Saturday, July 9, 2011

कामेश की संगीत सभा

रामेश और कामेश पड़ोसी हैं। गाँव के लोगों का कहना है कि रामेश मिलनसार है, उसके बोलने का तरीक़ा बड़ा ही मीठा होता है और उसकी वाक् पटुता सराहनीय है। किन्तु कामेश का स्वभाव इसके बिल्कुल विपरीत है। जब कभी भी मौक़ा मिलता है, वह रामेश की खिल्ली उड़ाता है, उसपर ताने कसता है और अपने को बड़ा साबित करने की व्यर्थ कोशिश करता रहता है।
एक बार रामेश और कामेश को, बग़ल के गाँव के एक संपन्न भूस्वामी से, उसके बड़े बेटे के विवाह का निमंत्रण-पत्र मिला। दोनों गये। शाम तक विवाह का कार्यक्रम पूरा हुआ। रात को भोजन के बाद संगीत सभा आयोजित हुई।
रात के आठ बज गये, पर वह संगीत विद्वान नहीं आया, जिसे संगीत सभा में गाना था। दुलहे के बाप ने इसके लिए अतिथियों से क्षमा माँगी और कहा, ‘‘बजानेवाले सब तैयार बैठे हैं परंतु गायक अब तक आये ही नहीं।''
दुलहे के रिश्तेदारों में से दो-तीन आदमियों ने दुलहे के पिता से कहा, ‘‘आप चिंता मत कीजिये। यह सौभाग्य की बात है कि यहाँ रामेश और कामेश उपस्थित हैं। हमने सुना कि इन दोनों में से कामेश बड़े ही अच्छे गायक हैं। वे क्यों न गाना गायें?''
अतिथियों ने ज़ोर दिया तो कामेश को गाना ही पड़ा। गाते हुए कामेश को लगा कि उसका स्वर मधुर है और अतिथि इसका मज़ा ले रहे हैं। कुछ लोगों ने उसकी तारीफ़ भी की। पर, रामेश चुप रहा। इस पर कामेश नाराज़ हो उठा।
गाँव लौटने के बाद कामेश अपने संगीत ज्ञान की खुद तारीफ़ करने लगा तो तीन प्रमुख व्यक्ति आगे आये, जिन्होंने अनेक संगीत सभाओं में बाजे बजाये थे और नाम कमाया था।
उनके सहयोग से उसी रात को कामेश की संगीत सभा का प्रबंध हुआ। गाना शुरू करते ही, लोगों को यह जानने में देर नहीं लगी कि कामेश को संगीत का थोड़ा भी ज्ञान नहीं है और वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना ही संगीत समझता है। वे मन ही मन हँसते रहे।

संगीत सभा जब खत्म हुई, कामेश ने कहा, ‘‘सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ त्यागराज को भी मैंने भुला दिया है। मेरे गंधर्व गान पर कृपया अपने-अपने अभिप्राय व्यक्त कीजिये।''
कुछ लोगों ने विवश होकर उसकी झूठी तारीफ़ की। उनमें से वे लोग भी थे, जिन्होंने बाजे बजाये।
परंतु, रामेश को चुप पाकर कामेश ने कहा, ‘‘तुम्हारी चुप्पी शोभा नहीं देती। मैं चाहता हूँ कि इस संगीत सभा पर तुम अपनी राय दो।''
कामेश समझता था कि अगर उसकी तारीफ़ रामेश नहीं करे तो गाँववाले उसे ईर्ष्यालु मानेंगे और उसकी भर्त्सना करेंगे। किन्तु रामेश ने कहा, ‘‘सिर्फ मैं ही नहीं, यहाँ बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्होंने कुछ नहीं कहा। उनकी राय ही मेरी भी राय है।''
रामेश की बातों में जो व्यंग्य छिपा हुआ था, उसे बहुत लोगों ने समझ लिया, इसलिए वे हँसते रहे। कामेश नाराज़ हो उठा और जिद पकडी कि रामेश को अपनी राय बतानी ही पडेगी। रामेश ने उन तीनों बाद्य बजानेवालों की प्रशंसा की और चुप रह गया।
‘‘तुमने तो मेरे गाने के विषय में कुछ भी नहीं कहा,'' कामेश ने पूछा।
‘‘जो बाजे बजा रहे थे, उन तीनों ने तुम्हारे गाने की प्रशंसा की। पर उनमें से किसी ने भी अपने बारे में एक भी शब्द नहीं कहा। इसका मतलब हुआ कि आत्म प्रशंसा करने में तुम्हारी प्रतिभा असाधारण है और वे तीनों उस प्रतिभा से वंचित हैं। जो काम वे नहीं कर सकते, वह काम मैं कर रहा हूँ। मैं उन्हीं की सहायता करता हूँ,जो कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं होते। तुम जैसे योग्यों की सहायता करने की मेरी आदत नहीं है। इसीलिए मैंने तुम्हारी तारीफ़ नहीं की।''
यों कामेश, रामेश के हाथों एक और बार मात खा गया।



दूध का व्यापारी

एक गाँव में शिवनाथ नामक एक युवक था। वह बड़ा ही नटखट था। इसलिए गाँववाले उसको पसंद नहीं करते थे। वह पढ़-लिख भी न पाया।
एक बार उस गाँव में एक मशहूर ज्योतिषी आया। उसने गाँव के बीच में स्थित एक बरगद के नीचे अपना डेरा डाला। शीघ्र ही यह ख़बर गाँव में फैल गई कि ज्योतिषी भविष्य बतलाने में बेजोड़ है। शिवनाथ ने भी अपना भविष्य जानने के लिए ज्योतिषी को अपना हाथ दिखाया।
ज्योतिषी ने शिवनाथ का हाथ देखा और, झट उसे हटाते हुए कहा, ‘‘मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसे भाग्यशाली का हाथ आज तक न देखा। तुम मिट्टी भी छुओगे तो सोना बन जाएगी।''
इन बातों पर ख़ुद शिवनाथ भी यक़ीन नहीं कर पाया। गाँववाले तो हँस पड़े। इस पर ज्योतिषी ने उन्हें समझाया, ‘‘शास्त्र कभी झूठा नहीं हो सकता। यदि क़िस्मत ने साथ दिया तो किया हुआ अपराध भी वरदान बन सकता है।''
गाँववालों ने शिवनाथ का परिहास किया था, इसलिए शिवनाथ ने निश्चय कर लिया कि किसी तरह उसे बड़ा आदमी बन जाना चाहिए। मगर बड़ा आदमी कैसे बने, वह जानता न था।
किसी व्यक्ति ने शिवनाथ को सलाह दी, ‘‘पहले तुम थोड़ा-बहुत धन कमाओगे तो बड़प्पन तुम्हारी खोज़ करते अपने आप आ जाएगा।'' लेकिन शिवनाथ धन कमाने का तरीक़ा भी नहीं जानता था। वह काम-धाम करना जानता न था, और पढ़ा-लिखा भी न था।
शिवनाथ को लगा कि गाँववालों का उसके प्रति अच्छा विचार नहीं है, इसलिए पहले उसे गाँव को छोड़ देना चाहिए। एक दिन सवेरे वह अपने गाँव को छोड़कर चल पड़ा। जंगल में प्रवेश करके चलता गया। एक जगह एक पेड़ के नीचे कोई व्यक्ति सोते हुए उसे दिखाई दिया। उसकी बग़ल में एक तलवार और एक गठरी भी थी।


शिवनाथ ने गठरी खोलकर देखी। उस में सोने के सिक्के भरे थे। उसे ज्योतिषी की बातें याद आईं। फिर क्या था, उस गठरी और तलवार को लेकर भाग खड़ा हुआ।
इस बीच सोनेवाला व्यक्ति उठ बैठा। असली बात जानकर वह शिवनाथ का पीछा करने लगा। शिवनाथ ने घूमकर देखा। उसे लगा कि वह उस व्यक्ति से बचकर भाग नहीं सकता। वह रुका। इतने में वह व्यक्ति उसके निकट आया। शिवनाथ ने तलवार उस आदमी की छाती में भोंक दी।
वह आदमी चीत्कार करके वहीं पर गिर पड़ा। वह आदमी थोड़ी देर तक छटपटाता रहा, फिर उसने दम तोड़ दिया। इसे देख शिवनाथ स रह गया। उसने चोरी के साथ हत्या भी की है। फिर भी वह अपने हाथ लगे सोने को त्यागना नहीं चाहता था। वह तेजी से चल पड़ा। घंटे भर में जंगल के पार वह एक गाँव में पहुँचा।
उस गाँव में सबसे पहले जिस व्यक्ति ने शिवनाथ को देखा, उसने पूछा, ‘‘तुम्हारे कपड़ों में यह ख़ून कैसा?''
तब तक शिवनाथ नहीं जानता था कि उसके कपड़ों पर ख़ून लगा है। उसने झट जवाब दिया, ‘‘किसी चोर ने मेरा धन लूटना चाहा, मैंने उस पर तलवार चलाई। बस, उसी का ख़ून है।''
पल भर में यह ख़बर सारे गाँव में फैल गई। गाँव के कुछ लोग शिवनाथ के बताये स्थान पर जंगल में पहुँचे। वह मृत व्यक्ति और कोई न था, बल्कि ‘‘कालयम'' नामक एक नामी डाकू था। गाँवाले बड़े प्रस हुए। उन्हें एक खतरनाक डाकू से राहत मिली। सब ने शिवनाथ की प्रशंसा की। राजा ने भी यह ढिंढोरा पिटवाया था कि उस डाकू को मारनेवाले को दस हज़ार सिक्कों का इनाम दिया जाएगा। वह बात गाँव के लोगों ने शिवनाथ को बताई और जयकारों के साथ उसको अपने गाँव में ले आये। यह जानकर कि शिवनाथ का अपना कोई गाँव नहीं है, सबने उसको अपने ही गाँव में रह जाने का अनुरोध किया। शीघ्र ही उसे राजा का इनाम भी प्राप्त हुआ।

अब शिवनाथ के पास काफ़ी धन था, मगर बड़ा आदमी बनने के लिए वह पर्याप्त न था। अधिक धन कमाने के ख़्याल से उसने कई भैंसें ख़रीद कर दूध का व्यापार शुरू किया। ज़्यादा लाभ उठाने के लिए वह दूध में पानी मिलाने लगा।
इस व्यापार में एक छोटी अड़चन पैदा हो गई। शिवनाथ जिस गाँव में रहता था, उस गाँव के लिए पानी का प्रबंध न था। ग्रामवासी दूर की नदी से पानी लाया करते थे। जो लोग ख़ुद पानी न ला सकते थे, वे मज़दूरी देकर मँगवा लेते थे। शिवनाथ भी स्वयं पानी ख़रीदता था। ज्यों ज्यों उसका दूध का व्यापार बढ़ने लगा, त्यों त्यों उसे ज़्यादा पानी की भी ज़रूरत पड़ी। उसने सोचा कि अधिक मजूरी देकर पानी खरीदने पर लाभ घट जाएगा। अलावा इसके यदि शिवनाथ पानी ज़्यादा ख़रीद ले तो दूध में पानी मिलाने की बात खुल जाएगी।
इसलिए शिवनाथ ने अपने पिछवाड़े में ही एक कुआँ खुदवाना चाहा। यह काम गुप्त रूप से उसने पड़ोसी गाँव से मजदूरों को बुलवाकर रात में करवाया। उसकी क़िस्मत इस काम में भी खुल गई। उस गाँव के अनेक लोगों ने कुएँ खुदवाये, पर किसी के भी कुएँ में पानी न आया। मगर शिवनाथ के कुएँ में दस फुट की गहराई में ही मीठा पानी निकल आया। अब उसे पानी ख़रीदने की ज़रूरत न रही। मगर वह अपने घर के उपयोग के लिए थोड़ा पानी अब भी ख़रीदता था।
फिर भी शिवनाथ के दूध के बारे में गाँववालों में शंका पैदा हो गई। सब ने शिकायत की कि दूध का स्वाद पहले जैसा नहीं है। उसने बताया कि भैंसों में ही कोई ख़राबी है। पर गाँववालों ने यह बात भी मान ली। फिर भी उसकी भैंसों का दूध बिलकुल अच्छा न लगता था। शिवनाथ के साथ स्पर्धा न कर सकने की हालत में दूध के सब व्यापारी गाँव को छोड़ चले गये। इसलिए गाँववालों को शिवनाथ के यहाँ से ही दूध खरीदना पड़ता था।
इस हालत में गाँव के एक साहसी युवक ने राजा के पास जाकर शिवनाथ की शिकायत की और यह भी निवेदन किया कि शिवनाथ का काफ़ी नाम है, इसलिए जाँच गुप्त रूप से हो तो अच्छा होगा। राजा के एक गुप्तचर ने शिवनाथ के दगे का पता लगाया।

राजा ने शिवनाथ को बंदी बनाया। न्यायालय में खड़ा करके राजा ने पूछा, ‘‘यह साबित हो गया है कि तुम दूध में ज़्यादा पानी मिलाकर बेचते हो। इसका तुम क्या जवाब दोगे?''
‘‘महाराज, आप आज्ञा दीजिए कि मैंने कैसी मिलावट की है?'' शिवनाथ ने पूछा।
‘‘दूध में पानी मिलाया।'' राजा ने कहा।
‘‘महाराज! मैंने दूध में पानी नहीं मिलाया। पानी में ही दूध मिलाया। मैं जो पानी बेचता हूँ, उस में दूध की अपेक्षा पानी ही ज़्यादा है।'' शिवनाथ ने जवाब दिया।
न्यायालय में उपस्थित सभी लोग हँस पड़्रे। ‘‘यह तो और अन्याय है!'' राजा ने कहा।
‘‘महाराज! मैं पानी का व्यापारी हूँ, दूध का नहीं। हमारे गाँव के लोगों की ख़ास ज़रूरत पानी है, उसके वास्ते वे लोग काफ़ी धन ख़र्च कर रहे हैं।'' शिवनाथ ने समझाया।
शिवनाथ के मुँह से ये शब्द सुनते ही उस गाँव के मुखिये ने राजा से कहा, ‘‘महाराज, यह बात सच है! शिवनाथ साधारण व्यक्ति नहीं है। इसने कालयम नामक डाकू से हमें बचाया है। ऐसा व्यक्ति मिलावट करता है, यह बात विश्वास करने की नहीं है। मुझे लगता है कि हमारे गाँव में पानी की तंगी की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने के लिए ऐसा किया होगा।''
ये बातें सुनकर राजा क्रोध में आ गया और गरज कर बोला, ‘‘आज तक तुम लोग क्या कर रहे थे? मेरी सेवा में प्रार्थना पत्र क्यों नहीं भेजा?''
‘‘महाराज! हमने कई प्रार्थना-पत्र भेजे, मगर आपके अधिकारी जनता के अपराधों की जाँच में जो दिलचस्पी ले रहे हैं, वैसी जनता की प्रार्थनाओं पर नहीं लेते।'' गाँव के मुखिये ने कहा।
इसके बाद राजा ने शिवनाथ को मुक्त किया, उसकी प्रशंसा की और इनाम दिये। तब नदी से उसके गाँव तक एक नहर खुदवाई। गाँववालों ने यही सोचा कि शिवनाथ की कृपा से ही उन्हें वह नहर प्राप्त हुई है। इसके बाद शिवनाथ ने यश और प्रतिष्ठा के साथ करोड़ों रुपये कमाये। गलत रास्ते से धन कमाना छोड़ विवाह किया और आराम से अपने दिन व्यतीत करने लगा।





