धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पड़े के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और यथावत् श्मशान की ओर बढ़ता गया। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन, इस भयंकर वातावरण की परवाह किये बिना अपने प्रयासों में मग्न हो। क्या कभी तुमने सोचा कि अब तक तुमसे किये गये सारे के सारे प्रयत्न क्यों निष्फल हुए? आश्र्चर्य तो इस बात का है कि एक बुद्धिमान व विवेकी राजा होते हुए भी अपनी असफलता के कारणों की जड़ में नहीं जा रहे हो।
मैं तुम्हारे हठ की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता, पर तुम्हारी मूर्खता पर भी मुझे दया आती है। कभी-कभी मुझे संदेह होने लगता है कि जो लगन तुम दिखा रहे हो, वह अपन स्वार्थ की पूर्ति के लिए है या परोपकार के उद्देश्य से।
हम देखते रहते हैं कि कुछ संदर्भों में स्वार्थ और परोपकार के बीच के अंतर को जानना बहुत ही मुश्किल का काम है, क्योंकि इनके बीच का अंतर इतना महीन होता है कि हम उन्हें अलग नहीं कर पाते। उदाहरणस्वरूप मैं तुम्हें कमल की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। ध्यान से सुनो।’’ फिर वेताल कमल की कहानी यों सुनाने लगाः
कोंडापुर नामक एक बड़े गॉंव में पुरुषोत्तम नामक एक गृहस्थ रहता था। उसके दो बेटे थे। बड़े बेटे का नाम शेखर था। वह अपने पिता की ही तरह दूसरों की भलाई करता था। पर पुरुषोत्तम का दूसरा बेटा कमल स्वार्थी था। किसी की मदद करने से वह कतराता था। पुरुषोत्तम ने अपने दूसरे बेटे कमल को अच्छा बनाने का भरसक प्रयत्न किया, पर उसके प्रयत्न सफल नहीं हुए। मरने के पहले कमल को अपने पास बुलाकर पुरुषोत्तम ने उससे कहा, ‘‘बेटे, इस गांव के लोग अच्छे हैं। यहॉं तुम रह नहीं सकते। अगर तुम सुखी जीवन बिताना चाहते हो तो मेरी एक सलाह है। पास ही के जंगल के बीच एक पर्वत है। उस पर्वत पर चढ़ोगे तो बीच में एक पाताल गुफ़ा है । उस गुफ़ा में अनन्त नामक एक साधु रहते हैं। तुम उनसे मिलोगे तो तुम्हारा भला होगा।’’ यों कह चुकने के बाद वह मर गया।
कमल ने मन ही मन सोचा कि अपने बड़े भाई शेखर को पूरी संपत्ति सौंपने के उद्देश्य से ही पिता ने यह कहानी गढ़ी है। पर जब तक पिता का निधन नहीं हुआ तब तक उसे मालूम नहीं था कि अच्छाई ही उसकी एकमात्र संपत्ति है।
शेखर ने कमल से कहा, ‘‘मेरे ही साथ रहो। मैं तुम्हारी अच्छी तरह से देखभाल करूँगा।’’ कमल को लगा कि अब चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि भाई ने उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। कुछ ही दिनों में गांव के लोग कहने लगे कि भाई हो तो ऐसा, जो अपने छोटे भाई का इतना ख्याल रखता है। वे शेखर की तारीफ़ करने लगे और कमल की निंदा।
‘‘तुम्हारे कहने पर ही मैं यहॉं रह रहा हूँ। पर इसके लिए लोग मुझे दोषी ठहरा रहे हैं, मेरा अपमान कर रहे हैं।’’ कमल ने क्रोध-भरे स्वर में स्पष्ट कह डाला । इसपर शेखर ने हँसते हुए कहा, ‘‘तुम किसी की मदद नहीं करते। अगर चाहते हो कि लोग तुम्हारी प्रशंसा करें तो मेरी तरह तुम भी परोपकार करो, अच्छे मार्ग पर चलो।’’
‘‘दूसरों की भलाई करके पिताजी ने और तुमने क्या साध लिया? उस भलाई से मेरा क्या काम, जिससे एक कौड़ी भी जमा नहीं कर पाता। जीवन में बड़ा बनने की मेरी तीव्र इच्छा है। ऐसा कोई उपाय हो तो सुझाना,’’ कमल ने कहा। ‘‘संपत्ति जुटानी हो तो व्यापार करने की दक्षता चाहिये। कृषि अथवा ललित कलाओं में भी प्रवीणता चाहिये। मैं भी स्वयं ये सब नहीं जानता। तुम स्वयं धन कमाने के उपाय सोचो,’’ शेखर ने सलाह दी।
धन कमाने की इच्छा तो भरी पड़ी है, पर उसे कमाने का कोई भी मार्ग कमल नहीं जानता। इसलिए पिता के कहे अनुसार वह पर्वत की पाताल गुफ़ा में गया और साधु अनन्त से मिला। आनंद की बड़ी दाढ़ी थी और घनी मूंछें थीं। मुख मंडल पर तेजस्विता टपक रही थी। कमल ने अनायास ही उसे प्रणाम किया और कहा, ‘‘स्वामी, मेरे पिताजी ने आपसे मिलने को कहा था। मैं समझता हूँ कि आप ही स्वामी अनन्त हैं।’’
