
धुन का पक्का विक्रमार्क फिर से पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे पर डाल लिया। फिर यथावत् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, तुम्हारा हठ देखते हुए अत्यंत आश्र्चर्य होता है। किसी दिन तुम जान जाओगे कि जिस लक्ष्य से प्रेरित होकर तुमने यह कार्य-भार अपने ऊपर लिया है, उसकी पूर्ति असंभव है और तुम्हें कदापि सफलता नहीं मिलेगी । शिव शास्त्री के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह उच्च कोटि का संगीत विद्वान था। शिष्यों के चयन के विषय में वह किसी भी स्थिति में स्थापित अपने नियमों का उल्लंघन करता नहीं था। पर अंत में उसे अपनी हार माननी पड़ी और एक अयोग्य को अपना शिष्य बनाया। उसकी कहानी सुनो।'' फिर वह शिवशास्त्री की कहानी यों सुनाने लगाः
शिवशास्त्री उच्च कोटि का संगीत विद्वान था। वह स्वरब्रह्म की उपाधि से विभूषित था। लोगों का यह मानना था कि संगीत जितना भी सीखो, उनके शिष्य हुए बिना संगीत में परिपूर्णता साधी नहीं जा सकती। परंतु शिवशास्त्री हर किसी को संगीत सिखाता नहीं था। जो संगीत प्रेमी उसके पास आते थे, वह गणेश चतुर्थी के दिन उनकी परीक्षा लेता था और उनमें से किसी एक ही को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करता था।

एक बार गणेश चतुर्थी के दिन मुकुंद और गोविंद नामक दो शिष्य चुने गये। उन दोनों में से किसी एक को चुनना शिवशास्त्री के लिए गंभीर समस्या बन गयी, क्योंकि दोनों का ज्ञान और क्षमता एक समान थे। इसलिए शिवशास्त्री ने कहा, ‘‘दो दिनों के बाद एक और परीक्षा लूँगा और निर्णय करूँगा कि किसे शिष्य बनाऊँ।''
तब से गोविंद गुरु की प्रशंसा पाने के लिए दिन-रात साधना करने लगा। पर मुकुंद गुरु की पत्नी से मिला और कहा, ‘‘माँ जी, संगीत सीखने के साथ-साथ पार्वती-परमेश्वर जैसे आप दंपति की सेवा करने की मेरी तीव्र इच्छा है। परीक्षा में गुरु मुझे अपना शिष्य बनायें, इसके लिए कोई उपाय सुझाइये।''
गुरु पत्नी को उस पर दया आ गई। उसने कहा, ‘‘तुम्हारे गुरु योग्यता को ऊँचा स्थान देते हैं। किसी और प्रकार से वे उसे अपना शिष्य नहीं बनाते। संगीत के लिए मुख्य है, मधुर कंठ स्वर। इस गाँव में सहदेव नामक एक वैद्य है, जिसके पास इसके लिए महत्वपूर्ण दवा है। उस दवा का सेवन करने पर कंठ स्वर बहुत बड़ी मात्रा में मधुर बन जायेगा।'' गुरु पत्नी ने उपाय सुझाया।
मुकुंद, सहदेव से मिला। थोड़ी देर सोचने के बाद सहदेव ने कहा, ‘‘मेरे पास जो दवा है, वह द्राव के रूप में है। इसका आवश्यकता से अधिक सेवन करने से स्वर बेसुरा हो जाता है।'' कहते हुए सहदेव ने मुकुंद को सावधान किया।
‘‘स्वर को सुरीला बनाने का काम बहुत आसान है। बताइये, इस दवा की क्या क़ीमत है?'' मुकुंद ने पूछा।