Tuesday, July 5, 2011

स्वार्थ में निःस्वार्थ

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर ड़ाल लिया और श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के बेताल ने कहा, ‘‘राजन्, इस भयंकर श्मशान में निधड़क घूम-फिर रहे हो पर मैं यह नहीं जानता कि तुम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ऐसा कर रहे हो या निस्वार्थ लक्ष्य को साधने के लिए इतना परिश्रम कर रहे हो। पर, लोक व्यवहार शैली को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि स्वार्थ को केंद्र बिंदु बनाकर प्रायः मानव व्यवहार करते हैं, उसी की पूर्ति के लिए अपना पूरा बल लगाते हैं। निस्वार्थता, परमार्थता, परोपकार आदि केवल बहाने मात्र हैं। वे मासूम मनुष्यों को जाल में फंसाने के लिए ही हैं। धोखेबाज़ अपने स्वार्थ के लिए इन्हें उपयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए सजीव नामक वैद्य की कहानी सुनाऊँगा। ध्यान से सुनो और अपने लक्ष्य का निर्णय कर लो। फिर वेताल सजीव की कहानी यों सुनाने लगाः

रसपुर विरूपदेश का एक छोटा शहर था। वहाँ के व्यापारी रत्नाकर के तीन बेटे थे। बड़े दोनों बेटों की शादी हो गयी और वे व्यापार में पिता को सहायता पहुँचाने लगे । यद्यपि तीसरा बेटा बीस साल की उम्र का हो गया, पर व्यापार में उसे कोई रुचि नहींथी । उल्टे जो भी उससे धन की सहायता मांगते थे, आगे-पीछे सोचे बिना दे देता था। बड़े और छोटे भी मीठी-मीठी बातें कहते हुए उसे बहकाते थे और उससे धन ऐंठते थे। घर के लोगों को यह पसंद नहीं था। रत्नाकर बेटे की इस आदत से बहुत परेशान था। पत्नी ने उसे सुझाया कि उसका विवाह कर दिया जाए तो हो सकता है, उसमें सुधार आये। रत्नाकर के एक दोस्त ने उससे कहा, ‘‘सजीव का हृदय बड़ा ही कोमल है। उसमें दया, परोपकार आदि सद्गुण भरे हुए हैं। परंतु दुख की बात तो यह है कि उसमें लोकज्ञान रत्ती भर भी नहीं। मेरी बेटी मनोरमा दयालु है, पर उसमें लोकज्ञान भी है। वह अ़क्लमंद है। उससे शादी करवाओगे तो वह उसमें सुधार ले आयेगी।''
रत्नाकर ने उसकी सलाह मान ली और जल्दी ही मनोरमा, सजीव की पत्नी बनी। पिता की बातों को सच साबित करते हुए उसने थोड़े ही समय में सजीव को अपना बना लिया। वह जो भी कहती, उसे सजीव मान लेता था। उसने एक दिन पति से कहा, ‘‘तुम दयालु हो। जो भी सहायता मॉंगता है, उसे धन देकर सहायता पहुँचाते हो। घर के सब लोगों का यही कहना है कि जिस किसी को भी दान देते हो, उससे उनमें से कोई भी सुखी नहीं है। तुम्हें साबित करना होगा कि उनकी बातों में सच्चाई नहीं है अथवा अपनी पद्धति में परिवर्तन करो और घर के लोगों को संतुष्ट करो।'' सजीव ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया और वह पहले संजय के घर गया, जिसे उसने धन देकर सहायता पहुँचायी। तब संजय अपने घर के चबूतरे पर निराश बैठा हुआ था।
सजीव को देखते ही उसने कहा, ‘‘तुमने जो रक़म दी, उससे कल ही मेरे घर में पकवान बने। हम सबके सब सकुशल हैं, पर मेरे पिता व मेरे छोटे बेटे को अजीर्ण हुआ, बदहज़मी हुई।

वैद्य ने दवा दी। उससे मेरे छोटे बेटे की तबीयत तो ठीक हो गयी पर मेरे पिता अब भी बीमार हैं। वैद्य ने तीन दिनों तक उन्हें उपवास रखने के लिए कहा। पिताजी नाराज़ होकर रक़म देनेवाले तुम्हें और पकवान बनानेवाले मुझे लगातार गालियाँ दे रहे हैं।''
घरवालों की बात सही निकली, फिर भी उसका उत्साह कम नहीं हुआ। उसे विश्वास था कि सबके विषय में ऐसा नहीं हुआ होगा। वहाँ से निकलकर वह सुग्रीव के घर की तरफ़ बढ़ा। उसके दरवाज़े पर ही उसे गालियाँ सुनायी पड़ीं। कल ही सुग्रीव बेटी की मंगनी के लिए उससे धन लेकर गया था। आज उसकी बेटी बुखार से पीड़ित है। उसे देखने जो आये थे, उसे रोगी ठहराकर वापस चले गये। उनकी शिकायत थी कि सजीव का दिया हुआ धन रास नहीं आया, इसलिए यह रिश्ता टूट गया। वे सजीव को गालियाँ देने लगे।
सजीव लौटा, पर निराश नहीं हुआ। बड़ी आशा लेकर वह चार-पाँच लोगों के घर गया, किन्तु हर जगह उसने यही स्थिति पायी। सजीव को मालूम हो गया कि जिस-जिस को उसने धन देकर सहायता पहुँचायी, वे संतुष्ट नहीं हैं। सब कुछ उसने सविस्तार पत्नी को बताया। फिर उसने पत्नी से कहा, ‘‘दोस्तों को खुश रखने के लिए मैंने जो पद्धति अपनायी, भले ही वह ठीक न हो, पर मेरी वजह से उनकी ज़रूरतें तो पूरी हुई हैं न? इससे बढ़कर कोई अच्छी पद्धति हो तो बताना। अवश्य उसे अमल में लाऊँगा।''
मनोरमा ने फ़ौरन कहा, ‘‘मनुष्य को सच्ची तृप्ति देता है, आरोग्य। जिसका आरोग्य ठीक नहीं होता, चाहे वह कितना ही संपन्न हो, सुखी नहीं रह सकता। तुम अगर चाहते हो कि तुम्हारे दोस्त और परिचित लोग सुखी रहें तो तुम वैद्य विद्या सीखना। धनी लोगों से धन लेना और गरीबों की चिकित्सा मुफ़्त में करना।''
‘‘वैद्य विद्या सीखने में बहुत साल लग जायेंगे न?'' सजीव ने संदेह प्रकट किया।
‘‘बृहदारण्य में असव नामक तपस्वी हैं। वे योग्य शिष्य को एक ही साल में वैद्य शास्त्र सिखा सकने की क्षमता रखते हैं। तुम वहाँ जाओगे तो शीघ्र ही योग्य वैद्य बन सकते हो'', मनोरमा ने कहा।

सजीव उसी दिन बृहदारण्य गया और असव से मिला। उन्होंने उसे अपना शिष्य बनाया और एक ही साल में वैद्य शास्त्र में उसे पारंगत बना दिया। विद्याभ्यास की पूर्ति के बाद असव ने सजीव से कहा, ‘‘मैंने चिकित्सा की ऐसी-ऐसी पद्धतियाँ तुम्हें सिखायीं, जो दुनिया के किसी भी वैद्य को नहीं मालूम हैं। पर चंद ऐसे भी रोग हैं, जिनकी चिकित्सा दवाओं से नहीं हो सकती। मेरे पास एक ऐसा भी ग्रंथ है, जिसमें ऐसे रोगों की चिकित्सा के मंत्र हैं। सेवा भाव से निस्वार्थ होकर जो चिकित्सा करते हैं, वे ही इस ग्रंथ को पाने के योग्य हैं । जब यह साबित होगा, तब कोई न कोई मेरी पुकार तुम तक पहुँचायेगा। जब तुम आओगे तो यह ग्रंथ तुम्हारे सुपुर्द करूँगा।''
सजीव गुरु का आशीर्वाद पाकर रसपुर लौटा और पत्नी मनोरमा को पूरा विषय बताया। पत्नी के कहे अनुसार वह गरीबों से बिना शुल्क लिये और धनी लोगों से अधिक रक़म लेकर उनकी चिकित्सा करने लगा। सजीव की दवा अचूक थी, इसलिए लोग दूर-दूर से आने लगे।
एक दिन एक साधु जीवन के घर के सामने खड़े होकर ‘‘भिक्षांदेहि'' कहने ही वाला था कि इतने में उसने देखा कि सजीव एक गरीब रोगी की चिकित्सा ध्यान मग्न होकर कर रहा है। इतने में बग्गी से एक अमीर आया, और बोला, ‘‘वैद्योत्तम, आप जितनी रक़म चाहते हैं, दूँगा। पहले मेरे रोग की चिकित्सा कीजिये।'' उसके स्वर में गर्व था ।
सजीव ने उसे नख से शिख तक ग़ौर से देखा और कहा, ‘‘आप जो धन देंगे, उसे अवश्य लूँगा, लेकिन चिकित्सा के पहले रोग का निदान करना आवश्यक है। जब आपकी बारी आयेगी, खुद मैं आपको बुलाऊँगा। तब तक क़तार में बैठ जाइये।''
तब सजीव की दृष्टि उस साधु पर पड़ी। उसने साधु को प्रणाम किया और कहा, ‘‘आज आप मेरे साथ भोजन करके हमें कृतार्थ कीजिये।''
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘काम पूरा कर लेने के बाद अंदर आना। दोनों मिलकर भोजन करेंगे।'' कहते हुए वह घर के अंदर गया।

सजीव ने सब रोगियों की परीक्षा की, उन्हें आवश्यक दवाएँ दीं और देरी से अंदर आया। उसने साधु से देरी से आने के लिए क्षमा माँगी तो साधु ने कहा, ‘‘रोगियों के प्रति तुम्हारी श्रद्धा, धन के लिए न झुकनेवाला तुम्हारा निस्वार्थ सेवा भाव व साधुजनों के प्रति तुम्हारा आदर भाव अद्भुत है। ऐसे वैद्य बिरले ही होते हैं। असव के वैद्य मंत्र ग्रंथों को पाने की योग्यता तुममें है। तुरंत बृहदारण्य जाने के लिए निकलो।''
सजीव ताड़ गया कि यह व्यक्ति असव का भेजा हुआ व्यक्ति ही है। उसने पत्नी मनोरमा से यह बात बतायी। उसने पति से कहा, ‘‘बृहदारण्य आने-जाने में कम से कम एक हफ्ता लगेगा। जाइये अवश्य, लेकिन तब जाइये, जब रोगी न हों।'' सजीव ने यही बातें साधु से कहीं। उसने इसे ठीक माना और भोजन करके चला गया।
इसी बीच उस देश के राजा भीमसेन की माँ सख्त बीमार पड़ी। राजवैद्य की कोई भी दवा काम नहीं आयी। राजा ने सजीव को खबर भेजी। पत्नी की सलाह लेकर सजीव ने दूत से कहा, ‘‘मैं यहाँ से जाऊँगा तो कितने ही रोगियों को कष्ट पहुँचेगा। प्रजा हित चाहनेवाले हमारे राजा भी इससे संतुष्ट नहीं होंगे। अच्छा यही होगा कि चिकित्सा के लिए राजमाता को ही यहाँ ले आयें।''
दूसरे दिन साधु सजीव से मिला और साहस, निस्वार्थता की भरपूर प्रशंसा की। उसने सलाह दी कि वह तुरंत बृहदारण्य जाए और मंत्र ग्रंथ को ले आये। पर सजीव ने पहले की ही तरह जवाब दिया।
इसके कुछ दिनों के बाद रसपुर के धनाढ्य महेंद्र सख्त बीमार पड़ गया। सजीव को उसके रोग की गहराइयों का पता नहीं चला और पशोपेश में पड़ गया कि क्या किया जाए। तब साधु मनोरमा से मिला और कहा, ‘‘महेंद्र के रोग की चिकित्सा मंत्रों से हो सकती है। अब ही सही, अपने पति को बृहदारण्य भेजो।''
मनोरमा ने भी इसे आवश्यक माना और पति से बृहदारण्य जाने को कहा। पर, सजीव ने नहीं माना। तब मनोरमा ने साधु की सलाह पर नाटक किया, मानों वह बहुत ही बीमार हो। सजीव ने दवा दी, पर मनोरमा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कोई और चारा न पाकर जब वह साधु से मिला, तब उसने सलाह दी कि वह तुरंत बृहदारण्य जाए और वह वैद्य-ग्रंथ ले आये। नहीं तो उसकी पत्नी ख़तरे में पड़ जायेगी।

मनोरमा ने भी जाने पर ज़ोर दिया तो वह बृहदारण्य गया और असव से वह ग्रंथ लेकर लौटा। महेंद्र के साथ-साथ कितने ही रोगियों की चिकित्सा उसने इस ग्रंथ में बतायी चिकित्सा पद्धति के द्वारा की और उनका रोग दूर किया।
वेताल ने यह कहानी बतायी और पूछा, ‘‘राजन्, साधु ने बहुत बार सजीव से बृहदारण्य जाने को कहा, पर वह नहीं गया। किन्तु जब उसकी पत्नी बीमार पड़ी तो वह बृहदारण्य गया। क्या यह स्वार्थ नहीं? अगर वैद्यमंत्र ग्रंथ अपने पास होता तो महेंद्र जैसे धनाढ्य़ों की चिकित्सा करके बहुत बड़ी मात्रा में धन कमाया जा सकता था, इसीलिए मनोरमा ने अपने पति को बृहदारण्य जाने के लिए बाध्य किया। क्या यह मनोरमा का स्वार्थ नहीं? यों दो प्रकार के स्वार्थों के वश में आकर आये सजीव को असव का मंत्र ग्रंथ देना क्या नियम भंग नहीं है, क्योंकि उसने कहा था कि यह ग्रंथ निस्वार्थियों को ही दिया जायेगा। मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
राजा विक्रमार्क ने कहा, ‘‘अग्नि को साक्षी बनाकर सजीव ने मनोरमा से विवाह किया। पति होने के नाते उसे बचाना उसका कर्तव्य है। उसकी चिकित्सा के लिए उसका बृहदारण्य जाना स्वार्थ नहीं कहलाता। मनोरमा के कारण ही सजीव ने ग़रीबों की चिकित्सा की। उस पर धनार्जन का आरोप लगाना समुचित नहीं। जब उसे मालूम हुआ कि उसकी पत्नी रोग ग्रस्त है तब उसने दूसरे रोगियों की चिकित्सा करने में भी अपने को असमर्थ पाया। यदि मनोरमा सख्त बीमार पड़ जाती तो हो सकता है, वह वैद्य वृत्ति को ही सदा के लिए छोड़ देता। ऐसा होने पर कितने ही रोगियों को हानि पहुँचती ! जो वैद्य मंत्र ग्रंथ ले आया, उससे उसने कितने ही रोगियों की चिकित्सा की और उन्हें रोग मुक्त किया। इसलिए सजीव ने बृहदारण्य जाकर और असव ने वैद्य ग्रंथ देकर कोई नियम भंग नहीं किया।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः सुचित्रा की रचना)




सत्यशोधक

निश्‍चयी विक्रमार्क परत झाडाजवळ गेला. त्याने झाडावरून शव काढले, आपल्या खांद्यावर घेतले व नेहमीप्रमाणे स्मशानाच्या दिशेने तो चालू लागला. तेव्हां शवाच्या आत असलेल्या वेताळाने बोलायला सुरवात केली, ‘‘राजा, अज्ञान आणि मूर्खपणा यांच्याही काही सीमा असतात. पण तू या सीमांच्या पार पलिकडे जात आहेस. मी तुला पुनःपुन्हा विचारलं की तुझं ध्येय काय आहे, पण तू कधीच उत्तर दिलं नाहीस.