अनंत ने, उसके बारे में विवरण जानने के बाद कहा, ‘‘हॉं, मैं ही अनंत हूँ। शीघ्र ही संपन्न बनने के लिए मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ। पर, इस सहायता से, तुम्हें और मुझे कुछ परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।’’ फिर अनंत ने अपने बारे में पूरे विवरण दिये। अनंत और कमल के पिता पुरुषोत्तम एक ही गांव में जन्मे और बड़े हुए। परोपकार ही पुरुषोत्तम का एकमात्र लक्ष्य था। पर अनंत में स्वार्थ आवश्यकता से अधिक ही था।
एक बार दोनों जब पास ही के गांव की ओर जा रहे थे तब उन्होंने एक साधु को देखा, जो सड़क के किनारे गिरा पड़ा था। उसके पॉंव पर एक छोटा-सा घाव भी था। पुरुषोतम ने उसकी सहायता करनी चाही, पर अनंत ने मना किया। फिर भी उसकी बात पर ध्यान न देते हुए उसने पास ही के पौधों से कुछ पत्ते तोड़े और उसका रस साधु के घाव पर निचोड़ा।
साधु उठ बैठा और पुरुषोत्तम के कंधे को थपथपाते हुए कहा, ‘‘बेटे, मेरे पास एक महिमावान तावीज़ है। जिसके पास यह हो, वह जो भी चाहता है, उसे मिल जाता है। मैं तो साधु हूँ। इस तावीज़ से भला मेरा क्या काम? मैं इसे किसी योग्य व्यक्ति को सौंपना चाहता हूँ, इसलिए जान-बूझकर मैंने सांप के डंसने का नाटक किया। इस तावीज़ को लो और सुखी जीवन बिता।’’ यह कहते हुए साधु ने उसे तावीज़ दे दिया।
पुरुषोत्तम ने हाथ जोड़कर कहा,‘‘स्वामी, मैं साधु तो नहीं हूँ, पर मुझे इस तावीज़ की ज़रूरत नहीं है। आवश्यकता से अधिक धन दुख लाता है । आप इसे किसी और को दे दीजिये।’’
साधु ने ‘‘न’’ के भाव में सिर हिलाते हुए कहा,‘‘इस पल से तावीज़ तुम्हारा है। किसी योग्य व्यक्ति को चुनकर तुम ही उसे दे देना। अयोग्य को दोगे तो अनर्थ हो जायेगा।’’
बग़ल में ही खड़ा अनंत चाहता था कि तावीज़ को अपना बना लूँ। इसलिए उसने कहा, ‘‘स्वामी, अनर्थ क्या है और अयोग्य कौन होता है?’’
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘कुछ बातें ऐसी होती हैंै, जिनकी समझ अनुभव के बाद ही होती है। मैंने कहा था न कि किसी अयोग्य के हाथ यह तावीज़ आ जाए तो अनर्थ होगा। इसलिए कोई भी दीर्घकाल तक इस तावीज़ को अपने पास नहीं रख सकता। किसी को भी दो, यह उसी प्रथम अयोग्य के पास पहुँच जाता है। तब उस प्रथम अयोग्य में जीवन-तेजस्विता कम हो जाती है और वह साधु बन जाता है, पर मोक्ष नहीं मिलता ।’’
साधु को सुनने के बाद पुरुषोत्तम ने अनंत से कहा, ‘‘लगता है कि तुम यह तावीज़ अपनाना चाहते हो। तुम्हें इसे मैं सहर्ष देने को सन्नद्ध हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि तुम अयोग्य नहीं हो।’’ यह कहते हुए उसने तावीज़ अनंत को दे दिया।
तावीज को अपना बना लेने के बाद अनंत जो भी मांगता था, उसे वह मिल जाता था। उसका हर काम सफल होता था। परंतु इससे जो आनंद मिलता था, उसे किसी के साथ बांटने के लिए वह बिलकुल ही तैयार नहीं होता था। इसीलिए लोग उसे ईर्ष्यालु कहते थे। एक साल के ख़त्म होने के पहले ही उसने वह तावीज़ किसी और को दिया। पर एक साल के अंदर ही वह तावीज़ उसे वापस मिल गया। जब चार बार ऐसा हुआ तो जीवन से वह विरक्त हो गया। क्रमशः उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। रोशनी को देखने से भी वह डरने लगा। इन परिस्थितियों में उसने संन्यास ले लिया और इस पाताल गुफ़ा में पहुँच गया।
अपने मित्र अनंत की इस दुस्थिति को देखकर पुरुषोत्तम को दुख हुआ। उसे लगने लगा कि उसके इस दुख का कारण मैं ही हूँ। वह एक बार पाताल गुफ़ा में जाकर उससे मिला और कहा, ‘‘मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि वह तावीज़ तुम्हारी ऐसी दशा कर देगा। जब तक तुम्हें मोक्ष नहीं मिलेगा, तब तक मुझे भी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। इसलिए, उस तावीज़ से तुम मुक्त हो जाओ, इस दिशा में मैं भी प्रयत्न करूँगा।’’ उसने वादा तो कर दिया, पर इतने ही में वह मर गया।