सहदेव हँस पड़ा और बोला, ‘‘कितने ही ऐसे लोग हैं, जिन्होंने मेरी दवा का सेवन किया, पर वे अपने अपस्वरों को ठीक नहीं कर सके । तुम अपने कंठ स्वर को दवाओं से नहीं, बल्कि साधना के द्वारा श्रव्य बनाओगे तो उत्तम होगा।''
सहदेव हँस पड़ा और बोला, ‘‘कितने ही ऐसे लोग हैं, जिन्होंने मेरी दवा का सेवन किया, पर वे अपने अपस्वरों को ठीक नहीं कर सके । तुम अपने कंठ स्वर को दवाओं से नहीं, बल्कि साधना के द्वारा श्रव्य बनाओगे तो उत्तम होगा।''
मुकुंद ने उसकी सलाह को मानने से इनकार कर दिया और मांगी रक़म देकर दवा ले गया। उसने वह थोड़ा-सा ही पिया कि नहीं, पहले से उसका कंठ स्वर अच्छा हो गया। इसपर खुश होकर उसने और द्राव पी लिया जिससे उसका कंठ स्वर इतोधिक श्रव्य हो गया।
परीक्षा का दिन आ ही गया। पहले गोविंद ने गाकर गुरु की प्रशंसा पायी। इसके बाद मुकुंद ने गाना शुरू किया। उसके स्वर की मधुरता पर शिवशास्त्री बेहद खुश हुआ और बोला, ‘‘शाबाश, आज तुम्हारा गाना सुनकर धन्य हो गया।''
मुकुंद उत्साह पूरित होकर आलापन के बाद जब चरण गाने लगा, तब उसमें से अपस्वर निकलने लगे। शिवशास्त्री ने उससे गाना रोकने को कहा और कहा, ‘‘अपने कंठ को श्रव्य में बदलने के लिए तुमने सहदेव की दवा का सेवन किया। तुम्हारा कंठ श्रव्य तो हुआ अवश्य, पर यह आवश्यकता से अधिक हो गया। आलापन तक तुम्हारा गाना सुनने योग्य है, पर चरणों को गाते हुए तुम्हारे स्वर में जो अपस्वर निकल रहे हैं, उन्हें सुना नहीं जा सकता। अच्छा इसी में है कि तुम संगीत भुला दो और घर लौट जाओ।''
‘‘गुरुवर, माफ़ कर दीजिये। संगीत विद्वान बनने का कोई उपाय आप ही सुझाइये।'' मुकुंद, शिवशास्त्री के पैरों पर गिर पड़ा।
शिवशास्त्री ने उसे उठाते हुए कहा, ‘‘कहते हैं कि गाते रहने से राग में निखार आता है। तुम ऊँचे सुर में गाते रहो, तो हो सकता है इसका कोई फल हो।''
मुकुंद निराश होकर गाँव लौटा। वहाँ वह ऊँचे सुर में गाने लगा तो गाँव के लोगों ने आपत्ति जतायी। मुकुंद वह गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में गया। वहाँ के लोग भी उससे तंग आ गये ।
तब मुकुंद ने एक जंगल में एक पेड़ के तले बैठ संगीत साधना शुरू कर दी। पर थोड़ी ही देर में अपने अपस्वरों को स्वयं सह नहीं पाया। उसने गाना बन्द कर दिया।
दूसरे ही क्षण उसे सुनायी पड़ा, ‘‘गाना क्यों बंद किया? और गाओ।'' मुकुंद उस आवाज़ को सुनकर चौंक पड़ा । उसने पूछा, ‘‘यह कौन बोल रहा है? सामने आ जाना।''

देखते-देखते एक पिशाच पेड़ से कूद पड़ा और उसके सामने आया। उसे देखकर वह थर-थर कांपने लगा पर पिशाच ने बड़े ही प्यार से उससे कहा, ‘‘डरो मत। इस पेड़ पर मेरे साथ और तीन पिशाच रहते हैं। इनमें से मैं ही बड़ा हूँ। हम अद्भुत शक्तियाँ रखते हैं। तुम बिना रुके गाते रहोगे तो हम ध्यान से सुनते रहेंगे।''
मुकुंद में अब साहस आ गया। उसने कहा, ‘‘आश्चर्य की बात तो यह है कि जब तक मैंने नहीं गाया था, तब तक तुम्हें गाने के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी।''