मी कितीतरी ज्ञानी, विवेकी व तपस्वी व्यक्तिंना पाहिले आहे ज्यांनी काहीतरी चुका केलेल्या आहेत, नीट विचार न करता चुकीचे निर्णय घेतले आहेत. त्यामुळे आपल्या ध्येयापासून ते दूर जातात व त्यांच्या जीवनाचा चक्काचूर होतो. तुला योग्य मार्गावर आणणं माझं कर्तव्य आहे. ह्या कर्तव्याने प्रेरित झाल्यामुळे शशांक नावाच्या एका तपस्वीची कथा मी तुला सांगणार आहे.’’ असे म्हणून वेताळाने शशांकाची गोष्ट सांगायला सुरवात केली.


शशांक सुवर्णपुरीच्या राजपुरोहिताचा एकुलता एक मुलगा होता. लहानपणापासूनच शशांकला सांसरिक विषयांची आवड नव्हती. हळूहळू तो विरक्त बनत गेला व लौकिक सुखांचा त्याग करून जवळच्या अरण्यात तपश्‍चर्या करू लागला.


काही वर्षें त्याने घोर तपश्‍चर्या केली. त्यानंतर त्याने कंदमूळे, फळे इत्यादि खाणेसुद्धा थांबवले. फक्त तुळशीचे पाणी पिऊन तो राहू लागला. तपश्‍चर्या करून त्याने अनेक गोष्टींवर ताबा मिळवला, अनेक विद्या अवगत करून घेतल्या, अलौकिक सामर्थ्य प्राप्त करून घेतले. तो पाण्यावर चालू शकत असे, हवेत त्याला उडता येत असे. पण या सर्वांना तो महान शक्ती मानायला तयार नव्हता. त्याला वाटे की या सर्व विद्या क्षणभंगुर आहेत, व मृत्यूवर जय मिळवणे, ती जी शक्ती आहे ती सर्वात उच्च आहे व शाश्‍वत आहे. ही शक्ती मिळवण्यासाठी तो पुन्हा घोर तपश्‍चर्या करू लागला.


शशांकच्या या तपश्चर्येमुळे गंधर्व लोकात खळबळ माजली. त्यांच्या मनात भीती निर्माण झाली. गंधर्व राजाला वाटले की आपले सिंहासन मिळावे म्हणूनच तो ही तपश्चर्या करत आहे. म्हणून त्याने निश्‍चय केला की शशांकच्या हातून काहीतरी पाप घडवावे व त्याची तपश्चर्या निष्फळ करावी. त्यासाठी त्याने एक उपायसुद्धा शोधला.


गंधर्व राजा दैवजाचे रूप धारण करून सुवर्णपुरी गावात गेला व तिथल्या राजाला भेटून म्हणाला, ‘‘महाराज, आपला पुत्र, स्वर्णकीर्ति-मध्ये संपूर्ण जगाचा सम्राट होण्याची क्षमता आहे. पण त्यात अडचण आहे, आणि पिता या नात्याने ती दूर करणे तुमचे कर्तव्य नाही कां?’’ ‘‘अवश्य, अवश्य. काय करायला पाहिजे सांग, मी ते करीन.’’ राजा म्हणाला.


‘‘सर्वजीवकोटि यज्ञ करायला हवा. म्हणजे तुमच्या राज्यात जितके पशू, पक्षी आहेत ते सर्व यज्ञात बळी द्यावे लागतील.’’ दैवज्ञ म्हणाला, ‘‘पण यात एक अट आहे,’’ तो पुढे म्हणाला, ‘‘काय, कसली अट?’’ राजा म्हणाला.


‘‘पशू-पक्ष्यांचा बळी साधारण माणसाच्या हाताने नव्हे तर एका तपस्व्याच्या हाताने द्यायला हवा आणि हा तपस्वी इंद्रियांवर विजय मिळवलेला व ज्याने एक वर्षभर सतत तुळशीचे पाणी पिऊन तप केलं आहे असा तपस्वी हवा.’’


‘‘अरे बापरे, असा तपस्वी कुठे मिळणार?’’ राजा म्हणाला. ‘‘प्रयत्न केला तर अवश्य मिळेल. तुमच्या इच्छा-आकांक्षा सफल होऊं देत. विजयी भव.’’ असे म्हणून दैवज्ञ निघून गेला.


राजाला आपला मुलगा सम्राट होणार म्हणून अतिशय आनंद झाला होता. एका पित्याला, एका राजाला याहून अधिक काय हवे असते? त्याने निश्‍चय केला की कसेही करून हा यज्ञ करायचाच. त्याने राज्यात दवंडी पेटवली की राज्यात असतील तितक्या प्रकारचे पशू-पक्षी पकडून ठेवा व यज्ञात त्यांचा बळी द्यायची तयारी ठेवा, हा सर्वजीवकोटि यज्ञ जनतेच्या कल्याणासाठी केला जात आहे व त्यासाठी अशा एका तपस्व्याची जरूर आहे की ज्याने आपल्या इंद्रियांवर काबू मिळवलेला आहे. या घोषणेद्वारे लोकांना विनंती केली गेली की असा तपस्वी कुणाला माहिती असल्यास त्यांनी राजाला कळवावे.


या घोषणेनंतर पाचव्या दिवशी एक भिल्ल राजाला भेटायला आला. त्याने राजाला सांगितले की जंगलात तुळशीचे पाणी पिऊन तप करणारा एक तपस्वी त्याने पाहिला आहे.


राजाने मंत्र्याला बोलावून लगेच तपस्व्याला कसेही करून घेऊन यायला सांगितले. मंत्र्याने तपस्वी शशांकला सर्व वृत्तांत सविस्तर सांगितला व म्हटले - ‘‘या यज्ञामुळे राज्याचे व सर्व जनतेचे कल्याण होणार आहे, व ते फक्त आपल्या हातांनी यज्ञ केला तरच साध्य आहे. राजा आपल्याला त्यासाठी हवे ते द्यायला तयार आहे. ते आपल्याला प्रमुख सल्लागाराची जागासुद्धा देतील.

भविष्य निर्माण करणार्‍या नव्या पिढीला आपण ज्ञानदान करूं शकता, त्यांना चांगले नागरिक बनवूं शकता, त्यासाठी आपल्या आश्रमाजवळ गुरूकुलाची स्थापना करतील.’’ पण शशांकने सर्वाला नकार देत म्हटले - ‘‘यज्ञाच्या नांवाने सजीव प्राण्यांचे बलिदान देणे पाप आहे. हे माझ्या तत्वांच्या विरुद्ध आहे.’’


‘‘राजा आपल्यासाठी प्रशांत उद्यानाच्या मध्यात एक भव्य अलिशान बंगला बांधून देतील व त्यात सर्व प्रकारच्या सुखसोई उपलब्ध असतील.’’ मंत्री म्हणाला. ‘‘मी एक तपस्वी आहे आणि या जीवनातच मला खरा आनंद मिळतो. माझ्या ध्येय-सिद्धीसाठी हे जंगलच सर्वात अनुकूल स्थळ आहे.’’ शशांकने ठामपणे म्हटले.


या तपस्व्याला समजावणे सोपे नाही असे दिसताच मंत्री परत राजधानीला आला. राजाला सर्व समजताच तो म्हणाला, ‘‘जा, त्या तपस्व्याला सांगा की मी माझ्या मुलीचे लग्न त्याच्याशी लावून देईन आणि माझे राज्यही त्याला देईन.’’


राजाचे ते बोलणे ऐकून राजकुमारी भार्गवीला आश्‍चर्याचा धक्का बसला. तिच्या चेहर्‍यावरचे भाव पाहून राजा तिला म्हणाला, ‘‘घाबरूं नकोस मुली! प्रथम यज्ञ तरी होऊ दे. नंतर काय करायचं मी पाहून घेईन.’’ वडिलांचे हे बोलणे भार्गवीला आवडले नाही. पण जनकल्याणाचा विचार मनात धरून ती गप्प बसली.
राजकुमारी भार्गवी देखील मंत्र्याबरोबर जंगलात गेली. मंत्र्याने तपस्व्याला म्हटले ‘‘साधुमहाराज, जर आपण येऊन यज्ञ केला तर ही राजकुमारी भार्गवी आपली धर्मपत्नी होईल. राजा मार्तण्डवर्मानंतर सुवर्णपुरीचे राजे आपणच व्हाल, हे राजाचे वचन आहे.’’


शशांकने राजकुमारीला पाहिले आणि तो पाहातच राहिला. तिचे मुग्ध करणारे सौंदर्य पाहून तो आपल्या जीवनाचे उदात्त, उच्च ध्येय विसरला व तो म्हणाला, ‘‘या सौंदर्यसम्राज्ञीशी लग्नही करीन आणि राज्याचा राजाही होईन.’’ सुवर्ण रथात बसून तिघेही स्वर्णपुरीला निघाले.


महान यज्ञाची तयारी केली गेली. हजारो पशू-पक्षी मोठ्या प्रांगणात आणले गेले. राजा आणि मंत्र्याबरोबर शशांकही हातात खड्ग घेऊन यज्ञाच्या जागी आला. यज्ञकुंडात पहिला बळी द्यायला एक हत्ती आणला होता. त्याचा बळी द्यायला शशांकने हातातले खड्ग वर उचलले आणि घाबरलेला हत्ती मोठ-मोठ्याने
विचित्र आवाज करू लागला. तेव्हां तिथे असलेले बाकीचे सर्व प्राणीही दीनपणे विचित्र आवाज करूं लागले.


शशांकची तंद्री एकदम भंगली व त्याने खड्ग दूर फेकून दिले. राजाला तो म्हणाला, ‘‘क्षमा करा महाराज, मी हे पाप करणार नाही. उलट पाप करण्याची प्रवृत्ती माझ्यात निर्माण झाली म्हणून त्याचे प्रायश्‍चित घेईन. कृपया मला परवानगी द्या.’’ असे म्हणून शशांक भरल्या जनतेच्या सभेतून निघून गेला.


वेताळाने शशांकची गोष्ट सांगून झाल्यावर म्हटले - ‘‘राजा, शशांक राजकुमारीचे अप्रतिम सौंदर्य पाहून बेहद्द खुष झाला. राजा होण्याच्या मोहाने तो प्राण्यांचे बलिदान द्यायलाही तयार झाला. पण प्राण्यांचे बलिदान देण्यापूर्वी अचानक त्याच्या मनात परिवर्तन कां झाले? माझ्या प्रश्‍नाचे उत्तर माहित असूनही तू गप्प राहिलास तर तुझ्या डोक्याचे तुकडे तुकडे होतील.’’


राजा विक्रमार्क म्हणाला, ‘‘शशांकच्या मनात अकस्मात परिवर्तन झालं पण त्याला कारण कुठलंही भय नव्हे की त्याच्या मनाची चंचलता नव्हे, पण इथे एक गोष्ट आपल्याला विसरून चालणार नाही की शशांकला सांसरिक विषयात प्रथमपासूनच अभिरुचि नव्हती. तो एक सत्यशोधक होता. असा एक विरक्त माणूस राजकुमारीला पाहून मोहित झाला आणि राज्य मिळणार व मोठा राजा होणार या आशेने मंत्री व राजकुमारीसह सुवर्णपुरीला गेला, या सर्वांमागे गंधर्वांचे मायाजाल होते. याचा अर्थच असा होतो की गंधर्वांनी त्याच्या मनात भ्रम निर्माण केला.

परंतु हत्तीचा चित्कार व इतर प्राण्यांच्या दीन रूदनाने त्याचा भ्रम दूर केला गेला, मायाजालातून तो बाहेर आला. त्याच क्षणी त्याला कळलं की आपण कित्ती मोठा अपराध करायला जात होतो. म्हणून लगेच त्याने राजाची क्षमा मागितली व आपले जीवन-ध्येय साधण्यासाठी तो परत तपस्या करण्याकरता जंगलात निघाला.’’ राजाने मौन-भंग करताच वेताळ आपला विजय सिद्ध करण्यासाठी शवासमेत अदृश्य झाला व पुन्हा झाडावर जाऊन बसला.


दोन मोर

निश्चयाचा पक्का विक्रमार्क पुन्हां झाडाजवळ गेला, त्याने झाडावरुन प्रेत खाली उतरवले व आपल्या खांद्यावर घेऊन तो स्मशानाच्या दिशेने चालूं लागला. तेव्हां प्रेतांत लपलेला वेताळ त्याला म्हणाला, ‘‘राजन्, किती भयानक अंधार आहे, स्मशानाजवळ हिंस्त्र जनावरे आहेत. तुझा जीव धोक्यांत आहे. कुणीही केव्हांही हल्ला करील. तरीही तू निर्धास्तपणें पुढें चालतो आहेस. किती रे हट्टी आहेस तू !

पण निसर्गाच्या सान्निध्यांत राहणार्‍या वनवासी गिरीजनांच्या माहितीत आणि पंडित व ज्ञानी यांच्या विचारांत खूप वेळां फरक आढलतो. उदाहरण म्हणून मी तुला चंद्रशर्मा नांवाच्या एका चित्रकाराची कथा सांगतो. लक्ष देऊन ऐकलीस तर तुझा शीण दूर होईल.’’ आणि वेताळ पुढील गोष्ट सांगू लागला.

‘‘महाराज सुवर्णदेव, सुवर्णदेशचा राजा होता. तो अत्यंत दयाळू व विचारी होता. आपल्या देशाची निसर्गसंपत्ती वाढावी यासाठी तो सातत्याने प्रयत्न करीत असे. वन्य प्राणी, पशुपक्षी यांचे संरक्षण करण्यासाठी त्याने खूप चांगले नियम केले होते व ते पाळले जातील याबद्दल तो जागरुक होता. प्रत्येक वर्षीं दिवाळीच्या दिवसांत वैलांची शर्यत त्या राज्यांत होत असे. जे बैल चांगले धष्टपुष्ट व निरोगी दिसत, त्यांना राजा विशेष बक्षीसे देत असे. मनमोहक निसर्गचित्रे रंगवणार्‍या चित्रकारांनाही पारितोषिके देऊन त्यांचा सत्कार करीत असे.

