलनेवालों की यही दुस्थिति होती है? मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारा सर फट जायेगा।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘मनुष्य जो-जो काम करते हैं, वे केवल उनके उद्देश्यों के अनुसार ही नहीं, वे उन कार्यों को करनेवालों को प्रोत्साहित करनेवाली परिस्थितियों, तथा उनके पाप-पुण्य पर आधारित होते हैं। चमन ने मेहनत भरे जीवन को चुना। उसे पाप करने से डर लगता है। धर्म के रास्ते पर चलना वह पसंद करता है। इसीलिए वह संतुष्ट जीवन बिता पा रहा है। वह किसी प्रकार के अभाव या दुख का अनुभव नहीं करता। उसे अपनी जिन्दगी से कोई शिकायत नहीं है। इसीलिए उसने गरुड़ के साथ जाने से साफ इनकार कर दिया, हालांकि गरुड़ चमन को अपने धन का आधा हिस्सा देने को तैयार था। गरुड़ का साहस यद्यपि स्वार्थ से भरा हुआ है, पर उससे कितने ही लोगों की भलाई हुई है। उसने कितने ही लोगों की जानें बचायीं और उनके अपने लोगों को शोक सागर में डूबने से बचाया। यों वह भी एक प्रकार का पुण्यात्मा ही है। इसी वजह से वह साँप की काट से बच गया? पर, यह सब हुआ सुधेंद्र के मणि के कारण । इसलिए, उस पुण्य फल में उसका भी हिस्सा है। सुधेंद्र के मणि के कारण अनेक लोगों की भलाई हुई है। इसी कारण गरुड़ को छूते ही सुधेंद्र को शाश्वत रूप से मानव रूप प्राप्त हुआ। उसने संयम खो दिया, इसका कारण है, उसके प्रति हुआ अन्याय। वह लगभग मृत्यु की गुफ़ा में ढ़केला गया। अतः गरुड़ पर उसका जो क्रोध है, वह सहज है।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः मेखला की रचना)

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