‘‘संगीत के बारे में हमें बहुत कुछ मालूम है । एक जमाने में हम मनुष्य बनकर नगरों में घूमा करते थे। संगीत सभाओं में अपस्वरों को सुनना हमारे लिए साधारण बात थी । पर शिवशास्त्री नामक एक मनुष्य संगीत का नाश कर रहा है। तुम्हारा गाना सुनना हमारे लिए सौभाग्य की बात है।'' बड़े पिशाच ने कहा।
तब से लेकर मुकुंद निरंतर संगीत साधना उन चार पिशाचों के सम्मुख करता रहा। क्रमशः उसके स्वर में जो अपस्वर फूट पड़ते थे, वे उसे बहुत अच्छे लगने लगे। उसने ठान लिया कि मैं मनुष्यों के बीच जाकर शिवशास्त्री के मुकाबले में अपने संगीत का प्रचार करूँगा।
उसके इस विचार से पिशाच भी सहमत हुए। मनुष्यों के रूप में उसके साथ जाने के लिए वे भी तैयार हो गये। निकलने के पहले मुकुंद ने पिशाचों से कहा, ‘‘मनुष्यों की अभिरुचियों में परिवर्तन लाना हो तो हमें उन्हें कुछ समय तक ज़बरदस्ती अपना संगीत सुनाना होगा। विचित्रताएँ दिखानी होंगी। इसके लिए बड़ी रकम की ज़रूरत पड़ेगी।''
बड़े पिशाच ने उत्साह-भरे स्वर में कहा, ‘‘धन की तुम चिंता मत करो। बस, बता दो कि कितनी रक़म और कैसी विचित्रताओं की तुम्हें ज़रूरत है?''
उनकी इन बातों से मुकुंद बेहद खुश हुआ। मनुष्य-रूपधारी पिशाचों को लेकर उसने एक नगर में प्रवेश किया। वह नगरपालक प्रमोद से मिला। प्रमोद ने उनके ठाठ-बाट को देखकर उनका स्वागत-सत्कार किया।
मुकुंद ने प्रमोद से कहा, ‘‘इस सृष्टि में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। ब्रह्म से लेकर समस्त जीवों के विषय में भी यह सत्य है। उसी प्रकार सभी स्वरों के विषय में भी यह सत्य है। अब तक लोग स्वरब्रह्म शिवशास्त्री की संगीत परंपरा के अनुसार समझते हैं कि संगीत सुस्वर मात्र है।

‘‘अपस्वर मिश्रित अद्भुत संगीत सुनाने की मेरी क्षमता है। मैं आपको धन दूँगा। आप मेरे बारे में बड़े पैमाने पर प्रचार कीजिये।''
धन लेकर प्रमोद ने अपस्वरब्रह्म के बारे में विस्तृत रूप से प्रचार किया। उसके प्रथम प्रदर्शन पर बड़ी संख्या में लोग आये। मुकुंद के अपस्वरों से भरे कंठस्वर को सुनकर उनका मनोरंजन हुआ। पिशाचों ने भी इस संगीत सभा में उसका साथ दिया। लोगों की भीड़ को आकर्षित करने के लिए पिशाचों ने विचित्रताओं की भी सृष्टि की।
यह प्रदर्शन बहुत लोगों को बड़ा अच्छा लगा। जिन्हें अच्छा नहीं लगा, उन्होंने भी कहा कि यह परिवर्तन आवश्यक है और अच्छा भी है। वे एक के बाद एक ये प्रदर्शन चलाते रहे और क्रमशः जनता को भी इसकी आदत पड़ गयी। वे अपस्वर ब्रह्म के संगीत को चाहने लगे और स्वरब्रह्म की संगीत परंपरा से चिढ़ने लगे। देश के राजा ने मुकुंद का सम्मान बड़े वैभव के साथ किया और उसे अपस्वरब्रह्म की उपाधि प्रदान की।
कुछ संदर्भों में लोगों ने मुकुंद से पूछा भी, ‘‘अपस्वरों से लोगों को आकर्षित करनेवाले संगीत की सृष्टि हो सकती है, यह विचार आपके दिमाग़ में कैसे उभर आया?''