राजधानीजवळच्या गांवात चंद्रशर्मा राहात होता. तो एक चांगला चित्रकार होता. जर कुणी आपले चित्र रेखाटायला त्याला सांगितले, तर थोड्याच वेळांत तो त्यांचे चांगले चित्र काढून देत असे. म्हणून कित्येक रसिक धनवंतांनी त्याच्याकडून आपली चित्रें रंगवून घेतली होती.

त्यावर्षीं दिवाळीच्या उत्सवांत चित्रकारां-साठी जी स्पर्धा ठेवील जाईल त्यांत भाग घ्यायचा चंद्रवर्माने निश्चय केला. म्हणून त्याने दोन हात लांब व एक हात रुंदीच्या जाड कापडी फलकावर दोन सुंदर मोरांचे चित्र काढले. ते मोर पाहिल्यानंतर असे वाटत होते, कीं ते जणूं कांही आपले पिसारे फुलवून, एकमेकांसमोर खुषींत नाचत आहेत.

ते चित्र पाहून एक जाणकार म्हणाला, ‘‘वा, वा, किती देखणे चित्र आहे हे! आपल्यासमोरच हे मोर जणूं कांही नाचत आहेत असं वाटतंय. घराच्या प्रवेशद्वारावर जर हे चित्र लावलं तर घराची शोभा द्विगुणित होईल.’’

दुसरा एक तज्ञ चित्रकार म्हणाला, ‘‘मोराच्या कंठाचे रंग फारच सुरेख मिसळले गेले आहेत. या रंगात इतक्या नाजूक छटा दाखवणं अतिशय कठीण आहे. आणि त्यांत अशी तकाकी व झळाळी कधी पाहिली नव्हती. महाराजांनी जर हे चित्र पाहिलं तर शंभर मोहरांचे बक्षीस ते लगेच देतील.’’

चंद्रशर्मा या स्तुतीमुळें हुरळून गेला. त्याला हे बोलणें फार आवडले. आपल्या बोटांतली जादू अप्रतिम आहे याचा त्याला अभिमान वाटला. जे रसिक त्याच्या मोरांची प्रशंसा करीत होते, त्यांच्यापैकीं प्रत्येकाला तो विचारीत होता, ‘‘खरंच कां हे मोर इतके देखणे आहेत?’’ इतरांकडून स्तुतिस्तोत्रें ऐकण्यासाठीच तो असं विचारीत होता. त्यानंतर ते चित्र त्याने एका मलमलीच्या मऊ चौघडींत गुंडाळून एका पेटींत जपून ठेवले.


दिवाळीच्या दिवशी आपल्या एका मित्राला घेऊन चंद्रशर्मा बैलगाडींतून स्पर्धेंत भाग घेण्यासाठी राजधानीला निधाला. स्पर्धेंत भाग घेणार्‍यांची अगोदर चांचणी होणार होती. चंद्रशर्माचे चित्र पाहून सारे अधिकारी मंत्रमुग्ध झाले.

महाराजांना चित्र आवडले व कौतुकाने ते म्हणाले, ‘‘हेच चित्र बक्षीसपात्र आहे.’’ इतरांनी होकारार्थी माना डोलावल्या, व त्या चित्राचे भरपूर कौतुक केले. तिथें बैलांच्या शर्यतींत भाग घेणार्‍या शेतकर्‍याबरोबर एक आदिवासी आला होता. ही स्तुतीसुमने ऐकून तो खुदकन हंसला. महाराज व इतर सरदारांनी त्याच्याकडे जळजळीत नजरेने पहिले. तो घाबरला व तिथून मागच्यामागे जायचा प्रयत्न करुं लागला. पण महाराजांनी म्हटले, ‘‘थांब, हे चित्र पाहून तू कां हंसलास ते सांग. घाबरुं नकोस. तू वनांत राहणारा आहेस, त्यामुळें तुला मोरांची चांगलीच माहिती असेल, होय ना?’’

त्या आदिवासी तरुणाने महाराजांकडे व चंद्रवर्माकडे ओशाळवाण्या नजरेने पाहिले व तो म्हणाला, ‘‘महाराज, या चित्रांत फार मोठी चूक झालीय!’’ ‘‘अस्सं! आम्हाला जी चूक कळली नाही ती तुला कळलीय होय? सांग पाहूं काय ते.’’ महाराजांनी चढ्या स्वरांत सांगितले.

‘‘महाराज, फक्त पुरुष मोरच पिसारा फैलावतो. लांडोर ही कोंबडीसारखी असते. ती नाचूं शकत नाही. तिला आकर्षित करण्यासाठीच मोर पिसारा उभारुन नाचतो. एक पुरुष मोर कधीही दुसर्‍या नरासमोर पिसारा फैलावत नाही. जर भांडण असेल तरच तो दुसर्‍या मोराजवळ येतो.’’

त्या आदिवासीचे बोलणें ऐकून सारेच चकित झाले व त्यांना रागही आला. परंतु चंद्रशर्माने मात्र एकदा त्याच्याकडे पाहिले, मान खाली घातली आणि आपले चित्र पुन्हां त्या मलमलींत गुंडाळले. महाराजांना वंदन करुन तो निमूटपणें तिथून चालता झाला.’’


ही गोष्ट सांगून वेताळाने राजाला म्हटले, ‘‘राजन्, चंद्रशर्माने काढलेल्या चित्राची प्रशंसा तिथें असलेल्या सर्वांनी व महाराजांनी देखील केली होती. ते सर्व विद्वान, जाणकार अधिकारी होते. त्यांच्यासमोर एका माणसाने हे चित्र चुकीचे आहे असं सांगणे हे त्याचा मूर्खपणा दाखवणे आहे, नाही कां? त्याच्या या टीकेवर न रागवता चंद्रशर्मा मुकाट्याने सभेंतून निघून गेला. हा त्याचाही असमंजसपणा प्रदर्शित झाला. नव्हे कां? माझ्या या शंकांची उत्तरे ठाऊक असूनही जर तू गप्प राहिलास तर तुझ्या मस्तकाची शंभर शकले होऊन पडतील.’’

त्यावर विक्रमार्कने उत्तर दिले, ‘‘तो आदिवासी निसर्गाच्या सान्निध्यांत, शुद्ध मोकळ्या हवेंत राहाणारा होता. साहजिकच अरण्यांतल्या पशुपक्षांविषयी त्याला खूप माहिती होती. चंद्रशर्माने जे मोरांचे चित्र रंगवले होते, ते खरं म्हणजे त्या पक्ष्यांच्या नैसर्गिक स्वभावाविरुद्ध होते. त्याकारणाने त्या चित्रांत ही चूक राहिली. हे त्या आदिवासी तरुणाचे अज्ञान नव्हे; उलट त्याच्या सूक्ष्म अवलोकनाचे हे उत्तम उदाहरण आहे. आता चंद्रशर्माबद्दल सांगायचं तर तो चित्रकलेंत पारंगत होताच, पण त्याचे चित्र सत्यपरिस्थितीला धरुन नव्हते. त्याने मिसळलेल्या रंगांचे अद्भुत चित्रण पाहून महाराजांसकट बघणारे सारे मोहित झाले होते. म्हणून त्यांनी ते चित्र पुरस्कारास पात्र ठरवले. परंतु त्या आदिवासीच्या बोलण्यांतले निखळ सत्य आणि वस्तुस्थिती ही दोन्ही निर्विवाद होती, योग्य होती. चंद्रशर्मा प्रामाणिक होता आणि त्याचे निसर्ग सृष्टीचे ज्ञान कमी होते हे त्याच्या लक्षांत आले व त्याला आपल्या चित्रांतली चूक मान्य होती, म्हणून तो निमूटपणे तिथून गेला.’’ राजाचे मौन भंग करण्यांत सफल झालेला वेताळ पुन्हां शवासहित गायब झाला आणि झाडावर जाऊन बसला. (आधार : सुचित्राची रचना)

सहिष्णुता

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे पर डाल लिया। यथावत् जब वह श्मशान की ओर बढ़ने लगा, तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘वाह राजन्, वाह! तुम्हारी सहिष्णुता असाधारण व अतुलनीय है। तुम्हारी कितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। तुम्हारी सहिष्णुता अवश्य ही प्रशंसनीय है, पर मुझे इस बात का भय है कि जब इसका फल तुम्हारे हाथ लगनेवाला हो तो तुम कहीं चंचलतावश इसे स्वीकार करने से इनकार कर दो। इससे किया-कराया सब व्यर्थ हो जायेगा। इसीलिए तुम्हें सावधान करने के लिए चपलचित्त भील जाति के युवक-युवती की कहानी सुनाऊँगा। थकावट दूर करते हुए इस कहानी को ध्यानपूर्वक सुनना।'' फिर वेताल यों कहने लगा:

दंडकारण्य की पूर्वी दिशा में मार्तांड नामक भील जाति का एक गाँव था। साहसप्रिय भील जाति के कुछ युवक-युवतियाँ एक सरोवर के तट पर जमा हो गये। वे आपस में इधर-उधर की बातें करते हुए समय बिताने लगे। उस सरोवर में मछलियाँ जल में से ऊपर उड़ने और फिर डूबने लगीं। वे सबके सब मछलियों के इस खेल का मज़ा लेने लगे।
उन युवकों में से एक युवक ने चुनौती देते हुए पूछा, ‘‘हवा में उड़नेवाली इन मछलियों को क्या कोई अपने बाण से बेध सकता है?''
‘‘ये मछलियाँ क्षण भर के लिए ऊपर आती हैं और तुरंत डूब जाती हैं। इस क्षण भर में निशाना बांधना कठिनतम काम है। उनपर बाण चलाना असंभव है'', एक और युवक ने कहा।
एक और युवक ने उसकी राय से अपनी सहमति जतायी।
प्रथम युवक ने कहा, ‘‘ध्यान लगाकर कोशिश की जाए तो यह कोई असाध्य कार्य नहीं है।''
इसके बाद तीनों युवकों ने मछलियों पर बाण बेधने की भरसक कोशिश की। पर, कोई भी सफल नहीं हो पाया। उस समूह में नीलिमा नामक एक युवती थी। उस गाँव के सब युवक उसकी सुंदरता पर मुग्ध थे। वह प्रताप नामक युवक को बहुत चाहती थी। वह बाघ की तरह तेज़ था। सुडौल व सुंदर था। नीलिमा उसकी धनुर्विद्या की परीक्षा लेना चाहती थी। इसलिए उसने उससे कहा, ‘‘उड़ती मछली को अपने बाण का निशाना बनाओगे तो मैं तुमसे विवाह करूँगी।''
प्रताप में उत्साह भर आया और एकाग्रचित्त हो उसने मछली पर बाण चलाया। पर वह मछली बच गयी। प्रताप बड़ा ही निराश हुआ।
उनसे थोड़ी ही दूरी पर वीरबाहु नामक युवक अपने मित्रों सहित बैठा हुआ था और वह यह सब देख रहा था। उसमें जोश भर आया। वह नीलिमा को बहुत चाहता था। उसने सोचा कि नीलिमा से विवाह करने के लिए यह एक सुअवसर है। उसने निशाना साधा, अपनी पूरी शक्ति लगायी और बड़े ही वेग से बाण चलाया। वह बाण मछली को जा लगा। सबने तालियाँ बजायीं और उसकी वाहवाही की। वीरबाहु ने गर्व भरे स्वर में कहा, ‘‘ऐ सुंदरी, तुम्हारी परीक्षा में मैं उत्तीर्ण हो गया। अपने वचन के अनुसार तुम्हें मुझसे विवाह करना होगा। बोलो, कब विवाह करोगी?''

उसकी इन बातों पर नीलिमा चौंक उठी और बोली, ‘‘तुमसे विवाह? कभी नहीं। सपने में भी यह संभव नहीं। मैंने तो कहा था कि मेरी चुनौती को स्वीकार करके यदि प्रताप जीत जायेगा तो उससे विवाह करूँगी। मैंने तो यह नहीं कहा था कि इस प्रतियोगिता में जो जीत जायेगा, उससे विवाह करूँगी। वास्तव में यह प्रतियोगिता नहीं थी। यह व्यक्तिगत चुनौती सिर्फ प्रताप के लिए थी, किसी और के लिए नहीं।''
‘‘क्या तुमने ऐसा कहा था? तुमने तो प्रताप का नाम ही नहीं लिया। तुमने तो कहा था कि इसमें जो सफल होगा, उससे विवाह करूँगी? अब मैं जीत गया हूँ। मुझसे विवाह करने से क्यों इनकार कर रही हो? न्याय सबके लिए समान होना चाहिये। तुम मुझसे विवाह करने से इनकार करके मेरे साथ अन्याय कर रही हो।'' वीरबाहु जो मुँह में आया, बकने लगा।
‘‘हाँ, गाँव में न्याय सबके लिए समान होना चाहिये। नीलिमा को वीरबाहु से शादी करनी ही चाहिये।'' गंबीर नामक एक युवक ने वीरबाहु का समर्थन किया।
‘‘विवाह के विषय में न्याय सबके साथ एक समान नहीं होता। क्या कोई होशियार लड़की किसी दुष्ट से विवाह करेगी? यह मेरे विवाह की बात है। जिसे मैं चाहती हूँ, उसी से विवाह करूँगी। बकवास बंद करो और चुप हो जा।'' क्रोध-भरे स्वर में नीलिमा ने कहा।
‘‘बातें मत बनाओ। तुम मुझसे विवाह करोगी, इसी आशा से मैंने तुम्हारी चुनौती स्वीकार की। अब नहीं तो किसी न किसी दिन तुमसे विवाह करके ही रहूँगा।'' वीरबाहु ने प्रतिज्ञा की।
ऐसे झगड़े भील जाति में कभी-कभी होते ही रहते हैं परंतु, उनमें एकता काफी दृढ़ होती है। अगर किसी की जान खतरे में हो तो वे इसपर विचार ही नहीं करते कि वह अच्छा आदमी है या बुरा, बलवान है या कमज़ोर। किसी की जान ख़तरे में हो तो अपने प्राण की बाजी लगाकर भी वे उसकी रक्षा करते हैं। यह उस जाति में चला आता हुआ एक परंपरागत रिवाज़ है। एक बार वीरबाहु शहद निकालते हुए मधुमक्खियों के झुण्ड के बीच घिर गया ।