अनंत ने, ताबीज़ से संबंधित सभी बातें कमल को बतायीं और कहा, ‘‘पुत्र, जब तक मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी, तब तक मेरे जिगरी दोस्त और तुम्हारे पिता को भी मुक्ति नहीं मिलेगी। मेरी और अपनी मुक्ति के लिए तुम्हारे पिता ने तुम्हें यहॉं भेजा, पर तावीज़ का राज़ तुमसे छिपा रखा। अपने स्वार्थ के लिए मैं तुम्हें यह तावीज़ नहीं दे सकता इसलिए मैंने तुम्हें सच बता दिया। किसी भी हालत में इस तावीज़ को एक साल से अधिक समय तक अपने पास रख नहीं सकते। मैं नहीं चाहता कि यह तावीज तुम्हें दूँ और तुम परेशानियों से घिर जाओ। फिर इसे लौटाकर मुझे फिर से परेशान कर दोगे।’’
तब कमल ने विनयपूर्वक कहा, ‘‘मेरे पिताजी परोपकारी थे। उन्हें यह भी मालूम था कि मैं बड़ा स्वार्थी हूँ। वे चाहते थे कि मेरे स्वार्थ में भी परोपकार का मिश्रण हो। यह उनका बड़प्पन है। मेरे पिताजी की आत्मा को और आपको मुक्ति मिल जाए, इसके लिए मेरा स्वार्थ उपयोग में आये तो इससे बढ़कर आनंद क्या हो सकता है। आप तावीज़ मुझे दे दीजिये। मैं वादा करता हूँ कि तावीज़ को शाश्वत रूप से अपने ही पास रखूँगा।’’
अनंत ने कमल को आशीर्वाद देते हुए उसे तावीज़ दे दिया। तावीज़ के मिल जाने के बाद कमल ने जो भी काम किया, वह कामयाब हुआ। पर अब कमल की व्यवहार-शैली में परिवर्तन हुआ। जो संपदा इस तावीज़ के कारण उसे मिली, उसका वह भोग करता रहा, पर साथ ही उनकी मदद भी करने लगा, जो कष्टों में फंसे हुए थे।
यों एक साल गुज़र गया। इस एक ही साल के अंदर कमल ने पर्याप्त संपत्ति जुटा ली। वे संक्रांति के दिन थे। प्रातःकाल ही अनंत गुफ़ा से बाहर आया और सीधे कमल के पास गया। उसने कहा, ‘‘कमल, वह तावीज़ एक बार ज़रा मुझे देना।’’
गले में लटकते हुए उस तावीज़ को कमल ने अनंत के हाथ में रख दिया। अनंत ने उसे उलट-पलट कर देखा और कमल से कहा, ‘‘एक ज़रूरी बात तुमसे कहने आया हूँ। तुम्हारे कारण तुम्हारे पिता की आत्मा को मुक्ति मिल गयी है। मुझे भी मुक्ति प्राप्त होनेवाली है। अब तुम्हें इस तावीज़ की कोई ज़रूरत नहीं है। दुर्भाग्यवश यह किसी अयोग्य के हाथ लग जायेगा तो कहानी की शुरुआत फिर से होगी।’’ यह कहते हुए उसने तावीज़ को आग में फेंक दिया और वहॉं से चलता बना।
वेताल ने यह कहानी कह चुकने के बाद राजा विक्रमार्क से कहा, ‘‘राजन, कमल के स्वार्थ ने परोपकार के लिए मार्ग प्रशस्त किया। तो क्या स्वार्थ प्रशंसनीय है? अनंत के आशीर्वाद से तावीज़ के दुष्ट प्रभावों का अंत हो गया न? मेरे संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।’’
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘स्वार्थ प्रशंसनीय तो नहीं है। पर, उससे किसी को हानि नहीं पहुँचती हो तो स्वार्थ को ग़लत नहीं कह सकते। कमल स्वार्थी है, पर बुरा नहीं है। जो काम किया जाता है उसके प्रतिफल की वह आशा करता है। अब रही तावीज़ की बात। अनंत के आशीर्वाद से तावीज़ का दुष्ट प्रभाव नहींमिटा । कमल के पिता की अच्छाई के कारण कमल में अच्छा परिवर्तन आया और इस परिवर्तन के कारण ही तावीज़ का दुष्ट प्रभाव मिट गया। उसने ताबीज़ के दुष्ट प्रभाव को भी, अच्छा आदमी बनकर मिटा दिया। उसके द्वारा उसने संपत्ति जुटा ली और अपना जीवन-स्तर बढ़ा लिया। साथ ही उसने ज़रूरतमंद लोगों की मदद की और अच्छा नाम भी कमाया। उसने अपने स्वार्थ के लिए किसी को हानि नहीं पहुँचाई, बल्कि उससे परोपकार ही हुआ। यों कमल तावीज़ पाने के योग्य साबित हुआ।’’
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा। (आधार कमलेश की रचना)

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