मुकुंद जानता था कि उन्हें पूरी सच्चाई बतायी जाए तो वे उसकी हँसी उड़ायेंगे, इसलिए उसने कहा, ‘‘मैं आज इतना बड़ा संगीतकार हूँ, इसका श्रेय स्वरब्रह्म शिवशास्त्री व सहदेव वैद्य को जाता है। इससे ज्यादा बता नहीं सकता।''
इन परिस्थितियों में, शिवशास्त्री का शिष्य गोविंद मुकुंद को ढूँढ़ता आया। उसने कहा, ‘‘मुकुंद, इतने दीर्घ काल के बाद तुम्हारा भाग्य चमक उठा है। गुरुजी तुम्हें संगीत सिखाना चाहते हैं। तुम्हें लाने के लिए उन्होंने मुझे भेजाहै ।''
यह सुनते ही मुकुंद आश्चर्य में डूब गया और कहा, ‘‘सचमुच ही यह मेरा सौभाग्य है। आखिर देवताओं ने मुझपर करुणा दिखायी। चलो, चलते हैं।'' फिर दोनों तुरंत निकल पड़े।

मानव रूपधारी पिशाचों ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘मुकुंद, सावधान। तुम्हारा कंठस्वर बदल देंगे। तुम्हारे यश को मटियामेट कर देंगे। तुम्हें बदनाम कर देंगे।''
गोविंद उनकी चेतावनी पर चकित हो ही रहा था कि इतने में मुकुंद ने कहा, ‘‘छोडो गोविंद, यह सब कुछ एक विचित्र कथा है।'' यह कह कर वह उसे खींचते हुए आगे बढ़ा।
वेताल ने कहानी सुनाने के बाद पूछा, ‘‘राजन्, मुकुंद अपने अपस्वर संगीत के बल पर प्रख्यात हुआ। पिशाचों ने उसे चेतावनी दी, फिर भी उनकी परवाह किये बिना वह शिवशास्त्री के पास क्यों गया? अब रही शिवशास्त्री की बात। मुकुंद को अपना शिष्य बनाने से उसने पहले इनकार कर दिया और उसे घर लौटने की सलाह दी। मुकुंद की ख्याति को देखकर कहीं उसमें ईर्ष्या तो पैदा नहीं हो गयी? मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘मुकुंद संगीत सीखने की अभिलाषा रखता था । पहले वह इस प्रयत्न में विफल हुआ। पर संयोगवश पिशाचों के चंगुल में फंस गया और अपस्वर ब्रह्म बना। जनता को आकर्षित करने के लिए उसने सिर्फ संगीत को ही अपना साधन नहीं बनाया, बल्कि पिशाचों द्वारा दिखायी जा रही विचित्रताएँ भी इस सफलता के कारण थे । ऐसे व्यक्ति को जब अच्छा संगीत सीखने का अवसर मिलता है, वह उसे हाथ से जाने नहीं देता। इसी कारण वह स्वरब्रह्म शिवशास्त्री के पास सहर्ष गया। उसने पिशाचों की चेतावनी की परवाह नहीं की, क्योंकि वह जानता था कि अब ये अपस्वर निकल जायेंगे और सुस्वर आ जायेंगे। शिवशास्त्री ने उसे संगीत सिखाने के लिए बुलाया, इसका भी एक प्रबल कारण है। मुकुंद अपने अपस्वर से शास्त्रीय-संगीत को भ्रष्ट कर रहा था । वह इससे संगीत को बचाना चाहता था। यह समझना ग़लत है कि शिवशास्त्री ने ईर्ष्यावश यह काम किया।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
-‘‘वसुंधरा'' की रचना

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