उससे नीचे उतरा नहीं जा रहा था। ज़मीन पर गिरकर मरने की संभावना थी, पर उस रास्ते से गुज़रते हुए प्रताप ने वीरबाहु की यह असहायता देखी और उसे बचाया। प्रताप ने पुरानी उस घटना को याद करते हुए वीरबाहु से कहा, ‘‘नीलिमा तुमसे शादी करने के लिए तैयार है तो इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं। परंतु याद रखना, उसके साथ अच्छाई से बरतना और शादी के लिए उसकी स्वीकृति ले लेना।''
‘‘मुझे सब कुछ मालूम है। मुझे तुम्हारी सलाह की कोई ज़रूरत नहीं।'' कहता हुआ वीरबाहु तेज़ी से वहाँ से चला गया।
कुछ दिन बीत गये। एक दिन भील युवक-युवतियाँ शिकार करके भोजन कर चुकने के बाद आराम से बैठकर बातें कर रहे थे। तब अचानक चार बाघ उनपर टूट पड़े। घबराकर वे सब तितर-बितर हो गये। वीरबाहु ने बड़ी ही चतुराई से बाघ के आक्रमण से नीलिमा को बचाया। वे दोनों एक तंग घाटी में गिर गये। नीलिमा की दायीं कोहनी से लहू बहने लगा। ऊँचाई से नीचे गिरने के कारण वह बेहोश हो गयी। उसके मुख पर पानी छिड़कने के लिए वीरबाहु पास ही के सरोवर की तरफ़ दौड़ा।
ऊपर से उसके दोस्त गंबीर ने यह दृश्य देखा और उससे कहा, ‘‘दोस्त, बड़े ही भाग्यवान हो। तुरंत अपने दायें हाथ को जख्मी कर लो और उस लहू से मिला दो, जो नीलिमा की कुहनी से बह रहा है। इससे, समझ लो, तुम दोनों का विवाह हो ही गया। जल्दी करो। मैं तुरंत गाँव में चला जाऊँगा और सबसे कह दूँगा कि तुम दोनों की शादी हो गयी।'' कहकर वह वहाँ से चला गया।
गंबीर का प्रचार सुनकर प्रताप और उसके दोस्त चकित रह गये। उन्होंने भील जाति के प्रधान से शिकायत की कि वीरबाहु ने जबरदस्ती नीलिमा से शादी कर ली। प्रधान ने पंचों के बैठने के स्थल पर सभा बुलायी और नीलिमा से पूछा, ‘‘बेटी नीलिमा, हमारे रिवाज़ के अनुसार अगर पहले वधू चाकू से वर के बायें हाथ को घायल करे और वर वधू के बायें हाथ को रक्तसिक्त करे तो दोनों को एक-दूसरे को आलिंगन में लेना चाहिये। तुम दोनों के हाथों में रक्त तो दीख रहा है। क्या तुमने विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दी? वीरबाहु ने जबरदस्ती अगर तुमसे शादी की हो तो बता देना । अभी उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। शुद्धि कार्यक्रम के बाद जिसे तुम चाहती हो, उसी से शादी कराऊँगा।''

नीलिमा ने सोचकर कहा, ‘‘वीरबाहु से मेरा जो विवाह हुआ, उसे हृदयपूर्वक स्वीकार करती हूँ। मेरे विवाह की वजह से गाँव की एकता भंग नहीं होनी चाहिए।''
वीरबाहु यह सुनकर आगे आया और बोला, ‘‘नहीं प्रधानजी, मेरा विवाह ही नहीं हुआ। अपने दोस्त की सलाह के अनुसार मैंने अपने हाथ को अवश्य घायल किया और इसे अच्छा मौक़ा समझकर उसके साथ विवाह करना चाहा, क्योंकि मैं नीलिमा को बेहद चाहता हूँ। पर, जब मैं पानी लेकर नीलिमा के पास पहुँचा, तब निर्मल चंदामामा जैसे उसके मुख को देखते हुए वह काम मैं नहीं कर सका। मैं यह भी जानता हूँ वह प्रताप को चाहती है, मुझे नहीं। मैंने उसकी चुनौती को पूरा करके भी दिखाया फिर भी वह प्रताप को ही चाहती रही। आज उसकी बाघ से रक्षा करके अपनी जाति की परम्परा के अनुसार सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है। इसके लिए मैं कोई मूल्य नहीं माँगना चाहता। बल्कि जो मुझसे अपराध हुआ है उसके लिए मैं अपने मित्र सहित इस गाँव को छोड़कर जा रहा हूँ।'' यों कहकर वह वहाँ से चला गया। गाँव के प्रमुखों ने बड़े ही प्रेम के साथ उसे देखा।
वेताल ने यह कहानी बतायी और कहा, ‘‘राजन्, वीरबाहु और नीलिमा ने क्यों ऐसा असंबद्ध व्यवहार किया? अगर प्रधान को नीलिमा कह देती कि उसकी इच्छा के विरुद्ध यह विवाह हुआ है तो उसका विवाह प्रताप से हो जाता, जिसे ह चाहती है। उसने यह अवसर खो डाला और झूठ कह दिया कि वीरबाहु के साथ हमारा विवाह हृदयपूर्वक हुआ है, जिससे वह पहले से ही घृणा करती है। यह झूठ कहने की क्या आवश्यकता थी? वीरबाहु ने पहले प्रतिज्ञा भी की थी कि किसी न किसी दिन तुमसे विवाह करके ही रहूँगा, आख़िर नीलिमा ने मान भी लिया, पर यह कहकर गाँव से खुद चला गया कि हमारी शादी ही नहीं हुई। उनकी ये बातें मेरी समझ के बाहर हैं। मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी मौन रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''

विक्रमार्क ने कहा, ‘‘सब समझते हैं कि उसकी शादी वीरबाहु से हो गयी, पर नीलिमा खुद नहीं जानती कि उसकी बेहोशी की हालत में क्या हुआ। उसका यह कहना कि वीरबाहु से मेरा हृदयपूर्वक विवाह हुआ है, उसकी जाति के महान गुण के प्रति कृतज्ञता का प्रमाण है जिसके अनुसार वे ऐसे आदमी की बिना किसी भेद भाव के सदा रक्षा करते हैं, जिसकी जान ख़तरे में हो। अगर वह कहती कि यह विवाह मेरी इच्छा के विरुद्ध हुआ है या असली बात कह देती तो वीरबाहु को मार डाल दिया जाता। वह नहीं चाहती कि उस वीरबाहु को यह दंड मिले, जिसने उसे बाघ के आक्रमण से बचाया था। इसी वजह से उसने झूठ कहा कि हमारा विवाह हो गया।
‘‘वीरबाहु ने तो सच-सच बताया। हाँ, वह नीलिमा को जान से ज़्यादा चाहता है, पर जाति के रिवाज़ के विरुद्ध जबरदस्ती उससे विवाह रचाना नहीं चाहताथा । वह बिलकुल इसके विरुद्ध था । इतना सब कुछ हो जाने के बाद अगर वह गाँव में ही रहने का निश्चय कर लेता तो हो सकता है, इससे गाँव की एकता छिन्न-भिन्न हो जाती। इसी वजह से वह वहाँ से चला गया। दोनों ने इस विषय में सहनशीलता के साथ काम लिया और गाँव की एकता को बनाये रखा। इसमें असंबद्धता है ही नहीं। उनके इस त्याग की प्रशंसा गाँव के प्रमुखों ने भी मन ही मन की।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार-रघुवंश सहाय की रचना)





धर्मदास की शक्तियाँ

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड के पास गया, पेड़ से शव को उतारा और यथावत् उसे अपने कंधे पर डालकर स्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के बेताल ने कहा, ‘‘राजन, कार्य को साधने में तुम जो आग्रह दिखा रहे हो, वह बड़ा ही प्रशंसनीय है। परंतु तुमने इस तथ्य पर कभी ग़ौर किया कि क्या तुम इसमें कभी सफल हुए? मेरी दृष्टि में तो नहीं। फिर क्योंकर इतना कठोर परिश्रम करते जा रहे हो? तुम्हें सावधान करने के लिए मैं धर्मदास की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जो शक्ति संपन्न होते हुए भी अपने भाई को अपने समान शक्तिशाली बना नहीं सका, माँ की इच्छा भी पूरी कर नहीं पाया। मुझे इस बात का डर है कि तुम भी उसकी तरह कहीं विफल न हो जाओ। थकावट दूर करते हुए धर्मदास की कहानी सुनो।'' फिर वेताल यों सुनाने लगाः

फिर वेताल यों सुनाने लगाः वीरदास शैलवर गाँव का निवासी था। वह चार एकड़ जमीन का मालिक था। उसके तीन बेटे थे। दूसरा बेटा रामदास और तीसरा बेटा कृष्णदास नादान थे। बड़ा बेटा धर्मदास खेती करना नहीं चाहता था। उसने पिता से कह दिया कि मैं गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूँ। पर वीरदास ने अपने बेटे की इच्छा को मानने से इनकार कर दिया। धर्मदास घर छोड़कर चला गया। वीरदास ने उसका पता लगाने की कोशिश की पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ।
कुछ सालों के बाद वीरदास सख्त बीमार पड़ गया और उसकी वाक् शक्ति जाती रही। बड़े-बड़े वैद्यों ने जांच करने के बाद कह दिया कि इस रोग की कोई दवा है ही नहीं। इसके बाद रामदास और कृष्णदास को उनके हाथों धोखा खाना पड़ा, जिनका उन्होंने विश्वास किया था। कर्ज बढ़ता गया और आखिर खेत और घर भी बेचने की नौबत आ गयी।
इस बीच धर्मदास, सर्वश्रेय नामक गुरु के यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त करने लगा। उन्होंने धर्मदास को कितनी ही विद्याएँ सिखायीं, कितनी शक्तियाँ प्रदान कीं। उन शक्तियों के बल पर वह अपने परिवार की दुस्थिति को जान गया। उसने गुरु से इसका जिक्र किया।
गुरु सर्वश्रेय ने उससे कहा, ‘‘तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गयी है। जो भी तुम्हें सिखाना था, मैंने सिखा दिया। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि अपनी शक्तियों से दूसरों की भलाई करना। पर, माँ गुरु से भी महान होती है। मेरे आदेश का पालन तभी संभव होगा, जब तुम्हारी माँ तुम्हें इसकी अनुमति देगी। इसलिए तुरंत शैलवर जाना, अपना घर संभालना और अपनी जिम्मेदारी निभाना। माँ की अनुमति लेने के बाद ही तुम गाँव छोड़कर जा सकते हो। अपने परिवार में से किसी एक को जब तक अपनी शक्तियाँ नहीं सौंपोगे, तब तक तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते।''

गुरु के कहे अनुसार धर्मदास शैलवर गया, पूरे परिवार को उसने धैर्य बंधाया और यों सबके दिलों में आशा भर दी। उसने खेती के बारे में रामदास को यथोचित सलाहें दीं। कृष्णदास से अनाज की एक दुकान खुलवायी। फलस्वरूप फसल भी अच्छी हुई और अनाज के व्यापार में अच्छा लाभ भी हुआ। यह देखते हुए, गाँव के लोग कहने लगे कि धर्मदास के पास अमोघ शक्तियाँ हैं। क्रमशः धर्मदास की माँ को भी गांवों के लोगों की बातों में विश्वास होने लगा। एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, ‘‘बेटे, घर छोड़कर गये और शक्तिपूरित होकर लौट आये। अब अपने पिता की बीमारी का इलाज तुम्हें करना होगा। फिर से उन्हें वाक् शक्ति देनी होगी। यह तुमसे ही संभव है, क्योंकि तुम्हारे पास अचूक शक्तियाँ हैं।''
‘‘माँ, पिताजी को अगर स्वस्थ होना हो तो इसके लिए विद्युत द्वीप के तुलसी पौधे की जड़ चाहिये। गुरु की आज्ञा है कि एक बार अगर मैं गाँव छोड़कर निकल जाता हूँ तो किसी भी हालत में गांव लौटना नहीं चाहिये। इसलिए भाई कृष्णदास को अपने साथ ले जाऊँगा। मार्ग मध्य में उसे अपने समान शक्तिवान बनाऊँगा। उसके द्वारा तुलसी पौधे की जड़ भेजूँगा। तुम्हारी अनुमति हो तो निकलता हूँ।'' धर्मदास ने कहा।
तब उसकी माँ ने कहा, ‘‘ठीक है, विद्युत द्वीप जाने के लिए निकलो। गुरु की कोई भी आज्ञा माँ के प्रेम से महान नहीं है, उसे जीत नहीं सकती।''
धर्मदास, कृष्णदास को अपने साथ लेकर निकल पड़ा। गांव के बाहर आते ही कृष्णदास ने अपने बड़े भाई से कहा, ‘‘भैय्या, तुममें अद्भुत शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। ऐसा कुछ करना, जिससे वे शक्तियाँ मुझे भी प्राप्त हों।''
‘‘विद्युत द्वीप पहुँचते -पहुँचते अगर तुम्हें विश्वास हो जाए कि मुझमें अद्भुत शक्तियाँ हैं, तो तुम उन्हें पा सकते हो।''
इतने में एक बैलगाडी वहाँ आयी। गाडीवाले जनक ने गाड़ी रोकी। धर्मदास ने अपने भाई से कहा, ‘‘विद्युत द्वीप पहुँचने तक तुम्हें गाड़ी में यात्रा करनी नहीं चाहिये। तुम पैदल चलकर आना।'' कहता हुआ वह गाड़ी में बैठ गया।

कृष्णदास आधे दिन तक चलता रहा। अपने भाई को देखकर रुक गया, जो एक पेड के नीचे बैठा हुआ था। वह बहुत ही थक गया था। उसे भूख लग रही थी। इतने में शैलबर लौट रहा बापट वहाँ आया और कहने लगा ‘‘मैं बहुत भूखा हूँ। पर किसी के साथ मिलकर खाने की मेरी आदत है और मेरा नियम भी।'' कहते हुए उसने गठरी खोली जिसमें स्वादिष्ट आहार-पदार्थ थे।
धर्मदास ने तुरंत कहा, ‘‘भाई को एक महान और पुण्य कार्य पर अपने साथ ले जा रहा हूँ। जब तक वह कार्य पूरा नहीं होता तब तक उसे उपवास रखना होगा।'' यों कहकर उसने बापट के साथ खाना खा लिया।
थोडी देर बाद जब बापट चला गया तब धर्मदास ने कृष्णदास से कहा, ‘‘अंधेरा छाने जा रहा है। भरपेट खाने के कारण मुझे नींद आ रही है। नियम के अनुसार तुम्हें सोना नहीं चाहिये। तुम जागे रहो और अच्छी तरह से रखवाली करना। इसमें दोनों की भलाई है।'' कहते हुए वह निद्रा की गोद में चला गया।
कृष्णदास रात भर जागा रहा और प्रातःकाल दोनों भाई फिर से निकल पड़े। वे एक नदी तट के पास पहुँचे। नदी में नाव तो थी, पर मल्लाह नहीं था। नदी के बीच में अचानक एक टीले पर बिजली कौंधी।
उस टीले को दिखाते हुए धर्मदास ने कृष्णदास से बताया, ‘‘वही विद्युत द्वीप है। हर दिन वह चमकता रहता है, इसीलिए उसका नाम विद्युत द्वीप पड़ा। इतने में मल्लाह वहाँ आया। और कहने लगा,'' मैं विद्युत द्वीप जा रहा हूँ। चाहो तो तुम दोनों भी आ सकते हो।''
धर्मदास ने भाई से कहा, ‘‘पिता के नाम का स्मरण करते हुए नदी में कूद पड़ो। तैरते हुए वहाँ पहुँच जाना। वहाँ मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा।''
कुछ और सोचे बिना बड़े भाई के कहे मुताबिक कृष्णदास नदी में कूद पड़ा। वह बिल्कुल थक गया। वह कुछ बोल भी नहीं पा रहा था। तब तक धर्मदास वहाँ पहुँच चुका था।
जब कृष्णदास थोड़ा-बहुत ठीक हो गया, दोनों तुलसी पौधे की जड की खोज में निकल पड़े। एक जगह पर, उन्होंने अपने ही गांव के गोपी को देखा, जो किसी पौधे के लिए कुदाल से ज़मीन खोद रहा था। वहाँ उनके आने की वजह जानकर उसने कुदाल उन्हें देनी चाही।
कृष्णदास उससे कुदाल लेने ही जा रहा था तब धर्मदास ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘तुलसी के पौधे की जड़ हाथों से ही उखाड़नी चाहिये। यह नियम है और उसका उल्लंघन मत करना।''


थोड़ी देर और आगे जाने के बाद उन्हें तुलसी के बड़े-बड़े पौधे दिखायी पड़े। हाथों में दर्द हो रहा था, फिर भी कृष्णदास ने अपने ही हाथों से जड़ उखाड़ी।
बड़े भाई ने छोटे भाई की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी पितृ भक्ति प्रशंसा योग्य है। मुझमें अगर शक्तियाँ हों तो अब से उनमें से आधी शक्तियाँ तुम्हारी हो गयीं। अब तुम हवा में उड़कर घर पहुँच सकते हो।''
परंतु, ऐसा नहीं हुआ। कृष्णदास ने उड़ने की बहुत कोशिश की, पर उड़ नहीं पाया। धर्मदास ने लंबी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘लगता है कि तुम्हें मेरी शक्तियों पर विश्वास नहीं है। कर भी क्या सकते हैं? पिताजी को स्वस्थ करने के लिए तुमने तुलसी की जड़ पा ली, यही गर्व की बात है। घर लौटो और इस जड़ के बल पर पिताजी को फिर से बोलने की शक्ति प्रदान करो। मैं गुरु की आज्ञा का पालन करने जा रहा हूँ।''
नदी तट पर पहुँच चुकने के बाद दोनों भाई अलग-अलग रास्तों पर चले गये। उत्साह भरा कृष्णदास घर पहुँचा। तुलसी की जड़ का सेवन करते ही उसका पिता बोलने लगा।
कृष्णदास ने सोचा कि तुलसी की जड को पाने के लिए उसने जो-जो कष्ट उठाये, जो-जो मुसीबतें झेलीं, अगर इसका ब्योरा जनक, बापट और गोपी खुद देंगे तो अच्छा होगा। उसने दूसरे दिन उन तीनों को बुलवाया। जनक ने पहले वीरदास से कहा, ‘‘तुम्हारा बड़ा बेटा धर्मदास कोई साधारण मनुष्य नहीं है। मैंने अपनी आँखों से देखा कि वह हवा में उड़ रहा है। और हमारे पहुँचने के पहले ही पहुँच चुका है।''
कृष्णदास यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया । बापट ने आकर कहा, ‘‘गॉंव लौटते हुए पेड़ के नीचे बैठे धर्मदास को देखा। गठरी खोलता हूँ तो देखता हूँ कि उसमें स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ हैं।
इतने में गोपी भी कहने लगा,'' भाई कृष्णदास की नाव के पीछे-पीछे पानी पर चलते हुए धर्मदास चले आ रहे थे। मैंने यह दृश्य अपनी आँखों देखा।''
यह सब सुनते हुए कृष्णदास का सिर चकरा गया। बडे भाई ने उसकी इतनी भलाई की, पर उसकी समझ में नहीं आया कि उसे वह क्यों पहचान नहीं पाया। उसे लगा कि यह सब हुआ, उसके स्वार्थ व अहंकार के कारण ही। उसमें पश्चाताप की भावना घर करने लगी। इसके दूसरे ही क्षण उसमें कुछ नवीन शक्तियाँ प्रवेश करने लगीं।

वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद राजा विक्रमार्क से पूछा, ‘‘राजन्, कृष्णदास अपने बडे भाई की अपूर्व शक्तियों को प्रारंभ में पहचान नहीं पाया, इसका कारण उसमें भरा स्वार्थ और अहंकार ही है या कोई और कारण है? विद्युत द्वीप जाने के पहले उसकी माँ ने उससे कहा था कि वहाँ से लौटने के बाद यहीं मिल-जुलकर रहेंगे और यह भी कहा था कि किसी भी गुरु की आज्ञा माँ के प्यार को जीत नहीं सकती। परंतु धर्मदास घर नहीं लौटा। क्या यह माँ के आदेश का अतिक्रमण नहीं है? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘धर्मदास ने, अपने छोटे भाई कृष्णदास को अपनी शक्तियाँ सौंपनी चाहीं। पर कृष्णदास को अपने बड़े भाई की शक्तियों में विश्वास नहीं था । तुलसी के पौधे की जड़ को ले आने के लिए जिस क्षण धर्मदास ने कृष्णदास को चुना, उसी क्षण से उसमें अहंकार भर गया। और वह समझने लगा कि मैं महान हूँ। इसी वजह से वह बड़े भाई की शक्तियों को पहचान नहीं पाया।
कोई भी शक्तिमान अपनी शक्तियाँ अयोग्य को चाहे भी तो सौंप नहीं सकता। अब रही माँ की बात। कोई भी माँ यह नहीं चाहती कि उसका बेटा कर छोड़कर जाए, कहीं और रहे। यही तो मातृप्रेम है।
किन्तु धर्मदास लोक क्षेम के लिए घर छोड़कर चला गया। वह भी, अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद। यद्यपि धर्मदास ने माँ की इच्छी पूरी नहीं की, फिर भी यह उसका अपराध माना नहीं जा सकता, क्योंकि उसका लक्ष्य महान था।
राजा का मौन-भंग करने में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
आधार ‘‘वसुंधरा'' की रचना।




निराश स्वर्णरेखा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः उस पुराने पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और यथावत् उसे अपने कंधे पर डाल लिया। फिर श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, रुकावटों की परवाह किये बिना अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए तुम जो अथक परिश्रम कर रहे हो, वह बहुत ही प्रशंसनीय है। जब एक लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्न किये जाते हैं, तब रुकावटों का सामना करना सहज है।

परंतु ऐसे भी प्रबुद्ध मौजूद हैं, जो लक्ष्य की सिद्धि के समय उसे अपने हाथ से फिसल जाने देते हैं। कितने ही कष्ट झेलकर मयूरध्वज की प्रेयसी उसके पास पहुँच पायी, पर उसने बडी ही अनुदारता से उसका तिरस्कार किया। अपनी थकावट दूर करते हुए उसकी कहानी सुनो ।’’ फिर वेताल मयूरध्वज की कहानी यों सुनाने लगाः मयूरध्वज अवंती राज्य का राजा था। मनोविनोद के लिए एक बार वह आखेट करने जंगल गया।

साथियों को छोड़कर वह अकेले ही जंगल में बहुत दूर चला गया। दुपहर तक वह बहुत थक गया और आराम करने एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। अकस्मात् झाडियों में से एक बाघ उसपर कूद पड़ा। बग़ल में ही रखे गये धनुष-बाणों तक पहुँचने के लिए भी उसके पास समय नहीं था। फिर भी रिक्त हाथों से उसने बाघ का सामना किया और अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसे मार डाला। इस दौरान वह बुरी तरह से घायल हो गया, और फलस्वरूप बेहोश हो गया।


उस समय स्वर्णरेखा नामक एक गंधर्व कन्या अपनी सहेलियों के साथ वहॉं आयी। मयूरध्वज का साहस देखकर वह मंत्रमुग्ध रह गयी। उसकी वीरता व भुजबल ने उसे आश्र्चर्य में डाल दिया। वह बेहोश राजा के पास आयी और बडी ही मृदुता के साथ उसका स्पर्श किया। देखते-देखते राजा के सारे घाव भर गये और वह उठकर बैठ गया। स्वर्णरेखा उसके नवमन्मथ रूप को देखकर उसपर रीझ गयी और उसे एकटक देखने लगी। तब उसने देखा कि राजा भी पलक मारे बिना उसे ही देखता जा रहा है।

लज्जा के मारे उसने सिर झुका लिया। राजा भी उसके अद्भुत सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। दोनों ने आपस में बातें कीं, एक-दूसरे के बारे में विवरण जाने। ‘‘राजन्, मैं हृदयपूर्वक आपसे प्रेम करती हूँ। अगर आप सहमत हों तो गांधर्व विवाह करने के लिए मैं सन्नद्ध हूँ।’’ मुस्कुराते हुए स्वर्ण रेखा ने मधुर वाणी में कहा। राजा ने उसके प्रस्ताव पर खुश होते हुए कहा, ‘‘मैं भी तुम्हें बेहद चाहता हूँ।

परंतु मुझे लगता है कि तुम इस विषय में गंभीरता के साथ सोचे बिना कह रही हो । भूलोक में जीवन बिताना कोई आसान काम नहीं है। तुम गंधर्व लोक की सुकुमारी हो। भूलोक में तुम सुखी नहीं रह सकती हो।’’ ‘‘पति का साहचर्य ही पत्नी के लिए स्वर्ग धाम है। क्या आप जानते नहीं कि स्वर्ग धाम दिव्य लोकों से भी उत्तम है?’’ स्वर्णरेखा ने पूछा।

‘‘मैं समझता हूँ कि क्षणिक आकर्षणों में आकर तुम ऐसी बातें कर रही हो।’’ राजा ने कहा। ‘‘नहीं, मेरा प्रेम सत्य है, शाश्वत है,’’ स्वर्ण रेखा ने बल देते हुए कहा। ‘‘तुम्हारा प्रेम कितना सच्चा है, इसे जानने के लिए एक छोटी-सी परीक्षा...’’ राजा अपनी बात पूरी करे, इसके पहले ही स्वर्ण रेखा ने पूछा, ‘‘कहिये, वह परीक्षा क्या है?’’


‘‘अब तुम अपना लोक लौट जाओ। छे महीनों तक इसपर गंभीरता के साथ सोचो-विचारो। तब भी मुझसे विवाह रचाने की तुम्हारी इच्छा प्रबल रही तो अगले भाद्रपद बहुल द्वादशी के दिन यहाँ आना। देखो, उस शांभवि वृक्ष के तले तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा। तभी हमारा विवाह संपन्न होगा। क्या यह तुम्हें स्वीकार है?’’ ‘‘हाँ, हाँ, अवश्य स्वीकार है। हर हालत में आऊँगी।’’ कहती हुई वह सहेलियों के साथ वहाँ से चली गयी।


अपने लोक में पहुँचने के बाद भी, स्वर्ण रेखा, राजा मयूरध्वज को ही लेकर सोचती रही और यों छे महीने बीत गये। अपने निर्णय पर दृढ़ वह भाद्रपद बहुल द्वादशी के दिन अकेले ही भूलोक पहुँचने निकल पड़ी। मयूरध्वज के बताये शांभवि वृक्ष के समीप उसने एक मनोहर सरोवर देखा। उसमें स्नान करने के उद्देश्य से उसने अपने कंठ के महिमावान हार को निकाला और उसे पास ही की फूलों की झाड़ी में लटका दिया। फिर वह सरोवर में उतर पड़ी। वह शीतल पानी का आनंद लेती हुई अपने आप को भूल गयी। अचानक उसे लगा कि उसका शरीर रंगहीन हो गया। वह चौंक उठी और अशुभ की शंका करती हुई तुरंत सरोवर के बाहर आ गयी।


उसने सरोवर के बाहर आकर देखा कि उसके महिमावान हार को एक युवती पहनी हुई है। उसने क्रोध-भरे स्वर में उस युवती से पूछा, ‘‘तुम कौन हो? मेरे हार की क्यों चोरी की? इसे मुझे वापस दे दो।’’ ‘‘मेरा नाम कादंबरी है। शशांकपुर गॉंव की हूँ। मैंने तुम्हारे हार की चोरी नहीं की। मुझे यह दिखायी पड़ा तो मैंने ले लिया और पहन लिया। यह तो मुझे बेहद सुंदर लगा।’’ उस नादान युवती ने कहा। ‘‘कादंबरी, ऐसे आभूषणों का स्पर्श करने तक की भी तुम्हारी योग्यता नहीं है। यह गन्धर्व कन्याओं का अद्भुत शक्तियों से भरा हार है।’’ स्वर्णरेखा ने गुस्से में आकर कहा।

‘‘मुझे किसी प्रकार की अद्भुत शक्तियों की आवश्यकता नहीं है। यह आभूषण मेरे गले में शोभायमान हो तो राजा मयूरध्वज मुझसे विवाह करने से इनकार नहीं करेंगे।’’ कादंबरी ने कहा। उसकी इस बात पर स्वर्णरेखा ठठाकर हँस पड़ी और कहा, ‘‘क्या कहा तुमने? राजा मयूरध्वज तुमसे विवाह करेंगे?’’
‘‘क्यों नहीं करेंगे? इसी काम पर तो मैं राजधानी जा रही हूँ। मैंने साफ़-साफ़ कह दिया कि विवाह करूँगी तो महाराज से ही करूँगी। पर मेरे माँ-बाप और गाँव के लोग भी मेरी बात का विश्वास नहीं करते । मैं तो यह प्रतिज्ञा करके आयी हूँ कि महाराज से विवाह करके रानी बनूँगी। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी।’’


‘‘तुम्हारी प्रतिज्ञा कभी भी पूर्ण नहीं होगी। राजा और मैंने एक-दूसरे से प्रेम किया। उन्होंने मुझसे विवाह करने का वचन भी दिया। उस शांभवि वृक्ष के तले थोड़ी ही देर में हमारा विवाह संपन्न होनेवाला है।’’ स्वर्णरेखा ने कहा। यह सुनते ही कादंबरी के मन में तरह-तरह के विचार उभर आये। उसने ठान लिया कि स्वर्णरेखा उसके मार्ग में एक रुकावट है और उसका अंत ही समस्या का एकमात्र हल है। उसने कहा, ‘‘जिस हार को मैंने पहन रखा है, अगर सचमुच ही वह महिमावान हो तो इसी क्षण तुम तोती के रूप में बदल जाओगी।’’ हार का स्पर्श करते हुए उसने कहा।


बस, देखते-देखते स्वर्णरेखा तोती में बदल गयी। तदुपरांत कादंबरी ने स्वर्णरेखा का रूप धारण कर लिया और शांभवि वृक्ष के पास गयी। उसे ही सच्ची स्वर्णरेखा मानकर मयूरध्वज बहुत आनंदित हुआ और उससे विवाह रचाने उसे राजधानी ले गया। कादंबरी का विवाह मयूरध्वज से बड़े ही वैभव के साथ संपन्न हुआ। वह अवंती राज्य की रानी बनी और यों असाधारण परिस्थितियों में उसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई।


तोती में बदली स्वर्णरेखा अपनी दुस्थिति पर विलाप करने लगी। एक भील ने उसे पकड़ लिया। और उसे एक कलाबाज़ को बेच दिया। कलाबाज़ ने उसे क्रीड़ाओं में प्रशिक्षित दिया। बातें सखायीं। तोती ने अपनी दुख भरी कहानी एक दिन कलाबाज़ को सुनाई। कलाबाज़ के उसे ढाढ़स दिया।

एक राजकर्मचारी की सहायता लेकर कलाबाज़ ने राजा के दर्शन किये। उसने अपने खेल देखने के लिए राजा से अभ्यर्थना की। राजा ने इसकी अनुमति दी। कलाबाज़ के खेल देखने राजदंपति सहित, राजा के रिश्तेदार, राजकर्मचारी और नगर प्रमुख इकठ्ठे हुए।

कलाबाज़ के खेलों ने उन सबको बहुत ही आकर्षित किया। विशेषकर तोती के खेल-जिस गेंद पर वह खडी थी, उसे ठकेलना, आग के चक्रों से होते हुए दूसरी ओर जाना, कलाबाज़ के बाणों से बचकर निकलना आदिबहुत प्रभावशाली थे। तोती ने साथ ही बड़ी ही मीठी-मीठी बातें सुनायीं, चुटकुले सुनाये। राजा ने उसकी मीठी बातों पर मुग्ध होते हुए कहा, ‘‘ओ तोती, तुम्हारा प्रदर्शन अद्भुत है। माँगो, तुम्हें क्या चाहिये?’’


‘‘जो चाहूँगी, महाराज अवश्य देंगे? अपने वचन से पलट नहीं जायेंगे न?’’ तोती ने कहा। ‘‘अपना वचन अवश्य निभाऊँगा। निस्संकोच माँगो,’’ राजा ने आश्वासन दिया । ‘‘रानीजी का कंठहार चंद क्षणों तक पहनने का भाग्य मुझे प्रसादिये।’’ तोती ने कहा। राजा ने संकेत द्वारा रानी से बताया कि वह अपना कंठहार तोती को दे। परंतु स्वर्णरेखा बनी कादंबरी के दिल में भय पैदा हो गया। उसने कंठहार निकालकर तोती के गले में डाल दिया। दूसरे ही क्षण तोती स्वर्णरेखा के रूप में बदल गयी और कादंबरी अपने असली रूप में प्रकट हुई। आश्र्चर्य में डूबे राजा को स्वर्णरेखा ने पूरा वृत्तांत सविस्तार बताया। इतने में कादंबरी दौडती हुई राजभवन के ऊपर गयी और वहॉं से नीचे कूद कर मर गयी।


‘‘उस धोखेबाज को सही दंड मिला महाराज। अब मुझे अपनी रानी के रूप में स्वीकार कीजिये।’’ स्वर्णरेखा ने कहा। राजा थोड़ी देर तक सोच में पड़ गया और फिर लंबी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ़ करना। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं कर सकता। कादंबरी के धोखे का शिकार मैं ही नहीं, तुम भी बनी। हम दोनों इसके ज़िम्मेदार हैं। भूलोक में आकर तुमने बहुत कष्ट सहे। जो हुआ, भूल जाआ और अपने लोक में चली जाओ, जहाँ तुम आराम से जिन्दगी गुज़ार सकती हो।’’

राजा की बातों पर स्वर्णरेखा घबरा गयी, पर अपने को संभालती हुई उसने कहा, ‘‘जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही करूँगी।’’ यह कहती हुई वह गायब हो गयी और गंधर्व लोक लौट आई। वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद कहा, ‘‘राजन्, राजा ने सुंदरी स्वर्णरेखा का तिरस्कार क्यों किया? राजा स्वर्णरेखा से प्रेम करते हैं या नहीं? वे उससे प्रेम नहीं करते, क्या इसीलिए उससे छुटकारा पाने के लिए ही उन्होंने छे महीनों की अवधि मॉंगी? पहले ही वह उसका तिरस्कार करते तो बेचारी स्वर्णरेखा को इतने कष्ट सहने नहीं पड़ते।

मेरे इन संदेहों के समाधान को जानते हुए भी मौन रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।’’ विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दूर करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि राजा मयूरध्वज ने, स्वर्णरेखा से गाढ़ा प्रेम किया। छे महीनों की जो अवधि तय की, वह केवल स्वर्णरेखा के प्रेम की परीक्षा मात्र के लिए ही नहीं बल्कि अपने लिये भी थी।


इस अवधि में वे स्वयं अपने प्रेम की भी परीक्षा करना चाहते थे। इसपर निर्णय लेने के बाद ही वे स्वर्णरेखा से विवाह रचाने शांभवि वृक्ष के पास गये। परंतु, उसके बाद कादंबरी के रूप में दुर्भाग्य ने उनका पीछा किया। असली स्वर्णरेखा को देखने के बाद, उन्हें मालूम हुआ कि उनके साथ धोखा हुआ है। राजा को यह भी मालूम हो गया कि बाह्य सौंदर्य से आकर्षित होने के कारण ही उनकी यह दुर्गति हुई है।

यह तो विवाह बंधन का उपहास करना हुआ। वे नहीं चाहते थे कि ऐसी ग़लती फिर से दुहरायी जाए। इसी वजह से उन्होंने स्वर्णरेखा की विनती को अस्वीकार किया। यह उनकी बौद्धिक परिपक्वता व अच्छे संस्कारों का परिचायक है। इस विषय में राजा निष्कपट हैं। स्वर्णरेखा ने राजा के इन मनोभावों को जाना और गंधर्वलोक लौट गई।’’ राजा के मौन भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और पुनः पेड़ पर जा बैठा।


(आधारः मनोहर शास्त्री की रचना)

जीवन में उतार-चढ़ाव

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा; उसे कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, "राजन्, मैं तो यह नहीं जानता कि तुम किस की सहायता करने के लिए, किस की बातों का विश्वास करके इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो। परंतु, मेरा अनुभव कहता है कि जिन्हें हम विज्ञ मानते हैं, वे अपनी ही बातों में बारंबार हेर-फेर कहते रहते हैं और उन्हीं बातों के विरुद्ध सलाह देते रहते हैं और मेधावियों को भी भ्रम में डाल देते हैं। इस प्रकार वे उन्हें ग़लत रास्ते पर ले जाते हैं। मैं तुम्हें एक ऐसे गुरु की कहानी सुनाऊँगा, जिन्होंने पारस्परिक विरोधी सलाहें देते हुए अपने एक विवेकी शिष्य को गुमराह किया। थकावट दूर करते हुए उस गुरु की कहानी सुनो।" फिर वेताल उस गुरु की कहानी यों सुनाने लगाः

अरावली पर्वत श्रेणी के पाद तल में गुरु ज्ञान भास्कर एक गुरुकुल चला रहे थे। पाँच सालों में एक बार वे देश में पर्यटन करते थे और अपने पुराने शिष्यों से मिला करते थे। उनके कुशल-मंगल के बारे में जानकारी प्राप्त करते थे और साथ ही देश की स्थिति को प्रत्यक्ष देखते थे। यह उनकी आदत थी। एक बार जब वे लौट रहे थे, तब मार्गमध्य में उन्होंने बारह साल की उम्र के एक गड़रिये को देखा, जो अकेले बैठे ताल पत्रों को ध्यान से पढ़ रहा था। पशु हरे-भरे मैदान में चर रहे थे। उस बालक को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। वे वहीं रुककर यह दृश्य देख रहे थे।
इतने में एक आवाज़ आयी, "अरे काली चरण, आ जाना। तेरी माँ का भेजा मांड पी लेना," यह सुनते ही वह बालक ताल को पत्थर के नीचे रख उस दिशा की ओर भागता हुआ गया, जहाँ से यह आवाज़ आयी थी। गुरु भी उसके पीछे-पीछे गये।
कुएँ के बग़ल में बैठकर बाप-बेटे ने मांड पी लिया। इतने में पिता की दृष्टि गुरु पर पड़ी तो उसने कहा, "हमने तो पूरा मांड पी लिया। थोड़ा बचा लेते तो अच्छा होता। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा।" कहते हुए वह ताल के पेड़ पर चढ़ गया और फल तोड़कर ले आया। फिर फलों से गूदा निकाला और खड़े गुरु को दिया।
गुरु ने गूदा खाते हुए कहा, "तुम्हारे बेटे पर सरस्वती की कृपा है। पर तुमने तो उसे गड़रिये का काम सौंप दिया। ऐसा क्यों किया?"

"उसे पढ़ाने की मेरी तीव्र इच्छा है स्वामी। किंतु हमारे कुल में लोग तो भेड़-बकरियाँ चराने का काम करते हैं; कोई गुरु इसे अपना शिष्य बनाकर ले जाए तो कितना अच्छा होता। ऐसे गुरु थोड़े ही मिलेंगे।" पिता ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा।
गुरु ने अपने गुरुकुल के बारे में उसे बताया और कहा, "अपने बेटे को मेरे साथ भेजो। निःशुल्क उसे पढ़ाऊँगा।"

"इससे बढ़कर मुझे और क्या चाहिये गुरुजी। अवश्य भेजूँगा।" कहते हुए उसने अपने बेटे की ओर देखा।
कालीचरण के मुख पर आनंद ही आनंद था। दूसरे दिन प्रातःकाल ही उसने अपने बेटे को गुरु के साथ भेज दिया।
गुरुकुल पहुँचने के बाद कालीचरण ने जी लगाकर शिक्षा प्राप्त की और युवा होते-होते उसने सभी विद्याएँ सीख लीं। उसने गणित शास्त्र और व्यापार संबंधी विषयों में विशेष रुचि दिखायी।
विद्याभ्यास पूरा करके वहाँ से जाने के पहले गुरु ने कालीचरण से कहा, "देखो कालीचरण, तुम्हारा जन्म किसी कुग्रम में हुआ और आज विद्वान बनकर जा रहे हो। इसका मूल कारण है, तुम्हारी बौद्धिक शक्ति । कभी भी यह नहीं भूलना कि निरंतर श्रम के कारण ही यह संभव हो पाया है। हर मनुष्य की प्रगति और पतन के कारण होते हैं, उसके विचार और उसके काम। दुनिया में जो भी जन्म लेते हैं, उनके पंचभूत और परिसर एक ही समान होते हैं। उनका सदुपयोग करना चाहिये और प्रगति के शिखरों पर आरोहण करना चाहिए। जानते हो, यह कैसे संभव होता है? उनका परिश्रम, और संकल्प। इस सत्य को पहचानो और स्वयं परिश्रम करो, शोध करो और प्रकाश पथ पर जाते हुए दूसरों को भी राह दिखाओ। कभी-कभी आते रहना और परिणाम मुझे बताते रहना।" फिर उन्होंने आशीर्वाद देकर उसे विदा किया।

स्वग्रम पहुँचने के बाद कालीचरण ने जान लिया कि उसकी विद्या के उपयोग की गुंजाइश यहाँ नहीं है। पिता को समझाकर खेत का एक हिस्सा बेच दिया और वह रक़म लेकर शहर पहुँचा। उसे वहाँ मालूम हुआ कि वहाँ कपड़ों की बड़ी माँग है। उसने कपड़ों की एक दुकान खोली। तीन साल गुज़र गये। व्यापार ऐसे तो चल रहा है, पर लाभ नहीं के बराबर है।
गुरु से मिलकर उसने उनसे यह बात बतायी तो उन्होंने कहा, "धनार्जन के लिए व्यापार राजमार्ग है। उसके लिए आवश्यक पूंजी और काम करनेवालों की बड़ी ज़रूरत पड़ती है न। यह किसी एक आदमी से संभव नहीं है। एक-दो विश्वसनीय मित्रों को भागीदार बनाओ तो तुम्हारा व्यापार फलेगा- फूलेगा।"
शहर लौटने के बाद कालीचरण ने गुरु की सलाह को लेकर खूब सोचा-विचारा। दो मित्रों से बातें कीं और उन्हें अपने व्यापार में भागीदार भी बनाया। शहर में दो और नयी दुकानें खुल गयीं। उसके व्यापार ने खूब जोर पकड़ा। शहर के सुप्रसिद्ध जौहरी ने अपनी बेटी का विवाह उससे रचाया। विवाह के अवसर पर पधारे गुरु ज्ञान भास्कर ने नूतन दंपति को आशीर्वाद दिया।
दिन बीतने लगे। कालीचरण की एक पुत्री जन्मी। शिशु का नाम रखा, अन्नपूर्णा और उसे बड़े ही लाड़-प्यार से पालने-पोसने लगा।
व्यापार की और वृद्धि के लिए कालीचरण ने भागीदारों से गहरी चर्चा की। खूब सोचने-विचारने के बाद उसने निर्णय किया कि अपने देश के श्रेष्ठ वस्त्रों को विदेशों में बेचने भेजा जाए तो अधिकाधिक लाभ कमाया जा सकता है। दूसरे महीने से ही उसने विदेशों में वस्त्रों को भेजने का काम शुरू कर दिया।
तीन महीनों के बाद, उसे मालूम हुआ कि सुवर्णद्वीप में इन कपड़ों की बड़ी माँग है तो उसने मूल्यवान वस्त्र एक जहाज में भेजा। साथ ही एक विश्वासपात्र गुमास्ते को भी भेजा। जब जहाज सुवर्णद्वीप के निकट पहुँच रहा था तब बहुत बड़ा भूकंप आया। भूकंप के कारण सुनामी आया और जहाज उलट गया। मालूम भी नहीं हो पाया कि आख़िर जहाज है कहाँ।
इस समाचार ने कालीचरण को हिला डाला। जिन भागीदारों ने उस समय तक उसके साथ घनी मैत्री निभायी, इस घटना के बाद वे उससे शत्रु की तरह व्यवहार करने लगे। इस दुःस्थिति कारण उसने मन की शांति भी खो दी। और वह हमेशा उदास रहने लगा।
उस समय गुरु ज्ञान भास्कर देशाटन पर थे। उस दौरान वे कालीचरण को देखने आये। उसकी दुःस्थिति पर उन्होंने दया दिखायी। उसे तसल्ली देते हुए उन्होंने कहा, "कालीचरण, ऐसे समय में धैर्य रखना चाहिये। जीवन में जीत-हार स्वाभाविक हैं। एक बार एक भील युवक बरगद की शाखा पर बैठकर कबूतरों की जोड़ी को अपने बाण का निशाना बनाने के लिए तैयार बैठा था। मादा कबूतर ने यह देख लिया और उड़ जाने के लिए नर कबूतर को संकेत किया । पर, नर कबूतर ने उसे उस बाज़ को दिखाया, जो उन्हें उड़ा ले जाने के लिए आकाश में घूम रहा था। उसने मादा कबूतर से कहा, "घबराओ मत। इस विपत्ति से बचने के लिए केवल भगवान से प्रार्थना कर सकते हैं। सिवा इसके कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इतने में भील युवक ने बाण छोड़ते हुए एक सांप पर अनजाने में पैर रखा, जिसने उसे डस लिया। वह ज़मीन पर गिर गया। वह बाण कबूतरों के ऊपर से होते हुए सीधे बाज़ को लगा, जिसके कारण वह मरकर ज़मीन पर गिर गया। यों कबूतर बच गये। देख लिया न, मरण की विपत्ति में फंस जाने के बाद भी नर कबूतर के धैर्य ने उसे बचाया। इसलिए तुम भी धैर्य रखो, सहनशील बने रहो। समय करवट लेगा। ऐसी कोई काली रात नहीं जिसके अन्त में भोर की किरण नई आशा लेकर नहीं आती। हर बदली के बाद चाँदनी छिटकती है। तुम्हारी स्थिति में भी अवश्य सुधार आयेगा। प्रतिकूल हवा जब चलती है तब मोथे की तरह सर झुकाना ही पड़ता है। सब कुछ काल के अधीन है। हम केवल निमित्त मात्र हैं।"


कहानी कह चुकने के बाद वेताल ने विक्रमार्क से पूछा "राजन्, गुरु ज्ञान भास्कर ने कालीचरण को उपदेश दिया था," जीवन में सफलता के लिए चाहिये परिश्रम और संकल्प। परन्तु अंत में एक चिड़िये की कहानी सुनाकर बताया कि सब कुछ समय के अधीन है। विधि बलवान है, यह कहते हुए उन्होंने शुष्क वेदांत का सहारा लिया। क्या यह विचित्र और एक-दूसरे के विरोधी नहीं लगते? क्या अनुभव ने उन्हें यही पाठ सिखाया? अथवा वृद्ध होने कारण उनमें उत्पन्न निराशा या उदासीनता इसके कारण हैं? उनके दो अभिप्रायों में से कौन-सा अभिप्राय सच्चा है। कौन-सा असत्य है? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे।"
विक्रमार्क ने कहा, "गुरु ज्ञान भास्कर की बातों में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है, उन्होंने कालीचरण को पहले और अंत में जो बताया, वे दोनों ही संपूर्ण सत्य हैं। मनुष्य के प्रयत्न व परिश्रम के बिना, किसी भी प्रकार की प्रगति साध्य नहीं। विधि लिखित मानकर चुप बैठ जायेंगे तो कुछ भी नहीं होगा। ऐसा करने पर दरिद्रता और बढ़ेगी। उन्होंने अपने प्रथम उपदेश में कहा था कि युवा हृदयों के लिए प्रयत्न और परिश्रम प्राण शक्ति समान हैं। उसी प्रकार जीवन की यात्रा में ऐसी बाधाएँ उपस्थित होंगी, जिनका सामना साहस के साथ करना चाहिये। पहले इनकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते।"
"परिस्थितियाँ हमेशा मनुष्य के अधीन नहीं होतीं । ऐसी स्थिति में, हमें सहनशील होना चाहिए और भगवान पर विश्वास रखना चाहिये। यही विषय उन्होंने अंत में बताया। दोनों ही परामर्श सत्य हैं, परंतु कब किस प्रकार से इनका उपयोग करना चाहिये, यह मनुष्य की विज्ञता और विवेक पर निर्भर करता है।"
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार-मंजु भारती की रचना)





Sunday, July 3, 2011

खड्ग महिमा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और यथावत् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘विषैले सर्पों, भूत-प्रेतों से भरे श्मशान में तुम निर्भय बढ़े जा रहे हो। मुझे तो लगता है कि भय भी तुमसे डरता है। किसी महान कार्य को साधने के लिए डटे हुए हो। तुम्हें अपने प्राण पर रत्ती भर भी मोह नहीं रहा। स्पष्ट है कि तुममें अटल आत्मविश्वास भरा हुआ है। तुम अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए, चाहे कोई भी मूल्य चुकाना क्यों न पड़े, चुकाने के लिए तैयार हो। आज तक मैं यह समझ नहीं पाया कि आख़िर वह लक्ष्य तुम्हारा है क्या? मुझे तुम्हारे श्रम को देखते हुए शशिकांत नामक एक ग्रामीण युवक की याद आती है, जिसने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अनेक कष्ट सहे, कठोर परिश्रम किया। उसकी कहानी थकावट दूर करते हुए मुझसे सुनो।'' फिर वेताल यों कहने लगाः

बहुत पहले की बात है। कनकवर नामक गाँव में शशिकांत नामक एक युवक रहा करता था। वह कितनी ही विद्याओं में प्रवीण था। विशेषकर खड्ग विद्या में उसकी बराबरी का कोई था ही नहीं। उसका पिता प्रसिद्ध व्यापारी था। दुर्भाग्यवश वह और उसकी पत्नी जहाज की एक दुर्घटना में मर गये। पिता ने जो धन छोड़ा, उससे उसने अन्य व्यापारियों के साथ व्यापार किया। परंतु अनुभवहीन उस युवक को व्यापारियों ने धोखा दिया। अब उसके पास कुछ नहीं रहा।
इस दुस्थिति में जयानंद नामक पड़ोस के गाँव का एक मित्र उससे मिलने आया। दुखी शशिकांत को सांत्वना देते हुए उसने कहा, ‘‘शशिकांत, खड्ग विद्या में तुम्हारी दक्षता अद्भुत है । तुम्हारी शक्ति अपार है। अगर इसी गाँव तक अपने को सीमित रखोगे तो यह विद्या तुम्हारे काम नहीं आयेगी। हमारी राजधानी करिवीरपुर जाना । वहाँ अभी विजयदशमी के अवसर पर स्पर्धाएँ होने जा रही हैं। उनमें भाग लेना और अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना। तुम्हें अवश्य ही राजा के आस्थान में काम मिलेगा। तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल होगा।''
मित्र जयानंद की सलाह शशिकांत को सही और उचित लगी। दूसरे ही दिन वह राजधानी पहुँचने निकल पड़ा। मार्गमध्य में जब वह एक घने जंगल से गुज़र रहा था, तब थकावट दूर करने के लिए एक पेड़ के तले बैठते समय किसी की चिल्लाहट सुनायी पड़ी। कोई ‘‘बाघ, बाघ, बचाओ, बचाओ'' कहकर चिल्ला रहा था।
शशिकांत फौरन म्यान से तलवार निकाल कर उस तरफ गया, जहाँ से आवाज़ आयी। बाघ, एक मुनि पर टूट पड़ने ही वाला था, तभी शशिकांत ने मुनि और बाघ के बीच में कूद कर तलवार से बाघ पर वार किया। उस वार से बाघ घायल होकर गिर गया, पर उस समय तलवार शशिकांत के हाथ से फिसल गयी।

इतने में बाघ गुर्राता हुआ उठा। शशिकांत ने मौक़ा देखकर बाघ के पेट में ज़ोर से लात मारी। बाघ अपने को संभाल कर फिर से शशिकांत पर आक्रमण करने के लिए उठा । शशिकांत ने बाघ के पिछले पैरों को पकड़ कर उसे दूर फेंक दिया। बाघ ज़मीन पर गिरकर छटपटाने लगा।
मुनि यह सब कुछ ध्यान से देख रहा था। उसने शशिकांत से कहा, ‘‘वीर युवक, तुम बड़े साहसी हो। तुम्हारे जैसे निस्वार्थ वीर विरले ही होते हैं। अपनी जान पर खेलकर तुमने मेरी रक्षा की। मैं इस प्रदेश को छोड़कर हिमालय जाना चाहता हूँ।'' कहते हुए उसने पास ही की एक झाड़ी से तलवार निकाली और कहा, ‘‘यह बहुत ही महिमावान खड्ग है। परंतु, इसका यह मतलब नहीं कि कोई दुस्साहस करने पर उतारू हो जाओ। तुममें जब धैर्य-साहस भरा हुआ हो, खड्ग चलाने में नैपुण्य हो, तभी यह तुम्हारी सहायता करेगा।'' कहकर मुनि ने उसे खड्ग सौंप दिया।
शशिकांत ने मुनि के चरण छुए और अपनी यात्रा फिर शुरू कर दी। राजधानी पहुँचते-पहुँचते अंधेरा छा चुका था। उसने एक सराय में रहने के लिए व्यवस्था कर ली। उस सराय की मालकिन एक बूढ़ी औरत थी। दूसरे ही दिन विजयदशमी उत्सव शुरू हुए। राजा के निकट के एक रिश्तेदार ने खड्ग युद्ध में सबको हरा दिया। उसका नाम था चक्रधर। उसके शौर्य से राजा बहुत ही प्रसन्न हुए। वे उसे खड्गवीर की उपाधि देने ही वाले थे कि शशिकांत ने प्रवेश करते हुए कहा, ‘‘महाराज, क्षमा चाहता हूँ। मेरे आने में थोड़ी देरी हो गयी।'' कहते हुए उसने म्यान से खड्ग निकाला।
यह देखते ही चक्रधर क्रोधित होकर बोला, ‘‘कौन है यह? देखने में ग्रमीण लगता है। खड्ग युद्ध में मुझ जैसे शूर से लड़ने का साहस! अगर मैं हार जाऊँगा तो राज्य छोड़कर चला जाऊँगा,'' कहते हुए उसने म्यान से खड्ग निकाला। उपस्थित लोग आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। राजा के पास बैठी उनकी इकलौती पुत्री मणिकर्णिका मुस्कुराने लगी।
खड्ग युद्ध शुरू हो गया। शशिकांत ने आसानी से चक्रधर के वारों का मुक़ाबला किया। पंद्रह मिनटों के अंदर ही उसने उसे हरा दिया। फिर उसने खड्ग को अपनी आँखों से लगाया।


किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि चक्रधर की यों हार होगी। दर्शकों सहित महाराज और राजकुमारी आश्चर्य में डूब गये। वचन के अनुसार चक्रधर उसी समय वहाँ से चला गया।
चक्रधर अद्वितीय खड्गवीर माना जाता था। उसकी हार ने सबको आश्चर्य में डाल दिया, साथ ही सबने बड़े ही उत्साह के साथ शशिकांत का तालियाँ बजाते हुए स्वागत किया।
राजा ने, तुरन्त खड्ग वीर की उपाधि शशिकांत को प्रदान किया और शाम को उद्यानवन में उससे मिलने के लिए उसे निमंत्रित किया।
राजा, युवरानी मणिकर्णिका, प्रधान मंत्री व आस्थान पंडित जब राजभवन पहुँचे तब राजा ने उन सबसे कहा, ‘‘देखने में बड़ा ही सुंदर और सुशील लगता है। हट्टा-कट्टा है। कहता है कि किसी गाँव से आया हूँ। पर, मुझे लगता है कि यह शिक्षित नहीं है।''
मंत्री ने कहा, ‘‘महाराज, यह युवक एक सराय में रहता है। हमारे गुप्तचरों ने इसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की। यह शशिकांत कभी संपन्न परिवार का था, पर परिस्थितियों ने उसे अनाथ बना दिया। अपना खड्ग कौशल प्रदर्शित करके हमारे आस्थान में नौकरी पाने के उद्देश्य से यहाँ आया है। जानकारी मिली है कि अन्य विद्याओं में भी यह प्रवीण है।''
राजकुमारी यह सब कुछ ध्यान से सुन रही थी। मुस्कुराती हुई उसने मंत्री को देखा।
प्रतियोगिताओं को शुरू करने के पहले ही राजा ने घोषणा की थी कि जो सबको हरायेगा, उसका विवाह राजकुमारी से होगा। उनका पूरा-पूरा विश्वास था कि चक्रधर ही जीतेगा। परंतु जो हुआ, उसकी कल्पना उसने की ही नहीं थी।
शाम को, जब राजा, युवरानी, मंत्री, शशिकांत और आस्थान पंडित उद्यानवन में उपस्थित थे, तब गुप्तचरों का सरदार वहाँ आया और बोला, ‘‘महाराज, चक्रधर अभी राज्य की सरहदों पर विद्रोह करने के लिए लोगों को इकठ्ठा कर रहा है। उसका कहना है कि मांत्रिक के दिये महिमावान खड्ग के कारण ही उसकी हार हुई है। यह कहते हुए वह लोगों को इकठ्ठा कर रहा है कि मैं राजा के विरुद्ध विद्रोह करूँगा, खुद राजा बनूँगा और मणिकर्णिका से विवाह करके ही रहूँगा।''
यह सुनकर राजा चकित रह गया। आश्चर्य प्रकट करते हुए उसने कहा, ‘‘मेरे ही सगे आदमी ने मेरे विरुद्ध विद्रोह करने की ठान ली!''

आस्थान पंडित ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘महाराज, आप बिल्कुल निश्र्चिंत रहिये। हमारे विरुद्ध वह जो दुष्प्रचार कर रहा है, उससे हमें कोई हानि नहीं पहुँचेगी, उल्टे हमें लाभ होगा। जब अड़ोस-पड़ोस के शत्रु राजाओं को मालूम हो जायेगा कि होनेवाली महारानी के पति के पास एक महिमावान खड्ग है, तब वे हमारी ओर आँख उठाकर देखने की भी जुर्रत नहीं करेंगे।'' फिर राजकुमारी और शशिकांत को देखते हुए कहा, ‘‘मैंने जो कहा, समझ गये न?''
दोनों ने खुश होते हुए सिर हिलाया।
वेताल ने कहानी बता चुकने के बाद विक्रमार्क से कहा, ‘‘आस्थान पंडित ने जो कहा, उसमें युक्ति व वाक् चातुर्य मात्र दिखते हैं। वास्तविकता नहीं। चक्रधर को कैसे मालूम पड़ा कि शशिकान्त का खड्ग महिमावान है। मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘आस्थान पंडित की बातों में युक्ति और चमत्कार से बढ़कर वास्तविकता है। चक्रधर ने घोषणा की थी कि हारने पर राज्य छोड़कर चला जाऊँगा पर वह हार सह नहीं सका। इसीलिए वह प्रचार करने लगा कि शशिकांत की जीत का कारण उसकी वीरता नहीं, उसका महिमावान खड्ग है। यह एक सच्चे वीर के लक्षण नहीं हैं। उल्टे वह, स्वार्थवश राजा के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए लोगों को इकठ्ठा करने लगा। इससे स्पष्ट होता है कि उसकी बुद्धि कुटिल है। आस्थान पंडित ने ठीक ही कहा कि उसके प्रचार से राज्य को हानि नहीं पहुँचेगी, उल्टे लाभ ही होगा। मुनि ने स्पष्ट रूप से शशिकांत से बताया था कि यह महिमावान खड्ग तभी तुम्हारी सहायता करेगा, जब तुममें स्वयं धैर्य और साहस हों और खड्ग चलाने में प्रावीण्य हो। शशिकांत में ये गुण कूटकूटकर भरे हुए हैं। उसके हारने का सवाल ही नहीं उठता। राज्य पर कोई भी आपदा नहीं आयेगी।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और पुनः पेड़ पर जा बैठा।
(आधार : सुचित्रा की रचना)